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शेरनी : दो मादाओं की एक-सी नियति की कहानी

फ़िल्म की मूल कथा भले ही एक शेरनी (टी-12) के इर्द-गिर्द बुनी गयी है लेकिन कब एक महिला के लिए हमारा समाज, हमारी राजनीति, हमारी नौकरशाही ठीक वही रवैया अपना लेती है जो एक शेरनी के लिए, यह बिना किसी उपदेश के इस फिल्म में सतह पर आ जाता है।
शेरनी : दो मादाओं की एक-सी नियति की कहानी
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

इस फिल्म को कुछ महत्वपूर्ण संवादों से समझने की कोशिश करनी चाहिए ताकि इसके व्यापक फलक पर चर्चा हो सके। ये कुछ संवाद हैं-

"कोई भी शेरनी आदमखोर नहीं, भूखी होती है।"

"टाइगर है तभी तो जंगल है, और जंगल है तभी तो बारिश है, बारिश है तो पानी है और पानी है तो इंसान है...।”

“अगर विकास के साथ जीना है तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।”

“यह अंग्रेजों का बनाया गया विभाग है। इसमें रहते हुए आप राजस्व लाइये। कुछ भी कीजिये। प्रोमोशन पाइए और सुख से रहिए।” 

“जहां हमारे मवेशी चरते थे वहाँ तो सागौन लगा दिया है, हम अब कहाँ जाएँ।”

“जब कुछ कर नहीं सकते तो एक लेडी अफसर को भेज देते हैं।”

ये महज़ कुछ संवाद हैं जो फिल्म की पटकथा को बहुआयामी बना देते हैं। इसकी मूल कथा भले ही एक शेरनी (टी-12) के इर्द-गिर्द बुनी गयी है लेकिन कब एक महिला के लिए हमारा समाज, हमारी राजनीति, हमारी नौकरशाही ठीक वही रवैया अपना लेती है जो एक शेरनी के लिए, यह बिना किसी उपदेश के इस फिल्म में सतह पर आ जाता है। यह दो मादाओं (स्त्रीलिंगों) की जद्दोजहद है और जिसमें उन्हें खेत होना है।

टी-12 नामक शेरनी अपने बच्चों के समेत खुद के जीवन के लिए वन विभाग, राजनीति, पेशेवर (शौकीन) शिकारी और राजनीतिक संरक्षण से रचे गए तंत्र से जद्दोजहद कर रही है तो दूसरी महिला है विद्या विंसेट जो वन विभाग में एक जिम्मेदार अफसर है इन्हीं तत्वों द्वारा बनाई गयी पितृसत्ता की अलंघनीय बाधाओं से जूझ रही है।

‘शेरनी आदमखोर नहीं होती वह भूखी होती है’, यह एक कथन उस पूरे बने बनाए नैरेटिव को ध्वस्त कर देता है जो ब्रिटिशकाल से हमें बताया जा रहा है। शेरनी या किसी अन्य जानवर की भूख उसे इंसानी बस्तियों में जाने को मजबूर करती है। ये भूख कैसे पैदा होती है और सदियों से इन जानवरों के नैसर्गिक पर्यावास रहे जंगल उनकी इस भूख को तृप्त क्यों नहीं कर पा रहे हैं, इसका मुकम्मल जवाब भी इस फिल्म में बेहद सलीके से दिया गया है।

जिम कार्बेट में जब कार्बेट साहब की वीरगाथाएं पढ़ने को मिलें तो इस तथ्य को याद रखा जाना ज़रूरी है। इस संवाद में ‘भूख’ को विद्या विंसेट के परिप्रेक्ष्य में भी समझने की ज़रूरत है जिसका अर्थ यहाँ पुरुषों से बराबरी और स्वतन्त्रता के अर्थों में देखा जा सकता है।

