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सनातन धर्म का कोढ़ है जाति प्रथा

सनातन धर्म से आशय है कोई ऐसा धर्म जो शाश्वत है अर्थात जो हमेशा से था. ‘धर्म’ शब्द को भी परिभाषित करना सहज नहीं है. इस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

हिन्दू धर्म का कोई पैगम्बर नहीं है और ना ही उसकी कोई एक किताब है. यहां तक कि ‘हिन्दू’ शब्द का इस्तेमाल हिन्दू धर्मग्रंथों में कहीं नहीं किया गया है. यही कारण है कि विभिन्न टीकाकारों और सुधारकों ने हिन्दू धर्म और उसके सिद्धांतों की अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है. यहां तक कि कुछ लोग इसे धर्म न बताते हुए जीवन पद्धति की संज्ञा देते हैं. सच यह है कि हिन्दू धर्म कई विविध और कुछ मामलों में विरोधाभासी सिद्धांतों का मिश्रण है, जिन्हें मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है - ब्राम्हणवादी (जिसका आधार हैं वेद, मनुस्मृति और जातिगत व लैंगिक पदक्रम) और श्रमण (नाथ, तंत्र, भक्ति, शैव व सिद्धांत परंपराएं).

सनातन धर्म से आशय है कोई ऐसा धर्म जो शाश्वत है अर्थात जो हमेशा से था. ‘धर्म’ शब्द को भी परिभाषित करना सहज नहीं है. इस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं, जैसे धर्म द्वारा निर्धारित कर्तव्य या आध्यात्मिक व्यवस्था अथवा पवित्र आचार-विचार या फिर सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का संकलन. शशि थरूर अपनी पुस्तक ‘वाय आई एम ए हिन्दू’ में लिखते हैं कि “धर्म वह है जिसका हम पालन करते हैं”. इन जटिलताओं को परे रख कर हम इतना तो कह ही सकते हैं कि सनातन धर्म शब्द का प्रयोग हिन्दू धर्म, विशेषकर लैंगिक व जातिगत ऊंच-नीच पर आधारित उसके ब्राम्हणवादी संस्करण, के लिए किया जाता रहा है. यही कारण है कि अंबेडकर का मानना था कि हिन्दू धर्म दरअसल ब्राम्हणवादी धर्मशास्त्र है. हिन्दू धर्म हिन्दुत्व या हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति, जो मनुस्मृति और तदानुसार जातिगत ऊँच-नीच को मान्यता देती है, का मूलाधार है. एक तरह से आज सनातन धर्म को जातिगत ऊँच-नीच का पर्याय मान लिया गया है.

हमें उदयनिधि स्टालिन (स्टालिन जूनियर या एसजे) के सनातन धर्म के उन्मूलन के आव्हान को इस पृष्ठभूमि में समझना होगा. एसजे, पेरियार की परंपरा में रचे-बसे हैं. पेरियार ने आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया था जो जातिगत समानता और पितृसत्तात्मकता के उन्मूलन पर केन्द्रित था. पेरियार ब्राम्हणवादी नियमों और प्रथाओं, जिनका समाज में जबरदस्त बोलबाला था, के कटु आलोचक थे. पेरियार के पहले अंबेडकर की मौजूदगी में उनके साथी सहस्त्रबुद्धे ने मनुस्मृति का दहन किया था. अंबेडकर का मानना था कि मनुस्मृति जातिगत असमानता को वैधता प्रदान करती है. ब्राम्हणवाद, जिसे सनातन धार्मिक मूल्यों का संकलन बताया जाता है, की प्रभुता से उद्वेलित हो अंबेडकर ने घोषणा की थी कि, ‘‘मैं एक हिन्दू के रूप में पैदा हुआ था. यह मेरे हाथ में नहीं था. परंतु मैं एक हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं”. एसजे ने कहा कि ‘‘सनातन धर्म वह सिद्धांत है जो लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांटता है...” (द टाईम्स ऑफ इंडिया, 4 सितंबर 2023).

एसजे ने केवल वही दुहराया है जो पेरियार और अंबेडकर ने अलग शब्दों में कहा था. ‘सनातन धर्म’ शब्द के इस्तेमाल के चलते एसजे के वक्तव्य को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा गया यह भाजपा के प्रवक्ता अमित मालवीय की ट्वीट से जाहिर है. मालवीय ने एक्स पर लिखा, ‘‘तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पुत्र और डीएमके सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म की तुलना मलेरिया और डेंगू से की है.... संक्षेप मे वे यह आव्हान कर रहे हैं कि भारत की 80 प्रतिशत आबादी, जो सनातन धर्म की अनुयायी है, का कत्लेआम कर दिया जाए.” यहां मालवीय न केवल एसजे के बयान को तोड़-मरोड़ रहे हैं वरन् वे इस बात की पुष्टि भी कर रहे हैं कि आज सनातन धर्म और हिन्दू धर्म एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं.

