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हिरासत में मौत के बाद पुलिस की कार्यप्रणाली पर उठते सवाल

पिछले दिनों सरकार द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक़ अप्रैल 2020 से लेकर मार्च 2022 तक पुलिस हिरासत में 4484 लोगों की मौत के मामले दर्ज किए गए हैं। बिहार और पुणे की हिरासत में मौत की घटना ने एक बार फिर पुलिस को सवालों के घेरे में ला दिया है।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: TOI

हिरासत में आरोपी की मौत को लेकर पुलिस की कार्यप्रणाली पर अक्सर सवाल खड़े होते रहे हैं। विशेषज्ञों द्वारा इसका कारण पुलिस की पिटाई और टॉर्चर बताया जाता है और अक्सर इसी तरह की यातनाओं और पिटाई के ही मामले सामने आते रहते हैं। कई बार ऐसी घटना के बाद पुलिस सुधार को लेकर चर्चा तेज़ हो जाती है लेकिन समय बीतने के साथ स्थिति जस की तस बन जाती है।

हाल ही में बिहार की राजधानी पटना के दानापुर में पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति की मौत का मामला सामने आया है। आरोप है कि 22 अगस्त को लगभग 11 बजे आबकारी विभाग व स्थानीय थाना रामकृष्ण नगर की पुलिस इलाक़े के भूपतिपुर मांझी टोला पहुंची जहां शराब पीने के कथित आरोप में सुनील मांझी को गिरफ़्तार कर लिया और उसके साथ मारपीट करने लगी। गांव के लोगों ने पुलिस को पिटाई करने से मना किया लेकिन पुलिस ने उनकी सुनी। स्थानीय नेता अशोक कुमार का कहना है कि पुलिस गांव से थाना तक मारते हुए सुनील को ले गयी। इसके बाद उसे बांकीपुर जेल भेज दिया गया जहां तबियत ज़्यादा ख़राब होने के कारण अगले दिन यानी 23 अगस्त को पीएमसीएच में इलाज के लिए भर्ती कराया गया। इलाज के दौरान 25 अगस्त की सुबह क़रीब 8 बजे सुनील मांझी की मौत हो गयी।

पुलिस की हिरासत में सुनील मांझी की हुई मौत को हत्या बताते हुए सीपीआईएमएल ने आरोपी पुलिसकर्मियों और अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने के साथ इन कर्मियों व अधिकारियों को बर्ख़ास्त करने की मांग की है। साथ मृतक के परिजन को दस लाख मुआवज़ा देने की मांग की है। बता दें कि मृतक सुनील के तीन बच्चे हैं जिनमें एक बेटा और दो बेटी है। ज्ञात हो कि साल 2016 में नीतीश सरकार द्वारा लागू किए गए शराबबंदी क़ानून के बाद क़रीब तीन लाख लोग बिहार की जेलों में बंद हैं जिनमें ज़्यादातर ग़रीब और दलित-वंचित समाज के लोग हैं।

ज्ञात हो कि पुलिस हिरासत में सुनिल मांझी की मौत का कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी बिहार समेत देश के अन्य राज्यों में हिरासत में मौत को लेकर कई मामले सामने आए हैं।

बता दें कि पिछले महीने लोकसभा में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांसद अब्दुस्समद समदानी द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब मे सरकार ने पुलिस हिरासत में मौत को लेकर गत दो वर्ष का आंकड़ा दिया था। सरकार ने संसद को बताया था कि 1 अप्रैल 2020 से लेकर 31 मार्च 2022 तक हिरासत में 4484 लोगों की मौत के मामले सामने आए हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि हिरासत में हर दिन 6 मौतें हुईं।

सरकार द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक़ हिरासत में मौत के 1940 मामले वर्ष 2020-2021 में दर्ज किए गए जबकि वर्ष 2021-2022 में 2544 मामले सामने आए। इस तरह मामले में वृद्धि दर्ज की गई।

ध्यान रहे कि इसी साल मार्च महीने में पश्चिम चंपारण के बेतिया में पुलिस हिरासत में एक युवक की मौत के बाद जमकर हंगामा हुआ था जिसमें एक पुलिसकर्मी की मौत हो गयी थी। वहीं दर्जनों पुलिसकर्मी ज़ख़्मी हो गए थें। बेतिया के बलथर थाना की पुलिस ने डीजे चलाने वाले युवक को हिरासत में ले लिया था और हिरासत में ही उसकी मौत हो गयी थी जिससे इलाके लोग पुलिस के ख़िलाफ़ नाराज़ हो गए थे। पुलिस पर आरोप लगाया गया था कि बेरहमी से युवक की पिटाई की गयी जिससे उसकी मौत हो गयी। लोगों का कहना था कि उसका जुर्म इतना बड़ा नहीं था जिसके चलते पुलिस ने उसे इतना बेरहमी से पीटा।

