सनातन बनाम आर्यसमाजः धर्म किताब में है या साधना में
प्रौद्योगिकी, पूंजी और ज्ञान की बहुआयामी धाराओं से लैस इक्कीसवीं सदी का भी पीछा धर्म से छूटा नहीं। कोई कितना भी दावा करे कि धर्म व्यक्तिगत मामला है, धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए या लोग तेजी से नास्तिक हो रहे हैं और एक दिन धर्म समाप्त ही हो जाएगा। लेकिन या तो एक बार मनुष्य की गैर धार्मिक चेतना से धर्म की तगड़ी भिडंत होगी या फिर धीरे धीरे टक्कर चलती रहेगी। सर्वोदय दर्शन के विलक्षण चिंतक विनोबा भावे ने एक जगह कहा है कि संगठित धर्म और संगठित राजनीति दोनों मानवता के लिए घातक हैं। इसलिए वे धीरे धीरे उसी तरह समाप्त हो जाएंगे जिस तरह मनुष्य के अनावश्यक अंग समाप्त हो जाते हैं। आखिर में वही चीज बचती है जो उपयोगी होती है और ऐसे में दो ही चीजें बचेंगी एक विज्ञान और दूसरा अध्यात्म। क्या मानवता इसके लिए तैयार है? क्या दुनिया के चार धर्म की जन्मभूमि कहा जाने वाला भारत इसके लिए तैयार है? क्या दुनिया के सभी धर्मों की उत्पत्ति स्थली कहा जाने वाला एशिया इसके लिए तैयार है? क्या पहले दुनिया को धर्म के माध्यम से नियंत्रित करने की कोशिश करने वाला और फिर धर्म से युद्ध करते हुए उसे राजनीति के कारागर में कैद करने वाला यूरोप इसके लिए तैयार है?
आइए इसी व्यापक संदर्भ में हम सनातन धर्म के बहाने उठे विवाद और आर्यसमाज से उसके रिश्तों के साथ धर्म की नए संदर्भ में चर्चा करते हैं। विनायक दामोदर सावरकर जैसे हिंदुत्व के सिद्धांतकार से लेकर गोलवलकर और मोहन भागवत तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को नेतृत्व देने वाले सभी लोग सनातन धर्म को हिंदू धर्म का ही समानार्थी मानते हैं। सावरकर ने 1927 में कहा था, ` ज्यादातर हिंदुओं के धर्म को प्राचीन स्वीकृत संबोधन से जाना जाता है। जिसे सनातन धर्म, श्रुति-स्मृति और पुराणोक्त धर्म कहा जाता है। जबकि बाकी हिंदुओं के धर्म को सिख धर्म या आर्यसमाज धर्म कहा जाता है।’
शायद सनातन धर्म के नाम को आज प्रचारित करने का उद्देश्य विश्वगुरु बनने की महत्वाकांक्षा से है तभी मोहन भागवत ने कहा भी है कि दुनिया 2000 साल से कष्ट भोग रही है केवल सनातन धर्म ही उसे ठीक कर सकता है। हालांकि संघ के एक और चिंतक दीनदयाल उपाध्याय ने कहीं भी सनातन धर्म की बात नहीं की है। वे `एकात्म मानववाद’ में भी धर्म की बात करते हैं न कि सनातन धर्म की। उनका कहना था कि राष्ट्र के आदर्श से चित्ति का निर्माण होता है और जिन कानूनों से राष्ट्र की चित्ति प्रकट होती है उन्हें धर्म कहते हैं।
लेकिन जिस समय सावरकर हिंदुत्व का सिद्धांत गढ़ रहे थे उसी समय रामास्वामी नाइकर उर्फ पेरियार आत्म-सम्मान आंदोलन शुरू कर रहे थे और हिंदू धर्म को ब्राह्मण धर्म कहते हुए उसे ललकार रहे थे। उनका कहना था ,`यह सिर्फ हिंदुवाद में ही है कि एक विशिष्ट समूह अपने को बौद्धिक मानता है। बाकी नब्बे प्रतिशत लोग निरक्षर और अज्ञानी हैं। जिस समाज में सिर्फ एक हिस्सा बौद्धिक वर्ग हो सकता है क्या वह धर्म उस विशिष्ट वर्ग के अलावा बाकी के लिए विनाशकारी नहीं है?’