एसजे ने जाति के उन्मूलन की बात कही है ना कि लोगों के. जब अंबेडकर ‘‘जाति के विनाश” की बात कहते हैं तो वे यह नहीं कह रहे होते हैं कि हिन्दुओं का नरसंहार होना चाहिए. अंबेडकर का आशय और एसजे का आव्हान एक ही हैं. भाजपा के नेता जानबूझकर एसजे के बयान को तोड़-मरोड़ रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि एसजे का डीएमके, इंडिया गठबंधन का हिस्सा है. अमित शाह आमसभाओं में कह रहे हैं कि कांग्रेस ने कभी भारतीय संस्कृति का सम्मान नहीं किया और यह भी कि एसजे का आव्हान ‘हेट स्पीच’ है. सच यह है कि जाति व्यवस्था के विनाश की कामना करना या असमानता पर आधारित किसी भी व्यवस्था का विरोध करना ‘हेट स्पीच’ नहीं हो सकता. एसजे ने वही कहा जो अंबेडकर और पेरियार ने कहा था. यहां मुख्य मुद्दा यह है कि ब्राम्हणवादी हिन्दू धर्म ने सनातन धर्म का चोला ओढ़ लिया है.

सच यह भी है कि अलग-अलग दौर में एक ही शब्द के अलग-अलग अर्थ होते हैं. जब गांधीजी देश को एक करने और अछूत प्रथा का निवारण करने का प्रयास कर रहे थे तब उन्होंने स्वयं को सनातन धर्म और हिन्दू धर्म का अनुयायी बताया था. सन् 1932 के बाद कुछ सालों तक गांधीजी का जोर अछूत प्रथा के उन्मूलन और दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने पर था. अतीत में बौद्ध और जैन धर्मों को भी सनातन बताया जाता था. आज आरएसएस, जो ब्राम्हणवाद को राष्ट्रवाद से जोड़ता है, हिन्दू धर्म के लिए सनातन शब्द के प्रयोग को बढ़ावा दे रहा है. यही कारण है कि एसजे को सनातन धर्म शब्द का प्रयोग करना पड़ा. जहां तक ‘हेट स्पीच’ का सवाल है, एसजे ने केवल उन मूल्यों के उन्मूलन की बात कही है जो जातिगत ऊँच-नीच को औचित्यपूर्ण और वैध ठहराते हैं. इसे किसी भी तरह से हेट स्पीच नहीं कहा जा सकता.

भाजपा के नेता और प्रवक्ता उदयनिधि के वक्तव्य के बहाने कांग्रेस और इंडिया पर बिना किसी आधार के हमले कर रहे हैं. इस आरोप में कोई दम नहीं है कि कांग्रेस ने भारतीय संस्कृति का सम्मान नहीं किया. यह केवल सियासी फायदे के लिए तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का उदाहरण है. कांग्रेस तो उस जनांदोलन की धुरी थी जिसने देश के सभी निवासियों को भारतीय की सांझा पहचान के झंडे तले लाने का प्रयास किया. यह आंदोलन भारत के सांस्कृतिक मूल्यों का पूरा सम्मान करता था परंतु इसके साथ ही वह समाज में बदलाव और सुधार भी लाना चाहता था.

अमित शाह कहते हैं, ‘‘आप (विपक्ष) सत्ता हासिल करना चाहते हैं. पर किस कीमत पर? आप सनातन धर्म और इस देश की संस्कृति और इतिहास का असम्मान करते आ रहे हैं”. तथ्य यह है कि राष्ट्रीय आंदोलन ने भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ पहलुओं को संरक्षित किया. जैसा कि नेहरू लिखते हैं, “भारत एक ऐसी स्लेट थी जिसके ऊपर एक के बाद एक कई परतों में नई-नई बातें लिखी गईं परंतु किसी नई परत ने न तो पिछली परत को पूरी तरह से छुपाया और न मिटाया.” दरअसल समस्या इंडिया गठबंधन की सदस्य पार्टियों की वजह से नहीं है. समस्या भाजपा एंड कंपनी की है जिनके लिए भारतीय संस्कृति का अर्थ है ब्राम्हणवाद.

जाति प्रथा के उन्मूलन में पहले ही बहुत देर हो चुकी है. अंबेडकर, पेरियार और गांधीजी ने भी इस दिशा में सघन प्रयास किए और उन्हें कुछ हद तक सफलता भी मिली परंतु यह प्रक्रिया अधबीच रूक गई और पिछले तीन दशकों से तो हम पीछे की तरफ जा रहे हैं. शब्दावली को लेकर बेसिर-पैर के विवाद खड़े करने की बजाए हमें जाति के विनाश के लिए काम करना चाहिए. सनातन शब्द पहले बौद्ध और जैन धर्मों के लिए इस्तेमाल होता था. बाद में वह मनुस्मृति का हिस्सा बना और आज वह ब्राम्हणवादी हिन्दू धर्म का प्रतीक बन गया है. जरूरत इस बात की है कि हम बाल की खाल निकालने की बजाए और इस मुद्दे को राजनैतिक बहसबाजी का विषय बनाने की बजाए ऐेसे सुधारों की ओर बढ़ें जिनसे हम भारत के संविधान के मूल्यों के अनुरूप समानता पर आधारित समाज का निर्माण कर सकें.

वैसे भी एसजे का बयान इंडिया गठबंधन का आधिकारिक वक्तव्य नहीं है. भाजपा इसे चुनावी मुद्दा बनाएगी या नहीं यह तो आने वाला समय ही बताएगा परंतु हम सबको यह याद रखना चाहिए कि भाजपा ने कर्नाटक चुनाव में बजरंगबली को एक बड़ा मुद्दा बनाया था और उसके बावजूद मुंह की खाई थी. 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

साभार : सबरंग 

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