एक शेरनी और उसके दो बच्चों को अवैध शिकार से बचाने की जद्दोजहद विद्या विनसेट (विद्या बालन) को भी इस पितृसत्ता से टकराने का भरपूर माद्दा देती है। एक तरफ शेरनी को अपने जंगल का खूब ज्ञान है और स्वाभाविक रूप से अपनी और अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए जंगलों की गहराइयों की तरफ जाना चाहती है। वह खुद भी गाँव की तरफ नहीं जाना चाहती बल्कि इस जंगल से लगे एक अभ्यारण्य की दिशा में बढ़ रही है। लेकिन खनन गतिविधियों, राजमार्गों के निर्माण और विकास के नाम पर उनके सदियों से बने बनाए रास्तों और नैसर्गिक पर्यावासों को बर्बाद कर दिया गया है। वह चाह कर भी उन रस्तों को पार नहीं कर सकती जहां खनन के लिए जंगल के विशाल क्षेत्र को चौड़ी और गहरी खाई में बदल दिया गया है। यह टी-12 नमक शेरनी के लिए सबसे बड़ी बाधा बन जाती है तो वहीं महिलाओं के लिए अपेक्षाकृत रूप से अस्वाभाविक मानी जाने वाली वन विभाग के अफसर की नौकरी में उसके स्वतंत्र और स्वाभाविक निर्णयों में कई तरह की बाधा पैदा की जाती हैं। जहां पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर स्त्रियोचित व्यवहार, परिधान और आभूषण आदि की थोपी गईं अपेक्षाएँ हैं तो उसके विभाग में पुरुष आला अफसरों की उपेक्षा भी है।

फिल्म का केन्द्रीय कथानक महाराष्ट्र के यवतमाल के जंगल में 2 नवंबर 2018 को मारी गयी शेरनी ‘अवनि’ है। जिसकी बड़े पैमाने पर चर्चा हुई। इस एक घटना के इर्द गिर्द उन तमाम पहलुओं को उजागर किया गया है जो दर्शकों को विशेष रूप से जंगल और जंगल के महकमे को कम या न जानने वाले दर्शकों को ज़रूर देखना चाहिए। लेकिन इस घटना को आधार बनाकर भी यही फिल्म बनाई जा सकती थी। इसमें डीएफओ के तौर पर एक महिला अधिकारी को दिखाना क्यों ज़रूरी था? मात्र एक चरित्र बदल देने से इस सच्ची घटना पर आधारित फिल्म में कई विमाएं (dimensions) खुद ब खुद जुड़ जाती हैं।

इस फिल्म के जरिये वन्य जीव संरक्षण के प्रति वन विभाग के आला अधिकारियों का रवैया ब्रिटीशकालीन महकमे के दौर को याद दिलाता है। उल्लेखनीय है कि हिंदुस्तान में 1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून लागू होने के बाद से शिकार एक ‘आपराधिक कार्यवाही’ मान ली गयी। शेर जैसे कम होते जा रहे जानवरों को इस तरह तो नहीं मारा जा सकता। इस सच्ची घटना में हैदराबाद के एक नवाबजादे असगर सुल्तान को अपराधी माना गया था। असगर सुल्तान उस रॉयल फॅमिली से ताल्लुकात रखते हैं जहां पीढ़ियों से शिकार करना एक पारिवारिक फैशन रहा है। समय समय पर आज भी इनकी सेवाएँ वन विभाग लेते रहा है। महज़ शौक और थ्रिल के लिए शिकार करना और वन विभाग की मिलीभगत से उसे होने देना और इस पूरी कार्यवाही को राजनीति का संरक्षण प्राप्त होना इस फिल्म का संदेश है। असगर को इस फिल्म में टिंकू भैया के रूप में देखा जा सकता है। अवनि कांड के बाद हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रकार जय श्री नंदी ने एक बहुत अच्छी रिपोर्ट 18 नवंबर 2018 को प्रेक्षित की थी जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है।