वास्तव में सनातन धर्म का कोई संस्थापक नहीं है। सनातन धर्म कब शुरू हुआ इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं है। सनातन धर्म प्रकृति से डर कर शुरू हुआ ऐसा कहा जा सकता है लेकिन वह किसी अन्य धर्म के भय या प्रतिस्पर्धा से शुरू हुआ ऐसा कहना कठिन है। जबकि आर्यसमाज के संस्थापक स्पष्ट रूप से स्वामी दयानंद सरस्वती हैं। जिन्होंने 7 अप्रैल 1875 को मुंबई (तत्कालीन बंबई) में आर्यसमाज की स्थापना की और आर्यों के स्वर्णयुग की अवधारणा प्रस्तुत की। दयानंद सरस्वती आर्य समाज की स्थापना से पूर्व राममोहन राय के ब्रह्मसमाज के संपर्क में आ चुके थे। हालांकि दयानंद सरस्वती जब नौ वर्ष के थे तभी राममोहन राय का निधन (1833) हो चुका था। इसलिए उनसे सीधे संपर्क होने का तो सवाल ही नहीं था। लेकिन दयानंद सरस्वती कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) गए थे और उनका संपर्क ब्रह्मसमाज को समर्थ नेतृत्व देने वाले और उससे निष्काषित किए जाने के बाद आदि ब्रह्मसमाज के संस्थापक केशवचंद्र सेन से हुआ था। केशव चंद्र सेन की सलाह पर ही दयानंद सरस्वती ने हिंदी में सत्यार्थ प्रकाश की रचना की थी।
दयानंद सरस्वती ने जिन चार सिद्धांतों को प्रतिपादित किया वे इस प्रकार हैः---
1- चार वेद ईश्वर प्रदत्त हैं।
2- विशुद्ध आर्य धर्म की स्थापना इन्हीं चार ग्रंथों में निहित है।
3- शंकराचार्य का अद्वैतवाद शुद्ध वैदिक परंपरा के विपरीत है।
4- शंकर का दर्शन एकेश्वरवाद के अधिक निकट है।
शायद इसीलिए यह भी कहा जाता है कि शंकर तो प्रच्छन्न बौद्ध थे। दयानंद ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में वेद से निःसृत जिन शिक्षाओं को स्थापित किया है वे हैं---
प्रकृति सत् है। आत्मा सत् है। परमात्मा सद्चित और आनंद है। यह तीनों अनादि और अनंत हैं। हर व्यक्ति को शाश्वत मानवधर्म के अनुसार आचरण करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिए। योग और न्याय ने वेदों को शाश्वत ज्ञान का स्रोत कहा है। दयानंद ने वैदिक ऋचाओं के ही अध्ययन पर बल दिया। दयानंद सरस्वती ने नारा दिया---वेदों की ओर लौटो। उन्होंने हिंदू या सनातन धर्म में व्याप्त बहुदेववाद का विरोध किया और उसे उसी तरह पुस्तकों पर आधारित करने का सुझाव दिया जैसे कि इस्लाम कुरान पर, ईसाइयत बाइबल पर आधारित धर्म था। उनका दावा था कि भारत में महाभारत काल के आने से पहले स्वर्ण युग था। उसी स्वर्ण युग को लाने की परिकल्पना में उन्होंने मूर्तिपूजा, छुआछूत, बहुदेववाद, कर्मकांड, जातिवाद और बाल विवाह का विरोध किया।
यह आर्यसमाज के आंदोलन का प्रभाव था कि 1929 में बाल विवाह निरोधक कानून बना, 1937 में आर्य विवाह वैधता कानून बना और 1928 में बालिका संरक्षण अधिनियम बना। दयानंद का प्रभाव पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर गहरा पड़ा। उनके प्रभाव में जाति की संरचना ढीली हुई, स्त्री शिक्षा शुरू हुई और छुआछूत कम हुई। लोगों में बराबरी की भावना आई। तमाम पाखंड खत्म हुए और देश के कई हिस्सों में पाखंड खंडिनी पताका फहराई। उनके प्रभाव में एक ओर अंग्रेजी राज का विरोध तीव्र हुआ और दूसरी ओर राष्ट्रवाद की धारा तेज हुई। स्वयं भगत सिंह का परिवार आर्यसमाजी ही था। बल्कि आर्य समाज के प्रभाव में हजारों नेता और कार्यकर्ता निकले। आर्यसमाज ने गोरक्षा का आंदोलन शुरू किया और उसको खेती की अर्थव्यवस्था से जोड़ा। दयानंद का मानना था कि बूचड़खानों के बनने से गोमांस के लिए जानवरों का वध किया जा रहा है और उससे खेती को नुकसान हो रहा है। रोचक तथ्य यह है कि उन्होंने इतिहासकारों की इस व्याख्या का खंडन किया कि ब्राह्मण गोमांस खाते थे। बल्कि उन्होंने कहा कि वेदों में गोभिकर्तन शब्द जो आया है उसका अर्थ है यज्ञ में हव्य डालना।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि आर्यसमाज ने आरंभ में जो गोरक्षिणी सभाएं बनाई थीं उसमें मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी जोड़ा था। लेकिन धीरे धीरे जैसे जैसे गोरक्षा आंदोलन धार्मिक और सांप्रदायिक रंग लेने लगा वैसे वैसे यह संख्या खत्म होती गई।
