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राजस्थान चुनाव: ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट का सियासी गणित और डूब क्षेत्र की जनता का हाल

ईआरसीपी की सियासत से इतर भी इस पूरी परियोजना को लेकर एक गंभीर मुद्दा डूब क्षेत्र के परिवारों के विस्थापन और मुआवजे की समस्या है, जिसे लेकर कोई भी सरकार चिंतित नज़र नहीं आ रही।
Rajasthan

राजस्थान विधानसभा चुनाव में अब महज़ कुछ ही दिनों का फासला बचा है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल जनता का दिल जीतने के लिए अपनी एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। कई नए वादे किए जा रहे हैं, तो कई पुराने वादों को लेकर पक्ष-विपक्ष की तकरार भी देखने को मिल रही है। ऐसा ही एक वादा ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट (ईआरसीपी) भी है। जिसकी शुरुआत तो वसुंधरा राजे सरकार में हो गई थी लेकिन इसे राष्ट्रीय परियोजना घोषित करने का वादा अभी भी चुनावी घमासान का मुद्दा बना हुआ है। कांग्रेस इसे लेकर अपनी प्रतिबद्धता तो जता रही है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी समेत बीजेपी पर इसे लेकर वादाखिलाफी का आरोप भी लगा रही है।

बता दें कि चुनाव के साथ ईआरसीपी एक बार फिर चर्चित मुद्दा बन गया है। और इसका सबसे बड़ा कारण सियासी सीटों का गणित है। ये परियोजना जिन 13 राज्यों से होकर गुजरनी है, उनमें राजस्थान की करीब 41.13 प्रतिशत यानी तीन करोड़ आबादी रहती है और यहां कुल 200 में से 83 विधानसभा सीटें भी हैं। ऐसे में इस योजना का लाभ फिलहाल जनता से ज्यादा राजनीतिक पार्टियां उठाने की कोशिश में लगी हैं। वहीं यहां के डूब क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीणों के विस्थापन और मुआवज़े की चिंता किसी को नहीं है।

क्या है ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट?

राजधानी जयपुर, अजमेर, करौली, टोंक, दौसा, सवाई माधोपुर, अलवर, बारा, झालावाड़, भरतपुर, धौलपुर, बूंदी और कोटा ज़िले में बांधों को जोड़कर सिंचाई और पेयजल की समस्या हल करने के लिए साल 2017-18 के अपने आखिरी बजट में राजस्थान की तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार ने इस परियोजना की घोषणा की थी। इसके बाद साल 2018 में हुए चुनाव की रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई मंचों से इसे राष्ट्रीय योजना बनाने की बात कही। हालांकि चुनाव नतीजे आए और सरकार पलट गई, बीजेपी बाहर हो गई और कांग्रेस सत्ता में आ गई। हालांकि फिर भी ये योजना जारी रही। गहलोत सरकार ने इसके लिए 13 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया लेकिन लगभग 40 हजार करोड़ की इस योजना के लिए ये ऊंट के मुंह में जीरे समान ही रहा।

अब आसान भाषा में समझते हैं कि इस परियोजना को राष्ट्रीय परियोजना घोषित करने से किसको क्या फायदा और नुकसान है। ये परियोजना राजस्थान के जल प्रबंधन को नए सिरे से विकसित करने हेतु चंबल और उसकी सहायक नदियों जैसे कि कुन्नू, पार्वती, कालीसिंध को आपस में जोड़कर बारिश के मौसम के दौरान इकठ्ठा होने वाले पानी को तकनीक की सहायता से सिंचाई और पीने योग्य बनाने की कवायद है।

दरअसल, इसके जरिए एक बड़ी आबादी और किसान प्रभावित होंगे। ऐसे में अगर कांग्रेस इसे राष्ट्रीय योजना में शामिल करवाने में सफल हो जाती तो इसका 90 प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार को देना होता। और क्योंकि केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार है, तो वो इस योजना का श्रेय कांग्रेस को नहीं लेने देना चाहती और यही कारण है कि इस योजना का काम बेहद धीमी गति से आगे बढ़ रहा है। अब किसी योजना को राष्ट्रीय योजना घोषित करने के भी अपने नियम हैं, जिसमें कहीं न कहीं ये योजना फिलहाल फिट नहीं बैठ रही। लेकिन सवाल ये है कि जब बीजेपी ये सब जानती ही थी, तो उसने इसे एक चुनावी वादा क्यों बनाया।

