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अयोध्या की राजनीति : परत दर परत...

बाबरी की बरसी : अब यह भी विवाद चल निकला है कि मुसलमानों को यह भूमि अयोध्या से बाहर दी जाये। फ़ैज़ाबाद जिले का नाम बदलकर अब अयोध्या हो चुका है और अयोध्या फ़ैज़ाबाद की नगरपालिकाएं और अयोध्या नगर निगम बनकर एक हो गयी हैं इसलिए अयोध्या की व्याख्या भी सरकारी परिभाषा के तहत ही होगी।
babri masjid
Image courtesy: Google

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अयोध्या का विवाद अब पटाक्षेप की ओर है। हालांकि इसके बाद और विवाद नहीं होंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं हो सकती है। 1500यार्ड जमीन पर मालिकाना हक के विवाद ने देश की राजनीति को 1984 से मथते-मथते 1989 में इसकी धुरी बदल दी। जिसके बारे में न तो किसी ने 1949 में मूर्ति रखते समय सोचा होगा और न ही 1883 में मुकदमें का दावा दायर करते हुए महन्त रघुवरदास ने ही इसे धर्म के आगे की राजनीति से जोड़ने की कल्पना की होगी।

रघुवरदास की तो आस्था रही होगी जिसके तहत वे अपने राम को धूप, छांव और शीत से बचाना चाहते थे और इसके लिए उस जगह पर मंदिर की एक छत डालना चाहते थे, अदालती निर्णय और उसकी अपील से भी उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिल सकी थी। तबसे रामचबूतरा और सीता रसोई पर तब तक पूजा होती रही जब तक 6 दिसम्बर 1992 को मस्जिद को आन्दोलनकारी कारसेवकों द्वारा भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद और उनके अन्य अनुषांगिक संगठनों के कदावर नेताओं की उपस्थिति, उत्साह, उन्माद के बीच अराजक स्थिति पैदाकर जबरन ढहा नहीं दिया।

मस्जिद के ढहाने से न सिर्फ मस्जिद ढही रामचबूतरा और सीता रसोई भी उसी उन्माद की भेंट चढ़ गये और जमा मलबे का हिस्सा बन गये। कारसेवा के नाम पर आह्वान कर बुलाये गये इन उन्मादी लोगों ने न सिर्फ मस्जिद ढहाई थी 1883 के पूर्व से चले आ रहे रामचबूतरा और सीता रसोई को भी तहस-नहस करके उसका नामोंनिशान मिटा दिया। इस स्थान की खासियत यह थी कि 22/23 दिसम्बर को मस्जिद के बीच गुम्बद में मूर्ति रखे जाने के बावजूद निर्माेही अखाड़ा इस पर निरन्तर पूजा-अर्चना करता आ रहा था। मस्जिद के अन्दर रखी मूर्तियों की पूजा-अर्चना कोर्ट द्वारा नियुक्त रिसीवर के माध्यम से पुजारी ही करते रहे। यहां तक पहुंचने के लिए किसी भी व्यक्ति को रामचबूतरे के रास्ते से ही गुजरना होता था। गुम्बद के नीचे रखी गयीं मूर्तियां की पूजा कोर्ट के आदेश से ही शुरू हो सकी थी और रामलला का भोग और पुजारी की व्यवस्था भी उसी के अनुरूप अदालती आदेश द्वारा ही हुयी।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इसी स्थान की मूर्तियों को रामलला विराजमान के मुकदमें से अधिकार मिला है जिसे 1989 में पूर्व न्यायाधीश रहे विश्व हिन्दू परिषद के देवकीनन्दन अग्रवाल ने बहुत ही जल्दबाजी में दायर किया था। क्योंकि केन्द्र की कांग्रेस सरकार आपसी समाधान से मंदिर बनाने के लिए प्रयासरत थी इससे आंदोलन को झटका लग सकता था इसी समाधान के दौरान ही यह सवाल उठा था कि 'भय प्रकट कृपाला, दीनदयाला’ की स्थिति में यदि कोई फैसला कोर्ट से होगा तो मूर्तियों का क्या होगा? क्योंकि इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा नहीं, स्वतः प्रकट होने का दावा किया जा रहा था।

विधिक दृष्टि से न्यायिक व्यक्ति प्राण प्रतिष्ठा की मूर्तियां ही हो सकती हैं। समाधान के दौरान ही ऐसे में यह उदाहरण भी सामने आये थे कि गया के विष्णुपाद मंदिर और उन स्थानों पर जहां स्वतः प्रकृतिजन्य प्रस्फुटित स्थलों की पूजा की जाती है, उसे इसी रूप न्यायिक व्यक्ति के रूप में माना जाता है। 1987 में जब यह समाधान प्रक्रिया चल रही थी उसी दौरान यह सवाल उठे थे और 1989 में यह देवकी नन्दन अग्रवाल के रामलला के मित्र के रूप में मुकदमें में सामने आया।