दयानंद के आर्य समाज ने जितने अच्छे काम किए उतने ही विवादित कामों से उनका नाता रहा। यही कारण है कि आरंभ में साझी संस्कृति और एक प्रकार की पंथ निरपेक्ष संस्कृति की ओर समाज को ले कर जाते आर्य समाज ने कब अपनी स्टीयरिंग सांप्रदायिकता की ओर मोड़ दी पता ही नहीं चला।
आर्य समाज का विभाजन हुआ और स्वामी श्रद्धानंद का उदय हुआ जिनकी हत्या ने बाद में इस आंदोलन को संकीर्ण राह पर ठेल दिया।
इस संकीर्णता के बीज स्वयं दयानंद सरस्वती के चिंतन में ही थे। उनके `सत्यार्थ प्रकाश’ में हिंदू धर्म समेत सिख, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई और अन्य धर्मों की कड़ी आलोचना है। वास्तव में उन्होंने अपनी व्याख्या से निर्मित वैदिक धर्म को इतना बड़ा सत्य मान लिया था कि उसके आगे सब कुछ झूठ और पाखंड लगता था। इसके चलते स्वतंत्रता आंदोलन में सांप्रदायिक दृष्टि का समावेश होता गया। उसे गति दी आर्यसमाज के शुद्धि आंदोलन ने। यह आंदोलन वैदिक धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मों में गए लोगों को शुद्ध कराकर अपने धर्म में वापस लाने का एक प्रयास था। इसने हिंदू धर्म को एक मिशनरी धर्म में परिवर्तित कर दिया। तमाम विद्वानों का कहना है कि दयानंद ने इस्लाम और ईसाइयत की तरह से हिंदू धर्म का सामीकरण कर दिया। शुद्धि आंदोलन पंजाब के इलाके में तेजी से चला और उससे सामाजिक तनाव भी पैदा हुआ। आर्यसमाज ने एक ओर पूरे पंजाब के लोगों को सलाह दी कि वे जनगणना में अपनी भाषा न तो उर्दू लिखवाएं और न ही पंजाबी। बल्कि वे हिंदी को अपनी मातृभाषा लिखवाएं। इससे भाषा का धर्म के साथ एक रिश्ता कायम हो गया और पंजाब के सांप्रदायिक विभाजन का आधार तैयार हुआ।
आर्यसमाज की भाषा नीति का विरोध स्वयं भगत सिंह ने भी किया है। यहां तक कि शांति निकेतन में जब बलराज साहनी अध्यापन करने गए तो वे यह मानते थे कि पंजाबी ऐसी भाषा नहीं है कि इसमें कोई भी गंभीर साहित्य या ज्ञान की रचना हो सकती है। उनकी इस समझ को सुधारने का काम किया स्वयं गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने।
गुरुदेव ने उनसे कहा कि जिस भाषा में गुरुनानक देव ने इतनी सुंदर रचनाएं की हैं जिसमें कई अन्य समर्थ भक्त कवि हुए हैं उसे आप असमर्थ भाषा कैसे मान सकते हैं। उसके बाद जब वे वर्धा गए तो उन्हें महात्मा गांधी से भी यही सीख मिली। फिर बलराज साहनी पंजाबी की ओर मुड़े।
आर्य समाज ने सिखों को केश काटने की सलाह भी दे डाली थी। इस तरह आर्यसमाज ने एक ओर हिंदू मुस्लिम तनाव पैदा किया तो दूसरी ओर हिंदू सिख तनाव भी उत्पन्न किया।
यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आर्य समाज ने गोरक्षिणी सभाओं का जो आंदोलन शुरू किया था उसे कांग्रेस ने आगे बढ़ाया। बल्कि कांग्रेस के दफ्तर तमाम ऐसी जगहों पर खुले जहां पर गोरक्षिणी आंदोलन के दफ्तर थे। लेकिन गांधी इस बात को समझ गए थे कि गोरक्षा का आंदोलन सांप्रदायिक दंगों का आधार बन रहा है इसकी काट के लिए उन्होंने गोरक्षा की अपनी बेहद संवेदनशील और उदार व्याख्या की और बाद में खिलाफत आंदोलन से हिंदू और मुस्लिम समाज में बढ़ती खाई को पाटने की कोशिश की।