विस्थापन की दिक्कतों की सुध लेने वाला कोई नहीं

सियासत से इतर भी इस पूरी परियोजना को लेकर एक गंभीर मुद्दा डूब क्षेत्र के परिवारों के विस्थापन और मुआवजे की समस्या है, जिसे लेकर कोई भी सरकार चिंतित नज़र नहीं आ रही। इस परियोजना में बांधों को जोड़कर जल का प्रबंधन एक प्रमुख उपाय है। इसके लिए पूर्वी राजस्थान में दूसरी बड़ी परियोजना ईसरदा बांध का निर्माण कार्य जारी है।

आंकड़ों की मानें तो बीते 10 साल में अभी तक ईसरदा बांध का निर्माण कार्य 65 प्रतिशत ही पूरा हुआ है। इस बांध की पहली डेडलाइन 2021, दूसरी अक्टूबर 2023 और अब तीसरी डेडलाइन अगस्त 2024 की गई है।

स्थानीय लोगों के मुताबिक ईसरदा बांध के डूब क्षेत्र के अंतर्गत करीब 36 गांव आते हैं, जहां के ग्रामीण अधिग्रहित भूमि का उचित मुआवजा नहीं दिए जाने तथा पुनर्वास और रोजगार को लेकर कोई ठोस योजना नहीं होने से काफी परेशान हैं। लेकिन पक्ष-विपक्ष की नहर परियोजना को लेकर जारी राजनीति में इनकी तकलीफ किसी को दिखाई तक नहीं दे रही।

न्यूज़क्लिक ने डूब क्षेत्र के कुछ ग्रामीणों से बातचीत कर उनकी समस्याओं को जानने की कोशिश की। इन गांव वालों का साफ कहना है कि इन्हें इस बांध से कोई फायदा नहीं है, उल्टा इनके सामने रोज़गार और विस्थापन की दिक्कतें जरूर खड़ी हो गई हैं, जिसकी सुध लेने वाला कोई दल, कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है। और इसलिए इस चुनाव में वे अपनी इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए मतदान करेंगे।

ध्यान रहे कि ईसरदा बांध डूब क्षेत्र छह विधानसभा क्षेत्रों में फैला हुआ है और इन 36 गांवों में करीब 60 हजार मतदाता रहते हैं। इन्हें इनकी जमीन के बदले मुआवजे की रकम दी जा रही है, जो इनके अनुसार बहुत कम है। इसके अलावा इन लोगों की खेती बाड़ी भी समाप्त होने के कगार पर है, जिस पर मुख्य तौर से यो लोग अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं।

डूब क्षेत्र के लोगों की समस्याएं

यहां मंडावर, किराउ जैसे दर्जनों गांव के लोगों का कहना है कि फिलहाल सरकार इन्हें प्रति बीघा अधिग्रहित जमीन के लिए छह लाख मुआवजा दे रही है, जो आज के रेट के हिसाब से बहुत कम है। इसके अलावा अभी तक इन्हें स्पष्ट तौर पर ये भी नहीं बताया जा रहा कि इन्हें किन इलाकों में विस्थापित किया जाएगा, वहां रोज़गार के क्या-कुछ साधन होंगे, बच्चों के भविष्य के लिए क्या होगा आदि।

कई ग्रामीणों के अनुसान सरकार की ओर से एक मुश्त मुआवजा भी नहीं मिल रहा। कितने पैसे कब मिलेंगे, बकाया पैसों का क्या हिसाब होगा, इस पर कोई जानकारी नहीं है। बस गांव के लोगों को इतना बता दिया गया है कि आपको जमीन खाली करनी होगी और इसके बदले में पैसे मिलेंगे। उनका कहना है कि सरकार का कोई प्रतिनिधि भी इनसे ठीक तरीके से मिलने नहीं आया, न ही किसी की ओर से इन्हें कोई ठोस आश्वासन मिला है। और इसलिए ये लोग चाहते हैं कि सरकार इन्हें विश्वास में ले। जमीन का प्रति बीघा 20 लाख मुआवजा मिले। इसके अलावा प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाए और प्रति परिवार 10 लाख रुपये का अनुदान दिया जाए। और ये सब एकमुश्त तरीके से हो।

गौरतलब है कि राजस्थान में 25 नवंबर को कुल 200 विधानसभा सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे। और नतीजें अन्य राज्यों के साथ ही तीन दिसंबर को आएंगे। पक्ष और विपक्ष की गरमाती सियासत के बीच इस प्रदेश की जनता के सामने पीने के पानी, खोतों की सिंचाई और विस्थापन समेत कई दिक्कतें हैं जिन्हें राज्य की गहलोत सरकार और केंद्र की मोदी सरकार नजरअंदाज कर अपना चुनावी हित साधने की कोशिश में लगे हैं।

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