अब सवाल यह है कि जिस महकमे पर वन्य जीव संरक्षण की ज़िम्मेदारी है उसका रवैया इतना असंवेदनशील क्यों है? जितना फिल्म में दिखलाया गया है शायद उससे कहीं ज़्यादा वास्तविकता में है। तो इसका जवाब है कि ब्रिटिशकालीन यह महकमा 1972 से पहले तक वन्य जीवों को जंगलों के विनाश का बड़ा कारण मानते आया है। खुद अपने वाकरिंग फलाँस में यह दर्ज़ करते आया है कि वन्य जीवों के कारण जंगल नष्ट हो रहे हैं। जिसके बारे में फिल्म में एक पात्र साईं प्रसाद (गोपाल दत्त) जो विद्या विनसेट से पहले इस जंगल में अधिकारी थे, कहते हैं कि ‘यह अंग्रेजों का बनया गया विभाग है। इसमें रहते हुए आप राजस्व लाइये। कुछ भी कीजिये। प्रोमोशन पाइए और सुख से रहिए’। 

अब दिलचस्प तथ्य ये भी है कि यही महकमा 1972 तक शिकार के लिए निविदाएँ निकालता रहा है। शिकार के लाइसेन्स देता रहा है। मध्य प्रदेश के वन विभाग के बारे में कम से यह बात सबूतों के साथ कही जा सकती है कि 1972 के बाद भी शेर के शिकार के लिए निविदाएँ आमत्रित की गईं हैं और बाज़ाब्ता शेरों के शिकार हुए हैं। एक कानून बनने के बाद उसी महकमे को वन्य जीवों की सुरक्षा का जिम्मा देना जो उन्हें अब तक जंगल का दुश्मन मानते आया है एक विरोधाभासी काम रहा जो भारत सरकार ने किया।

एक कानून बदल देने से महकमे का रवैया और मानसिकता बदल जाना संभव नहीं है। लेकिन एक ऐसे महकमे में जो घनघोर एकाधिकारवादी हो, शारीरिक सौष्ठव को जहां तवज्जो मिलती रही हो और पुरुषों का सम्पूर्ण वर्चस्व रहा हो वहाँ एक महिला अफसर की मौजूदगी मात्र से उस महकमे के सालों से चले आ रहे अंतर्विरोध सामने आ जाते हैं। इस फिल्म ने सबसे बड़ा काम यही किया 1972 से पहले तक जिस वन विभाग की सालों की समझ यह रही हो कि वन्य जीव जंगल को नुकसान पहुंचाते हैं उन्हें ही इनकी सुरक्षा का जिम्मा दे देने से नहीं बदली वह महज़ एक महिला की मौजूदगी से बदलती हुई नज़र आती है। क्योंकि यह महिला अफसर न केवल वन्य जीवों बल्कि जंगल में पेड़ों की प्रजातियों, जंगल में और उसके आस-पास रहने वाले समुदायों की असल समस्याओं को समझती है। इन सभी को एकजुट करके समग्रता में जंगल की संस्कृति को समझने की कोशिश करती है।

उसे समाज से भरपूर सहयोग मिलता है बल्कि समुदाय का एक बच्चा तो इस पारिस्थितिकी को समग्रता में समझता है और कहता है कि- "टाइगर है तभी तो जंगल है, और जंगल है तभी तो बारिश है, बारिश है तो पानी है और पानी है तो इंसान है...”, इस संवाद को क्रम बदलकर भी कहा जाता तो भी बात एक ही होती कि सब एक दूसरे के पूरक हैं। जिसे आज़ाद भारत की संसद ने 2006 में एक महत्वपूर्ण कानून की प्रस्तावना में लिख दिया कि वन्य जीव, पर्यावरण, जंगल और मनुष्य के बीच परस्पर पूरकता का संबंध है या अन्योन्याश्रित संबंध (symbiotic relationship) है। इस कानून को आम चलन में वन अधिकार कानून कहा जाता है।