गांधी ने हिंद स्वराज में कहा भी है कि अगर मेरा भाई गाय को मारने दौड़े तो मैं उसे समझाऊंगा, उसके हाथ पैर पकड़ूंगा और मनाऊंगा और अगर फिर भी वह न माने तो मैं गाय को उसके हाथों मरने के लिए छोड़ दूंगा लेकिन मैं गाय के लिए अपने भाई पर हाथ नहीं उठाऊंगा।
`सत्यार्थ प्रकाश’ नामक आर्यसमाज के केंद्रीय ग्रंथ से गांधी जी को बहुत निराशा हुई। क्योंकि उसमें बहुत ज्यादा खंडन मंडन है। उसमें जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई और खालसा पंथ की कठोर निंदा है। कलकत्ते में दयानंद का भाषण सुनने एक बार रामकृष्ण परमहंस भी गए थे। जाहिर सी बात है कि रामकृष्ण पढ़े लिखे नहीं थे। वे तो अध्यात्म और अनुभूति के साधक थे। वे एक बार थोड़े थोड़े समय के लिए सभी धर्मों का आचरण करके देख चुके थे और उन्हें उसमें कोई अंतर नहीं दिखा था। इसलिए उन्हें दयानंद की बात एकदम पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा भी कि कलकत्ते में एक विद्वान संन्यासी आए हुए हैं जो सभी को गाली दे रहे हैं।
आर्यसमाज की इसी कठोर भाषा का प्रभाव है कि वह आंदोलन या पंथ धीरे धीरे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ जुड़ गया या यूं कहें कि उस पर आरएसएस ने कब्जा कर लिया। सिर्फ स्वामी अग्निवेश जैसे कुछ आर्यसमाजी अपने जीवन के आखिर तक सांप्रदायिकता और जातिवाद के विरोध की पताका उठाए हुए थे। इसीलिए आरोप है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उन पर हमले करवाए और वही हमले उनके लिए जानलेवा साबित हुए।
आर्य समाज से अलग सनातन धर्म वास्तव में कर्मकांडी और बहुदेववादी धर्म ही है जो मूर्तिपूजा, जातिप्रथा और मनुस्मृति और दूसरी स्मृतियों समेत पुराणों में विश्वास करते हुए लोकव्यवहार के आधार पर अपने को संचालित करता है। दरअसल सनातन धर्म शब्द का प्रयोग उन्नीसवीं सदी में ज्यादा प्रचलित हुआ है। इसे शाश्वत मूल्यों वाला धर्म बताया गया है। जिस तरह आर्य समाज भी ईसाई और यूरोपीय प्रभाव और प्रतिक्रिया में उत्पन्न पंथ है वैसे ही सनातन शब्द के पीछे यूरोपीय प्रभाव से आतंकित हिंदू समाज का मानस भी दिखाई पड़ रहा है। हिंदू समाज ने इस्लाम के समक्ष अपने को भक्ति आंदोलन में ढाला और सूफी मतों से समन्वय करते हुए एक नए मार्ग पर चला गया। जिस मार्ग में प्रेम का सुंदर उपवन भी है तो निराकार के कठिन तत्त्वों की उपासना भी है। इस तरह इस्लाम ने बंधुत्व की जो चुनौती प्रस्तुत की थी उसे छोटी जाति के पुरुषों और सभी जाति की स्त्रियों ने ईश्वर के समक्ष बराबरी की सोच से पार पा लिया। लेकिन उन्नीसवीं सदी में ईसाई मत ने जो चुनौती प्रस्तुत की उसमें भारतीय धर्म, संस्कृति और ज्ञान परंपरा को हीन साबित कर दिए जाने का खतरा उपस्थित था। उसका मुकाबला करने के लिए अपने भीतर यूरोप जैसा सुधार करना था और जब वह सुधार एक हद तक हो जाए तो अपनी ज्ञान और संस्कृति की परंपरा की श्रेष्ठता को भी स्थापित करना था।
इसी खींचतान में हिंदू धर्म की जगह पर सनातन धर्म की पदावली गढ़ी गई और यह दावा किया जाने वहा कि यह दुनिया का सबसे पुराना धर्म है और सभी धर्म इसी से निकले हैं। सनातन धर्म पर इतिहासकार अरविंद शर्मा ने काफी लिखा है। उनके लेखन में कभी हिंदू धर्म को एक मिशनरी धर्म बताया गया है तो कभी उस व्याख्या को प्रस्तुत किया गया है जिसे विवेकानंद ने शिकागो धर्म सम्मेलन के साथ विस्तार दिया। उनके अनुसार सनातन धर्म कर्तव्यों का शाश्वत या पूर्ण समूह है। जो धार्मिक रूप से निर्देशित आचरण है जो जाति वर्ग और पंथ की सीमाओं के परे जाकर सभी हिंदुओँ पर लागू होता है। अलग अलग धर्मग्रंथ अलग अलग कर्तव्य बताते हैं लेकिन उनके कुछ सद्गुण इस प्रकार हैः---ईमानदारी, जीवों को हानि न पहुंचाना, शुद्धता, सदिच्छा, दया, धैर्य, सहनशीलता, आत्मसंयम और वैराग्य।
