रश्मि रॉकेट : महिला खिलाड़ियों के साथ होने वाले अपमानजनक जेंडर टेस्ट का खुलासा
ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म ज़ी5 पर रिलीज हुई रश्मि रॉकेट एक महिला खिलाड़ी के संघर्षों की बात करती है जिसे जेंडर वेरिफिकेशन जैसे मुश्किल और अपमानजनक टेस्ट से होकर गुजरना पड़ता है। कहानी भुज की रश्मि वीरा (तापसी पन्नू) की है जो कि बचपन से ही एक तेज धावक है और उसके टैलेंट से प्रभावित होकर आर्मी कैप्टन गगन ठाकुर उसे एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में शामिल होने का न्योता देता है। गगन खुद एक पदक विजेता एथलीट रहा है व आर्मी में एथलीटों को ट्रेन करता है। ट्रेनिंग पूरी करने के बाद रश्मि राज्यस्तरीय प्रतियोगिताएं जीत जाती है और प्रोत्साहित होकर नेशनल स्तर पर ट्रेनिंग के लिए पुणे पहुंचती है और अपनी काबिलियत की वजह से देश की स्टार बन जाती है। 2004 के एशियाई खेलों में रश्मि की शानदार जीत पर जहां देश जश्न मना रहा होता है वहीं दूसरी तरफ एथलेटिक एसोसिएशन के कहने पर जबरन उसका जेंडर टेस्ट कराया जाता है और उसमें टेस्टोस्टेरोन हार्मोन अधिक होने की वजह से उसके टैलेंट को नकार कर दौड़ प्रतियोगिताओं से उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है।
इसके बाद रश्मि इंसाफ के लिए अपनी लड़ाई शुरू करती है। हाईकोर्ट में मानव अधिकार उल्लंघन के तहत एक पेटीशन दायर करती है। इस केस की सुनवाई के दौरान तमाम दलीलें सुनने के बाद आखिरकार कोर्ट रश्मि को तमाम पाबंदियों से आजाद करने का आदेश देता है।
फिल्म की कहानी हमें भारत की तेज धावक दुती चंद की याद दिलाती है, जिन्हें जेंडर टेस्ट में फेल होने के बाद एशियन गेम्स में खेलने का मौका नहीं मिला। कुछ साल पहले दुती इस बात के लिए विवादों में आई थी कि उनके शरीर में टेस्टोस्टेरोन (वह हार्मोन जो पुरुष के शरीर में अधिक पाया जाता है) की मात्रा सामान्य महिला से अधिक है और जिस कारण उन्हें कुछ समय के लिए एथलेटिक्स फेडरेशन ने प्रतिबंधित कर दिया था। दुती ने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया द्वारा लिए गए फैसले को चुनौती देते हुए कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन में अपील की। अदालत ने एक ऐतिहासिक जजमेंट में उनके पक्ष में फैसला सुनाया और वह मुकदमा जीत गई।
आज भी हमारे देश में एक सदियों पुरानी प्रणाली के तहत जेंडर टेस्टिंग के नाम पर महिला एथलीट को शोषण का सामना करना पड़ता है। किसी धाविका से यह कहना कि वह स्त्री तो है, लेकिन उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा अधिक होने के कारण वह स्त्री वर्ग में नहीं आ सकती अपने आप में उसके लिए असहनीय मानसिक यातना देने वाला है। दुती चंद को तो आईएएफ (इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन) से राहत मिल गई थी और वह मुकदमा जीत गई थी लेकिन जेंडर टेस्ट के नाम पर महिला एथलीटों के साथ हुए भेदभाव से जुड़े कई सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं।