दिलचस्प ये है कि इस कानून का विरोध एक तरफ वन विभाग करता है और दूसरी तरफ वन्य जीवों के संरक्षण पर काम करने वाले वाले कार्यकर्ता भी। जिन्हें संरक्षणवादी कहा जाता है। हाल हाल में कुछ अंतरराष्ट्रीय संरक्षणवादी संस्थाओं और नेटवर्कों मसलन IUCN नेटवर्क इस तथ्य को काफी संकोच के बाद स्वीकार किया है कि जंगल केवल वृक्ष नहीं हैं, जंगलों में सदियों से रहते आए समुदाय न तो जंगलों के दुश्मन हैं और न ही वन्य जीवों के बल्कि ये सब आपस में मिलकर एक-दूसरे के लिए बेहतर ईको सिस्टम का निर्माण करते हैं। सदियों से तो यही साबित हुआ है। लेकिन जबसे जंगलों को व्यावसायिक गतिविधियों और मुनाफे या औद्योगिकीकरण के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया और वहाँ बसे आदिवासी या गैर आदिवासी समुदायों को जंगलों से बाहर धकेला गया या उनकी स्वाभाविक गतिविधियों को रोका गया तब से वन्य जीवों समेत यहाँ की जैव विविधता सभी को नुकसान हुआ है।

यह फिल्म इस समझ को पुनर्स्थापित करती है। इसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति फिल्म के लगभग अंतिम दृश्य में देखी जा सकती है। जब अवनि के 9 महीने की उम्र के दो बच्चों को गाँव वाले जंगल में देख लेते हैं और फिर विद्या को फोन करके इसकी सूचना देते हैं और विद्या के पहुँचने पर बताते हैं कि ‘दोनों बहुत भूखे हैं’। ‘बिन माँ के इन्हें तकलीफ होगी’ और ये भी बताते हैं कि ‘दो मुर्गे खा चुके हैं’। यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि आम तौर पर शेरनी के बच्चे दो सालों तक बहुत मजबूत स्थिति में नहीं होते बल्कि वो माँ के साथ ही सुरक्षित होते हैं। 2 साल के बाद वो आत्मनिर्भर हो पाते हैं। गाँव वालों का इतना घनिष्ठ परिचय शेर के बच्चों से और उनके लिए इतनी संवेदनशीलता उस मिथ और सालों से बनाए गए नैरेटिव को ध्वस्त कर देता है जिसके तहत यह बताया जाता रहा है कि स्थानीय समुदाय इन वन्य जीवों के प्रति कितना खतरनाक है।

स्थानीय राजनीति भी कैसे मुख्य धारा की राजनीति के अनुसार अपने तमाम संदर्भों से कट चुकी है इसका बहुत साफ लहजे में चित्रण किया गया है। दो स्थानीय नेता जिनमें एक भूतपूर्व विधायक और एक वर्तमान विधायक इस तथाकथित आदमखोर शेरनी को चुनावी मुद्दा बना देते हैं जिसमें बाज़ी मौजूदा विधायक के पक्ष में जाती है क्योंकि वह एक शौकिया शिकारी को इस अभियान में बनाए रखने में कामयाब हो जाता है और अंतत: वह आदमखोर शेरनी से अपने इलाके के लोगों को बचा लेने का श्रेय ले पाता है।

ये स्थानीय नेता ऐसे तो उन्हीं स्थानीय समुदायों से उभरे हैं लेकिन समुदाय के इतिहास और जंगलों व जंगली जानवरों के साथ रहने बसने के अपने ही स्थानीय ज्ञान को भुला बैठे हैं। वह तथाकथित मुख्यधारा की राजनीति में इस कदर राम चुके हैं कि उसी नैरेटिव को सही मानकर चलने लगे हैं जो उन्हीं समुदायों के लिए अब तक बेहद नुकसान पहुंचा चुका है। स्थानीय संदर्भों से साज़िशन अलग की गयी राजनीति के ये सहज वाहक बन चुके हैं। इस बहाने यह फिल्म उन तमाम आदिवासी नेताओं की मुकम्मल तस्वीर सामने लाने में कामयाब रही है।