यहां सनातन धर्म और स्वधर्म में भी फर्क बताया गया है। सनातन धर्म जाति, वर्ग और पंथ से ऊपर उठकर आपके धर्म या कर्तव्यों का निर्धारण करता है, जबकि स्वधर्म जाति, वर्ग के लिहाज से आपके कर्तव्यों को तय करता है। जैसे कि किसी जीव को चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। यह बात सनातन धर्म का मूल्य कहता है लेकिन एक योद्धा का तो धर्म है युद्ध लड़ना और जीतना। ऐसे में वह तो किसी न किसी को चोट तो पहुंचाएगा ही। फिर वह स्वधर्म और सनातन धर्म के बीच फंसा हुआ क्या करे। इस दुविधा का समाधान श्रीमदभगवत गीता करती है। कृष्ण के उपदेश यहीं काम आते हैं।
सनातन धर्म को शाश्वत सत्य का समानार्थी बना दिया गया। उसके माध्यम से हिंदू राजनेताओं और धर्मपुरुषों ने ईसाई धर्म की चुनौती के सामने हिंदू धर्म की शिक्षाओं को इतिहास की कैद से मुक्त कर दिया। इस व्याख्या के अनुसार हिंदू धर्म की शिक्षाएं न सिर्फ इतिहास के पार जाती हैं बल्कि अपरिवर्तनीय हैं, अविभाज्य हैं और संकीर्ण नहीं हैं। सनातन धर्म का अर्थ उन धार्मिक और नैतिक नियमों से लिया गया जो व्यक्ति के आचरण को निर्धारित करते हैं। इस तरह हिंदू धर्म के भीतर एक प्रकार की समरूपता पैदा करनी थी।
धर्म और मिथकों के जानकार देवदत्त पटनायक कहते हैं कि सनातन शब्द वेद में नहीं है। इसका प्रयोग विवेकानंद ने 1893 में वैदिक धर्म और वेदांत दर्शन के लिए किया। विवेकानंद ने कहा कि धर्म का अर्थ कुछ रूढ़ियां नहीं हैं बल्कि उसका अर्थ है---आत्मा का विज्ञान। यह कुछ प्रश्नों के उत्तर देता है। जैसे कि हम इस संसार में क्यों आए? जीवन का उद्देश्य क्या है? मृत्यु के बाद हम कहां जाते हैं? धर्म का मतलब यह नहीं है कि हम किताबों में लिखे हुए कुछ शब्द स्वीकार कर और उसे अकाट्य मानें। ईसाइयत, इस्लाम, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के विपरीत सनातन धर्म का कोई संस्थापक नहीं है। यह शाश्वत आध्यात्मिक नियम है जो मानवता की आत्मा को संचालित करता है। यह आध्यात्मिक नियम मानव ने नहीं बनाए हैं। यहां आत्मा का विशेष महत्त्व है। आत्मा हमारा वास्तविक आत्म है। वह शाश्वत सत्य है या परमात्मा का हिस्सा है। वह शाक्त के लिए शक्ति है, शैव के लिए शिव है और वैष्णव के लिए विष्णु है। ईसाई इसे स्वर्ग में विराजमान परमपिता कहते हैं, नानक सनातन सत्य कहते हैं तो बौद्ध इसे बुद्ध कहते हैं और मुसलमान अल्लाह। लेकिन ईश्वर सभी के लिए समान है। विवेकानंद साथ में यह भी कहते हैं कि भौतिकवाद से आत्मा कभी तृप्त नहीं होगी।
शब्द और यथार्थ के बीच जो तनाव चलता रहता है उसे व्यक्त करते हुए इतिहासकार अरविंद शर्मा लिखते हैं कि शब्द और उससे बने हुए दूसरे शब्दों में एक तरह का अर्थ संबंधी दोहरापन होता है। जिसके पीछे एक तनाव विद्यमान रहता है। दरअसल आर्यधर्म और सनातन धर्म हिंदूवाद का समानार्थी है। हिंदू शब्द का सबसे पहले प्रयोग जिंद अवेस्ता में मिलता है। इस इलाके को हप्त हिंदू यानी सप्त सिंधू (सात नदियों का देश) कहते हैं। अवेस्ता और ऋग्वेद में नास्तिकों को शाप दिया गया है। हिंदू का एक संदर्भ फारस से आता है। इसका संबंध अचाईमेनिड साम्राज्य से है। वे दावा करते हैं कि उन्होंने हिंदू देश पर शासन किया है।