पिंकी प्रमाणिक और शांति सुंदराजन को भी जेंडर टेस्ट से होकर गुजरना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय और 50 राष्ट्रीय पदक जीतने वाली तमिलनाडु के दलित तबके से आई शांति सुंदराजन पहली भारतीय धाविका है जिन्हें जेंडर टेस्ट मे फेल होने के कारण सन 2006 में हुए एशियाई खेलों में 400 मीटर की रेस में जीते कांस्य पदक को लौटाना पड़ा था। इस वजह से उनका करियर तबाह हो गया और वह काफी विवादों में आ गई। अत्यधिक अपमान झेलने की वजह से उन्होंने डिप्रेशन में आकर आत्महत्या तक का प्रयास किया। पदक छिनने और जेंडर टेस्ट से हुए सामाजिक अपमान के बाद लोग उन्हें अजीब नजरों से देखने लगे जैसे पूछ रहे हो कि क्या वो लड़का है जिस वजह से उनका और उनके परिवार का जीवन तबाह हो गया।
दूसरी महिला धाविका जिन्हें इस टेस्ट से गुजरना पड़ा वह पश्चिम बंगाल की पिंकी प्रमाणिक है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय खेलों में पांच स्वर्ण पदक सहित कुल 6 पदक जीते। पिंकी की महिला मित्र ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया। इस आरोप के चलते उनका जेंडर टेस्ट करवाया गया। आखिर में वे भी इस टेस्ट को पास करके पूर्ण रूप से स्त्री घोषित हुई। साल 2001 में गोवा की एक युवा तैराक प्रतिमा गोकर ने जेंडर टेस्ट में फेल होने के बाद अपनी जान लेने की कोशिश की थी
।AAF द्वारा हाइपरएंड्रोजेनिज्म की स्थिति में महिला धावकों के अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। IAAF का तर्क है कि हाइपरएंड्रोजेनिज्म के कारण महिला धावक में अपनी अन्य प्रतिद्वंदियों से ज्यादा क्षमता आ जाती है इसलिए महिला धावक सिर्फ उसी स्थिति में किसी खेल-प्रतियोगिता में भाग ले सकती है जब वह अपने टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का स्तर कम कर दे जोकि दवाई व सर्जरी द्वारा किया जाता है। इस मुद्दे को मानवाधिकार के मुद्दे से जोड़ा जाता है। कई दिग्गजों और खेल जानकारों का मानना है कि किसी महिला खिलाड़ी को शरीर में बदलाव करने के लिए मजबूर करना उनके मानवाधिकारों का हनन है, अधिकारों को अगर छोड़ भी दिया जाए तो भी जब किसी महिला खिलाड़ी से उनके महिला होने का सबूत मांगा जाता है और उनसे टेस्ट कराने को कहा जाता है यह पूरी दुनिया के सामने उन्हें शर्मिंदा तो करता ही है साथ में उनके आत्मविश्वास पर भी काफी गलत प्रभाव डालता है।
निर्देशक आकाश खुराना ने फिल्म रश्मि राकेट के जरिए खेलों में महिला खिलाड़ियों का जबरन लिंग परीक्षण और हाइपरएंड्रोजेनिज्म की तरफ लोगों का ध्यान खींचा है जो कि एक गहन विषय है। यह फिल्म महिला एथलीटों के प्रति समाज की धारणा और खेल जगत की राजनीति से पर्दा उठाती है खासतौर पर तब जब महज एक टेस्ट के बाद न सिर्फ उनका कैरियर खत्म हो जाता है, बल्कि जो महिला खिलाड़ी इसका शिकार होती हैं उनके सम्मान को काफी ठेस पहुंचती है और वे अवसाद का शिकार होकर कई बार अपनी जान तक देने के लिए अमादा हो जाती हैं।
मानव अधिकार और संविधान के अनुच्छेदों को ध्यान में रखते हुए इस फिल्म के जरिए उन कानूनों पर भी चोट करने की कोशिश की गई है जो आज के वक्त के लिए गैरजरूरी है। एक ऐसी प्रथा जो एथलेटिक्स में आज भी जारी है व जिसने महिला खिलाड़ियों को वर्षों से परेशान कर रखा है और जेंडर टेस्टिंग के नाम पर उनको शोषित एवं उतपीड़ित कर रखा है उसके खिलाफ यह फिल्म जोरदार आवाज उठाती है।
(रचना अग्रवाल स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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