विकास और पर्यावरण को लेकर यह फिल्म गंभीर विमर्श के लिए उकसाती है। पर्यावरण प्रभाव आंकलन के बारे में वन विभाग का एक आला अधिकारीनांगीया सर (नीरज कवी) इस द्वंद्व के बारे में बताता है। एक ऐसा अधिकारी जिसकी जिसकी पेशेवर कार्य-कुशलता के बारे में फॉरेस्ट इंस्टीट्यूट्स में पढ़ाया जाता है। अंत में इसकी सफलता या कारगुजारियों का राज़ खुलता है और विद्या विंसेट इसे कायर और गलीच कहती है। पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए जिस पर्यावरण प्रभाव आंकलन का ज़िक्र यहाँ होता है उसकी गंभीरता इस एक संवाद से तय हो जाती है कि - “अगर विकास के साथ जीना है तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।’”  ज़ाहिर है फिल्म वन विभाग के चयन को भी साफ़गोई के साथ अंत तक बताती है कि इनसे भी विकास की उदासी देखी नहीं जाती। असल में जिस विकास की ये बात कर रहे हैं उसमें देश से ज़्यादा इनका विकास निहित है।

जैव विविधतता और अन्योन्याश्रित संबंधों को लेकर एक ग्रामीण महिला की शिकायत महज़ एक पंक्ति में ‘वनीकरण’ (afforestation) की कलई खोल देती है। वो कहती हैं कि जहां हम अपने मवेशी चराते थे यानी जंगल में जहां घास के मैदान हुआ करते थे वहाँ तो सागौन लगा दिये गए हैं। यानी यह प्रकृति प्रदत्त जंगल की संरचना और उसमें नैसर्गिक रूप से पैदा होने वाली जैव विविधतता को लेकर एक स्थानीय महिला की समझ है जो वन विभाग की नासमझी या जबरन जंगलों के विनाश करने की कोशिशों पर तीखा प्रहार करती है।

लगभग अंतिम दृश्य पुन: दो मादाओं की नियति को एकमेव कर देता है। खदान और खाई यहाँ बहुत गंभीर प्रतीक रचते हैं। 

अमेज़न प्राइम वीडियो पर आई इस फिल्म के निर्देशक अमित मसूरकर ने अपनी पिछली फिल्म ‘न्यूटन’ की ही शैली को दोहराया है। साफ-सपाट लेकिन अर्थगांभीर्य। अनावश्यक थ्रिल, ड्रामा और सस्पेंस से बचाते हुए। इनके नायक या नायिका चतुर, चालाक या स्मार्ट नहीं हैं। वो कर्तव्य निष्ठ हैं, ईमानदार हैं और संवेदनशील हैं। उनमें हीरोइज़्म नहीं है। वो हम आप में से कोई हैं जिनका ज़मीर ज़िंदा है और जो वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। यह शैली हालांकि कई बार उबाऊ लग सकती है लेकिन साफ़गोई और सरलता ऐसी ही होती है।

विद्या बालन चरित्र में गहरे उतरना जानती हैं जो इस फिल्म में भी बखूबी निभाया है। अभिनय की दृष्टि से सभी कलाकारों ने अपना पूरा योगदान दिया है इस फिल्म को महत्वपूर्ण फिल्म बनाने में।

ज़रूर देखने लायक फिल्म है। बच्चों-बड़ों सभी को दिखाए जाने लायक है और देखने के बाद चर्चा किए जाने लायक है।

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(लेखक पिछले डेढ़ दशकों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणियाँ लिखते हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।) 

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