प्रोफेसर शर्मा इस विवादित प्रश्न पर आते हैं कि क्या किसी और धर्म से हिंदू धर्म (सनातन धर्म) में परिवर्तन संभव है? क्या शुद्धीकरण का आंदोलन हिंदू धर्म के अनुरूप है? वे मानते हैं कि हां यह दोनों काम हिंदू धर्म के अनुरूप हैं। उनका कहना है कि अतीत में ऐसा होता रहा है। इसके प्रमाण वे दक्षिणपूर्व एशिया के कई उदाहरणों से देते हैं। हालांकि `वन्डर दैट वाज इंडिया’ जैसी क्लासिक किताब लिखने वाले आर्थर लेवलिन बासम का कहना था कि हिंदू धर्म के लोग तो उन्हें म्लेच्छ ही मानते हैं वे थोड़ी रियायत करते हुए उन्हें फ्रैंडली म्लेच्छ मानते हैं। उन्होंने रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और डेविड लारेंजन जैसे कई विश्व प्रसिद्ध प्रोफेसरों को पढ़ाया।
सवाल यह है कि हिंदू धर्म में सुधार क्या संभव है? अगर आर्यसमाज सुधार करने में लगा और उसने माना कि हिंदू समाज में शुद्धीकरण चाहिए और उसकी बुरी परंपराओं को त्याग दिया जाना चाहिए तो उसके पीछे वेदों के स्वर्ण युग की परिकल्पना थी। निश्चित तौर पर ब्रह्मसमाज की तरह दयानंद सरस्वती पर भी यूरोप और ईसाइयत का प्रभाव और उसकी प्रेरणा थी। एक ओर वे साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे तो दूसरी ओर ब्रह्मसमाज की तरह उनके प्रेरणा भी ले रहे थे। उन पर विक्टोरियाई नैतिकता हावी थी और यौनिकता और खानपान के मामले में तमाम भारतीय ग्रंथों का बेहद शुद्धता भाव से अनुवाद किया। वे ऋग्वेद की यौनिक क्रियाओं के अनुवाद करते समय बेहद नैतिक पाबंदियां लगाते हैं तो गोमांस भक्षण के बारे में कोई दूसरा ही अर्थ निकाल देते हैं जिसे बाद में डीएन झा अपने ढंग से व्याख्यायित करते हैं। दयानंद एंग्लोवैदिक विद्यालयों की स्थापना भी उसका एक उदाहरण है।
इस बहस का एक सिरा सनातन धर्म के पैरोकार और वेदों और शास्त्रों के मर्मज्ञ करपात्री जी संभालते हैं। करपात्री जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विरोधी लेकिन एक सनातनी और कट्टर हिंदू थे। उनका मानना था कि पश्चिम के डार्विनवाद का परिणाम है सुधारवाद। क्योंकि डार्विनवाद विकासवाद का सिद्धांत पेश करता है इसलिए यूरोप ने उसे आधार बनाकर सुधार किए। भारत के संबंध में कई विद्वान करपात्री जी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि वेदशास्त्रानुगामी सनातन धर्मावलंबी के अनुसार-----
जगत का कारण ज्ञानवान, क्रियावान शाश्वत परमात्मा है। उसके द्वारा प्रदत्त वैदिक ज्ञान शाश्वत है। उसमें ऋषि मुनि त्रिकालज्ञान संपन्न होने के बावजूद कुछ परिवर्तन करने का साहस नहीं कर सकते। गोलवलकर जी वगैरह वैदिक संस्कृति से परिचित न होने के कारण नई नई कल्पना करके लोगों के सामने प्रस्तुत करते हैं। जिसका कोई महत्त्व नहीं है।
करपात्री जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `आरएसएस और हिंदू धर्म’ में कहते हैं----हिंदू धर्म त्रिकाल बाधित शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति करता है। इसीलिए उसका स्वरूप सनातन है। वह व्यक्ति विशेष की मान्यताओं से परे अपौरुषेय है। देशकाल के अनुसार मानव व्यवहार के जिस पक्ष की आवश्यकता होती है तत्कालीन व्याख्याता उसी पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। कौटिल्य, शंकराचार्य और तुलसीदास ने यही कहा है। ब्रिटिश काल से अब तक पुनर्जागरण और धर्म सुधार हुए जिसका सनातनी हिंदुओं ने प्रतिवाद किया। इसके आगे वे कहते हैं कि गोलवलकर जी द्वारा प्रतिपादित हिंदू राष्ट्रवाद का संबंध हिंदू धर्म से नहीं है वह पाश्चात्य नात्सीवाद या हिटलरी किस्म का है।
वे आगे कहते हैं----गोलवलकर जी कहते हैं कि हिंदू धर्म की कोई एक किताब नहीं है। पर वास्तव में धर्म, ब्रह्म और उसके अनुष्ठान आदि तो शास्त्र से नियंत्रित होते हैं। इसलिए हर कोई ब्रह्मवादी किसी न किसी धर्मग्रंथ को प्रमाण मानता ही है। एक किताब को प्रमाण मानने वाले अगर गलत कहे जाएंगे तो एक राष्ट्रीयता की बात करने वाले हिटलर और मुसोलिनी कहे जाएंगे। रामायण और महाभारत महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं। शास्त्र ही परम प्रमाण है।