ज्ञात हो कि बीते साल बिहार के समस्तीपुर जिले के रोसड़ा नगर परिषद के सफाईकर्मी वेतन की मांग को लेकर हड़ताल पर चले गए थें। सफाईकर्मी राम सेवक द्वारा परिषद के ईओ को थप्पड़ मारे जाने के बाद पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया था। थाने की हाजत में तबीयत ख़राब होने पर उसे अस्पताल ले जाया गया लेकिन अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई थी। परिजन और सहयोगी सफाईकर्मियों ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने थाने में राम सेवक को बुरी तरह पीटा था जिससे उसकी मौत हो गई।

बता दें कि देश के अन्य राज्यों में भी पुलिस हिरासत में आरोपी की मौत के मामले बड़ी संख्या में सामने आए हैं। इस महीने की 16 तारीख़ को पुणे निवासी नागेश रामदास पवार को रेलवे पुलिस ने एक मामले में गिरफ़तार किया था। परिजन का कहना था कि मेडिकल जांच के बाद जब उसे कोर्ट में पेश किया गया तो वह ठीक था। 23 अगस्त को पुलिस ने सूचना दी कि नागेश की तबीयत ख़राब होने के चलते सासून अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन उसकी मौत हो गई। परिजन का कहना है कि पुलिस हिरासत में उसकी मौत पुलिस के टॉर्चर से हुई है। ज्ञात हो कि परिजन द्वारा पुणे ज़िला कलेक्टर के सामने रेलवे पुलिस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने और कलेक्टर को पत्र लिखने के बाद सीआईडी जांच का आदेश दे दिया गया है।

कुछ महीने पहले ही देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के अमरोहा में पुलिस हिरासत में एक युवक की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद काफ़ी हंगामा हुआ था। मृतक युवक के परिजन ने पुलिस पर आरोप लगाते हुए कहा था कि युवक के साथ मामूली विवाद होने पर पुलिसकर्मियों ने चौकी पर ले जाकर उसे बुरी तरह पीटा था जिससे उसकी मौत हो गई। इस मामले में अमरोहा रेलवे स्टेशन के आरपीएफ पुलिस चौकी के सात पुलिसर्मियों को निलंबित कर दिया गया था और उनके ख़िलाफ़ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया था।

ज्ञात हो कि बीते साल नवंबर महीने में कासगंज में एक व्यक्ति की हिरासत में मौत हो गई थी। पहले तो पुलिस ने इसे आत्महत्या बताने की कोशिश की लेकिन अल्ताफ के परिजनों ने कासगंज पुलिस पर हत्या का आरोप लगाया था। प्रथमदृषटतया आरोप सही पाए जाने के बाद पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया था।

पुलिस हिरासत में मौत को लेकर पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने पिछले साल चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि, "संवैधानिक सुरक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस हिरासत में शोषण, उत्पीड़न और मौत होती है। इसके चलते पुलिस थानों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है। पुलिस जब किसी को हिरासत में लेती है तो उस व्यक्ति को तत्काल क़ानूनी मदद नहीं मिलती है। गिरफ़्तारी के बाद ही अभियुक्त को यह डर सताने लगता है कि आगे क्या होगा?"

बता दें कि शीर्ष अदालत ने वर्ष 1996 में एक मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि हिरासत में हुई मौत क़ानून के शासन में सबसे 'जघन्य अपराध' है। अदालत के इस फ़ैसले के बाद हिरासत में हुई मौत का विवरण दर्ज करने के साथ-साथ संबंधित लोगों को इसकी जानकारी देना भी अनिवार्य बना दिया गया। साथी ही शीर्ष अदालत ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ़्तारी में पुलिस के व्यवहार को लेकर नियम भी निर्धारित किए। ये नियम ना सिर्फ़ पुलिस बल्कि रेलवे, सीआरपीएफ, राजस्व विभाग सहित उन तमाम सुरक्षा एजेंसियों पर भी लागू होते हैं जो आरोपियों को पूछताछ के लिए हिरासत में लेती है या गिरफ़्तार करती है।

अतीत में विभिन्न समितियों/आयोगों ने पुलिस सुधारों को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। इनमें से राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1978-82), पुलिस की पुनर्संरचना पर पद्मनाभैया समिति (2000) और आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों पर मलीमथ समिति (2002-03) महत्वपूर्ण हैं। इस संबंध में केंद्र सरकार/राज्य सरकारों/संघ राज्य क्षेत्र प्रशासनों द्वारा की गई कार्रवाई की समीक्षा करने और उपरोक्त आयोग की लंबित सिफारिशों को लागू करने के तरीक़े को बताने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर रिबेरो की अध्यक्षता में 1998 में एक अन्य समिति का गठन किया गया था।

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