दिगम्बर अखाड़ा के महान्त परमहंस रामचन्द्र दास जिन्होंने पूजा के अधिकार का मुकदमा गोपाल विशारद के बाद दायर किया था जो पहले कहते थे कि मूर्ति प्रकट हुयी है, गवाही में कहा था कि वहां मूर्ति रखी गयी थी। इसके बाद उन्होंने यह कहते हुए अपना मुकदमा वापस लेने की घोषणा की थी कि इतना लम्बा समय गुजरने के बाद भी अभी तक फैसला नहीं हो पाया है इसलिए मैं अपना मुकदमा वापस लेता हूं। मस्जिद में मूर्ति रखे जाने के बाद पहला मुकदमा गोपाल सिंह विशारद ने दायर किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अपने फैसले में यह माना है कि 22/23 दिसम्बर 1949 को मूर्ति रखा जाना एक गैर कानूनी कार्य था।

अवध के ब्रिटिश शासन में विलय के साथ ही इस स्थान के बंटवारे ने स्थितियां भी बदलीं और नजरिया भी, यह सिलसिला भी चलता रहा। महन्त रघुवरदास अवध चीफ कोर्ट में अपील करके भी राहत नहीं पा सके कि रामचबूतरे पर मंदिर का निर्माण कर सकें लेकिन 1885 के इस अदालती निर्णय के बाद भी सिलसिला नहीं थमा था। 1855 से यह किसी न किसी रूप में दोनों ही समुदायों के बीच आरोप-प्रत्यारोप और आपत्तियों को लेकर पुलिस प्रशासन के बीच शिकायतें जाती रही और निस्तारण होता रहा।

1885 में महन्त रघुवरदास को मंदिर निर्माण की अनुमति भले ही न मिल पायी हो लेकिन एडवर्ड सप्तम के जन्मदिवस पर एकत्र हुए चंदे को लेकर बनी एडवर्ड तीर्थ विवेचनी सभा ने जब 1901 में पूरी अयोध्या में स्थानों का चिन्हाकन करने को तय किया तो एक हजार रुपये की रकम से कुंडो, मंदिरों और तीर्थस्थलों को मान्यता और पहचान के लिए गुलाबी रंग के अंगरेज़ी, हिंदी और उर्दू में लिखे 148 गुलाबी पत्थर लगाये गये। वे आज भी अयोध्या में इन स्थानों के आस-पास उसी तरह लगे हुये हैं जैसे मील का पत्थर गड़ा हो। पत्थर लगवाने की शुरूआत ‘एक’ नम्बर के जन्मभूमि के नाम लिखे पत्थर से हुयी। मुसलमानों द्वारा इस पर आपत्ति किये जाने पर कि मस्जिद के सामने यह पत्थर लगाया जा रहा है फ़ैज़ाबाद की अदालत में मुकदमा दायर हुआ। 1903 में इस सम्बन्ध में फ़ैज़ाबाद की अदालत ने निर्णय दिया कि ‘शिलालेख को गड़वाने के बाद यदि कोई उखाड़ता है तो उसे तीन हजार रुपये जुर्माना अथवा तीन साल की जेल की सजा दी जायेगी।’

इन पत्थरों को लगाने का बीड़ा बड़ा स्थान दशरथ महल के महन्त मनोहर प्रसाद ने उठाया था जो इस समिति के अध्यक्ष थे। एक नम्बर का पत्थर ‘जन्मभूमि’ के नाम से जब इनरकोर्ट यार्ड के बाहर दरवाजे पर लगाया गया अदालत ने आपत्तियों को खारिज करते हुए कहा कि चूंकि यह पत्थर मस्जिद के अन्दर नहीं बाहर लगाया गया है (जहां रामचबूतरा है)। यह एक नम्बर का पत्थर आज भी उसी जगह पर लगा है जहां लगाया गया था।

इससे पहले इसी प्रकार की आपत्ति दूसरे दरवाजे को लेकर भी की गयी थी जिसे बाद में सिंहद्वार कहा गया। इस दरवाजे को प्रशासन द्वारा लोगों की मांग पर इसलिए खोला गया था कि रामनवमी के मेले में आने वाली भीड़ को सहूलियत हो सके। यह दरवाजा खुलने के बाद जो लोग रामचबूतरे के सामने की ओर से घुसते थे वे सीता रसोई या छठी पूजन स्थल की ओर से सिंहद्वार से होते हुए निकल जाते थे। ऐसा न होता तो प्रशासन को भय था कि भारी भीड के भगदड़ में कोई घटना न घट जाये।