करपात्री जी आरएसएस वालों की ओर से तिरंगे की जगह भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाए जाने की बात को चुनौती देते हैं। उनका कहना है कि भगवा ध्वज में आदरणीयता की बात गलत है। महाभारत में भीष्म, द्रोण, कर्ण अर्जुन आदि के अलग अलग ध्वज थे। अर्जुन का तो कपिध्वज था। इसलिए यह कहना कि सभी पूर्वज भगवाध्वज रखते थे गलत है। यह कहना ठीक नहीं है कि भगवा ध्वज ही हमारे राष्ट्रत्व का प्रतीक है। यह कथन दोषपूर्ण है। इससे आगे करपात्री जी सनातन धर्म में शास्त्र और कर्मकांड और प्रतीक चिह्नों के महत्त्व को बताते हैं।
वे कहते हैं---शास्त्र बिना धर्म सिद्ध नहीं होता। गोलवलकर और उनके अनुयायी शास्त्र को प्रमाण नहीं मानते। शिखा और यज्ञोपवीत हिंदुओं के लिए सभी धर्मों की जड़ है। वेद प्राप्ति के लिए उपनयन संस्कार आवश्यक हैं। सनातन धर्म की परिवर्तनहीनता के इसी तर्क के आधार पर करपात्री जी ने हिंदू कोड बिल का विरोध किया। इतना ही नहीं जब समाजवादी नेता राजनारायण पचास के दशक में अछूतों को विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश करा रहे थे तो उनका कहना था कि अब तो विश्वनाथ अपवित्र हो गए। उन्होंने काशी में पवित्र विश्वनाथ की स्थापना की और मुख्य मंदिर में जाना छोड़ दिया। लेकिन उनकी स्थापना को किसी ने मान्यता नहीं दी।
धर्मशास्त्र के विद्वान पांडुरंग वामन काणे अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `धर्मशास्त्र का इतिहास’ के दूसरे भाग में कलिवर्ज्य का सिद्धांत बताते हैं। इस सिद्धांत का मतलब है कि बहुत से ऐसे कृत्य जो पहले प्रचलित थे वे कलियुग में वर्जित कृत्य माने जाएंगे। यह सिद्धांत दावा करता है पूर्व में आदर्श समाज की कल्पना की गई थी लेकिन उन समाजों की नैतिकता और आदर्श में पतन हुआ। इसलिए नए युग में उन कार्यों को न किया जाए। गौतम ऋषि ने आपतधर्म सूत्र में स्पष्ट कहा है कि ---प्राचीन ऋषियों में धर्मोल्लंघन एवं साहस के कार्य देखे गए हैं। किंतु आध्यात्मिक महत्ता के कारण वे पापी नहीं हो सके, किंतु पश्चातकालीन मनुष्य को आध्यात्मिक शक्तिदौर्बल्य के कारण वैसा नहीं करना चाहिए। नहीं तो वह कष्ट में पड़ जाएगा।
कलियुग में जिन चीजों को वर्जित बताया गया है वे इस प्रकार हैं--- पहले ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक संपत्ति का कुछ विशिष्ट अंश दे दिया जाता है लेकिन कलियुग में उसे न दिया जाए। इसी तरह पहले नियोग प्रथा प्रचलित थी। यानी अगर पति या पत्नी पुत्रहीन होते थे तो पति के भाई यानी देवर या किसी सगोत्र के संसर्ग से पत्नी से संतान उत्पत्ति की व्यवस्था थी। इसे भी वर्जित बताया गया है। गौण पुत्रों में औरस और दत्तक पुत्रों को छोड़कर सभी वर्ज्य बताया गया है। विधवा विवाह को कलिवर्ज्य बताया गया है। अंतर्जातीय विवाह को कलिवर्ज्य बताया गया है। आततायी ब्राह्मण की हत्या को भी कलिवर्ज्य बताया गया है। इस तरह से समुद्री यात्रा करने वाले ब्राह्मण से संबंध रखना भी कलिवर्ज्य है। मद्यपान, पशुयज्ञ और व्याभिचार वगैरह तमाम कर्म ऐसे हैं जिन्हें कलिवर्ज्य बताया गया है। धर्मशास्त्र के इतिहास में यह सूची 55 कार्यों की है।