22/23 दिसम्बर 1949 को जब मस्जिद में मूर्तियां रखी गयीं और उसकी एफआईआर दर्ज करायी गयी और इसमें जिन लोगों द्वारा मूर्ति रखा जाना चिह्नित किया गया और उन्हें इस कृत्य का आरोपी बनाया गया। उन पर जब चार्जशीट लगायी गयी तो उसमें कहा गया कि तीन गुम्बदमय इमारत में ‘इन लोगों ने प्राचीन मंदिर जान करके मूर्तियां रख दी थी।’

जो विश्व हिन्दू परिषद सड़कों पर आंदोलन करते हुये पूरे देश में हंगामा खड़ी करती रही वह अदालती तौर पर बाहर थी। विश्व हिन्दू परिषद आंदोलन अयोध्या में कर रही थी लेकिन रामजन्मभूमि न्यास के नाम से ट्रस्ट 18 दिसम्बर 1985 को दिल्ली में पंजीकृत कराया।

विश्व हिन्दू परिषद पहले पुरातात्विक खुदाई का विरोध कर रही थी कि यह तो मूर्ति हटाये जाने का षडयंत्र है। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वे की उसी खोदाई की रिपोर्ट को वैज्ञानिक आधार बताते हुए रामलला विराजमान को पूरे विवादित स्थल का मालिकाना सौंप दिया। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पूरी तरह से पलट दिया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ की विशेष पीठ ने 2010 में दिये गये अपने निर्णय में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा के मुकदमों को मियाद (लिमिटेशन) से बाहर बताते हुए भी इन्हें विवादित भूमि में हिस्सा देकर तीनों प्रमुख पक्षकारों को एक तरह से सन्तुष्ट कर दिया था। निर्मोही अखाड़ा को जहां ‘एल’ शेप के उस हिस्से को दिया था जहां से उसका कब्जा 1885 के पहले से चला आ रहा था यह बात अलग है कि 22/23 दिसम्बर को मस्जिद में मूर्ति रखे जाने के बाद 1949 में निर्मोही अखाड़ा ने अन्दर की मूर्ति का भी पूजा प्रबन्ध के अधिकार का मुकदमा दायर किया था।

1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने जमीन और मस्जिद का मालिकाना बताते हुए मुकदमा दायर किया था। रामलला विराजमान का मुकदमा 1989 में हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रहे विश्व हिन्दू परिषद के देवकीनन्दन अग्रवाल ने दायर किया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में रामलला विराजमान को ही वास्तविक मालिकाना दिया है और न्याय के लिए संविधान प्रदत्त अनुच्छेद -142 के तहत अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करते हुए मुसलमानों को पांच एकड़ भूमि अयोध्या में उपयुक्त स्थान पर देने का केन्द्र और राज्य सरकार को निर्देश दिया है।

इसी के साथ यह भी विवाद चल निकला है कि मुसलमानों को यह भूमि अयोध्या से बाहर दी जाये। फ़ैज़ाबाद जिले का नाम बदलकर अब अयोध्या हो चुका है और अयोध्या फ़ैज़ाबाद की नगरपालिकाएं और अयोध्या नगरनिगम बनकर एक हो गयी हैं इसलिए अयोध्या की व्याख्या भी सरकारी परिभाषा के तहत ही होगी।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सड़कों पर आन्दोलन चलाने वाली विश्व हिन्दू परिषद इस मुकदमें में पक्षकार नहीं रही और न ही मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड जो मुसलमानों के मामलों को देखता आया है, पक्षकार रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जमीयत उलेमा हिंद ने संविधान प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है अब इस याचिका का विरोध करने के लिए रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा भी सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं। आज तक जो कुछ भी अयोध्या के इस विवाद को लेकर हुआ अदालती फैसले ही यहां तक पहुंचा हैं वह चाहे 1949 में मूर्ति रखे जाने के बाद दर्शन की अनुमति का प्रश्न हो, ताला खोले जाने का, मस्जिद ढहाये जाने के बाद अस्थायी रामलला मंदिर में दर्शन और पूजा का अधिकार हो।

कारसेवा का प्रश्न हो, शिलान्यास का या फिर स्थायी प्रकृति के चबूतरा निर्माण का कोई ऐसा मुद्दा नही रहा जिस पर लोग अदालत न गये हों। अदालती संज्ञान के बारे में यह कहा जा सकता है कि ‘पत्ता भी हिलता नहीं बिना कृपा जगदीश’ की ही स्थिति इस मामले में रही और अदालत के आदेश से ही 1949 में रखी गयी मूर्तियों की पूजा शुरू हुयी थी और 2019 में उन्हीं को मालिकाना अधिकार भी मिला। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने उन मूर्तियों को रखना और बाबरी मस्जिद को ढ़हाना गैर कानूनी कृत्य माना हो।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। और उन्होंने 1990-92 का वह दौर बहुत करीब से देखा है, जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गई।) 

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