कलिवर्ज्य की इसी परंपरा को भारतीय ज्ञान परंपरा के कुछ विद्वान समाज सुधार के मार्ग के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि इससे एक रास्ता खुलता है कि कोई भी परंपरा आदि से अनंतकाल तक नहीं चलती। वह नए युग के अनुरूप वर्जित हो जाती है। इसी आधार पर आज हिंदू समाज में सुधार और परिवर्तन संभव है। सुधार और परिवर्तन का एक तर्क तो यह है कि पहले आदर्श स्थिति थी जो बाद में पतित हो गई। परिवर्तन के माध्यम से हम उसे हासिल करना चाहते हैं। आर्य समाज भी इसी आधार पर परिवर्तन करना चाहता था। स्वयं डॉ. भीमराव आंबेडकर ने हिंदू स्त्रियों की दशा में सुधार का जो संकल्प किया उसके पीछे उनकी यह धारणा थी कि उपनिषदों के युग में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। यहां तक कि बौद्ध युग में भी स्त्रियां स्वतंत्र थीं। थेरीगाथा की स्त्रियों की कथा पर बहुत लिखा गया है। वे स्त्रियां स्वतंत्र थीं। हिंदू नारी का उत्थान और पतन उनका मशहूर व्याख्यान है। महात्मा गांधी सुधार और परिवर्तन के लिए विचित्र तर्क का इस्तेमाल करते थे। एक ओर उनका आरंभ में यह कहना था कि वर्ण व्यवस्था व्यावसायिक विभाजन पर आधारित है और यह लोगों की मनोवृत्ति को देखकर तय की गई है। लेकिन बाद में वे कहने लगे के चार वर्ण नहीं एक ही वर्ण होना चाहिए। आखिर में उनकी दलील यह थी कि मैं सभी हिंदू धर्मग्रंथों में विश्वास करता हूं लेकिन अपने विवेक के अनुसार परिवर्तन की छूट लेता हूं।
भारतीय समाज और विशेषकर हिंदी क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन का सवाल आज हिंदी नवजागरण के सिलसिले में उठ रहा है। इसी विषय पर भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और वागर्थ के संपादक शंभुनाथ कहते हैं कि `1857, राष्ट्रीय सुधारवाद और हिंदी नवजागरण की आवाजें एक दूसरे से जुड़े मामले हैं। 19 वीं सदी के नवजागरण को दिशा देने में हिंदी क्षेत्र की इन घटनाओं का एक बड़ा योगदान है। लेकिन हिंदी क्षेत्र के लोग इससे परिचित नहीं हैं।’ वे इस बात को खारिज करते हैं कि हिंदी वालों के लिए 19 वीं सदी एक भटकी हुई सदी है। लेकिन वे सचेत करते हुए कहते हैं,`हिंदी नवजागरण को यूरोपीय रेनेसां या बांग्ला नवजागरण के नजरिए से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि विशाल हिंदी क्षेत्र न सिर्फ निरंकुश शासन, सामंतवाद और सामाजिक भेदभाव का सबसे मजबूत दुर्ग रहा है, बल्कि औपनिवेशिक चालाकियों और दमन का भी सबसे ज्यादा शिकार हुआ है। ..ऐसी स्थितियों के बीच 1857 ने धार्मिक तत्वों से प्रेरित होने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय जागरण का संदेश दिया था। यह हिंदी प्रदेश के लिए गौरव की बात है।’
अंत में हिंदी क्षेत्र में हुए तीव्र धार्मिक उभार और उसके सांप्रदायिक चरित्र को कैसे देखा जाए और उससे कैसे मुक्त हुआ जाए यह एक बड़ा प्रश्न है। क्या हिंदी क्षेत्र पूरी तरह से धर्म के प्रभाव को झटक कर किसी राजनीतिक और आर्थिक और सांस्कृतिक विमर्श को आकार दे सकता है? क्या वह अपने समाज को किसी नवजागरण या प्रबोधन या सुधार की ओर ले जा सकता है। क्या वहां जाति जनगणना से समाज में किसी नई जागृति की उम्मीद है? क्या वहां महिला आरक्षण कानून (नारी शक्ति वंदन अधिनियम) से किसी बदलाव के अंकुर फूट सकते हैं? यह सारे सवाल दक्षिण भारत से ज्यादा उत्तर भारत और विशेषकर हिंदी इलाके को मथ रहे हैं। यहां पर प्रोफेसर मणींद्रनाथ ठाकुर की पुस्तक `ज्ञान की राजनीति’ का सहारा लेते हुए यही कहा जा सकता है कि इस दौर में धर्म के राजनीतिक, बाजारू और मुक्तिकामी रूप प्रकट हुए हैं। क्या हम लैटिन अमेरिका की तरह धर्म के मुक्तिकामी रूप को नहीं अपना सकते? क्या धर्म को किताबों से निकालकर गांधी और विनोबा की तरह अध्यात्म और विज्ञान की पटरी पर नहीं डाला जा सकता?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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