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सार्क के बकवास को जारी रखने के लिए कोरोना कार्ड  खेलने का क्रम जारी है

इसका हालिया डिजिटल माध्यम के जरिये  शिखर सम्मेलन कुछ और नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान द्वारा खुद को श्रेष्ठतम दिखाने की कवायद साबित हुई।
PM
प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार : फाइनेंशियल एक्सप्रेस

14 मार्च के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चिरपरिचित खास अंदाज वाली व्यक्तिगत कूटनीति को आगे बढाते हुए, जिसमें सबको चौंकाने वाला पहलू शामिल रहता है, एक वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग आयोजित की। देखने में यह "आभासी" वेब-आधारित सार्क "शिखर सम्मेलन" लग रहा था। तुरंत-फुरंत में उनके कूटनीतिक योद्धाओं ने इस विचार को हवा देने के लिए इससे सम्बंधित कुछ वेबिनार आयोजित करने के लिए भारत में मौजूद ताली पीटने वालों और इस क्षेत्र में मौजूद अन्य समूहों को उत्साहित कर डाला, मानो सार्क प्रक्रिया जो रुकी पड़ी थी, उसे एक बार फिर से शुरू किया जा रहा है। हो सकता है कि इसकी वजह से उनकी लॉकआउट से उपजी बोरियत में कुछ विविधता के रंग जुड़ गए हों, लेकिन वास्तविक खेल जहाँ था, वो तो वहीं बना रहा। मेरी समझ में यह कवायद भारत और पाकिस्तान के बीच खुद को चौधरी दिखाने की लड़ाई के सिवाय और कुछ नहीं था जिसमें अन्य सदस्य देशों की भागीदारी महज खानापूर्ति से अधिक नहीं होती।

हर चीज कई काम में आ सकती है। यहां तक कि कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी भी इसका अपवाद नहीं रह पाई है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प चीन के खिलाफ अपने कूटनीतिक हमलों में इसे तकरीबन रोजाना ही साबित करने में लगे हुए हैं। कोरोनावायरस को वैश्विक स्तर पर फैलाने के लिए चीन को इसका मूल रूप से जिम्मेदार साबित कर, ट्रम्प की ओर से आरोप मढ़े गए हैं कि चीन इस रोग का इस्तेमाल अमेरिकियों के खिलाफ चल रही वर्चस्व की लड़ाई को जीतने की खातिर कर रहा है। वहीं हमारे क्षेत्र के भीतर भारत कोरोनावायरस कूटनीतिक अभियान के जरिये एक मुर्दा पड़े सार्क को पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगा हुआ था। निशाने पर पाकिस्तान था, और उसकी ओर से भी जवाबी कार्रवाई की गई। सार्क शांति और प्रगति के वाहक के तौर पर काम कर रहा है या नहीं, इसकी परवाह आखिर किसे है?

यहाँ तक कि अपने सबसे अच्छे दिनों में भी सार्क की भूमिका किसी लंगड़े घोड़े से अधिक की नहीं रही है। अब इस वैश्विक महामारी में यह घोडा पहले से कहीं अधिक कमजोर हो चुका है। ऐसी परिस्थिति में यदि थोड़े से दक्षिण एशियाई सहयोग के माध्यम से, भले ही दिखावे के लिए ही सही यदि इस घोड़े को फिर से इसकी दुलकी चाल वाली भूमिका में लाया जा सकता है तो निश्चित तौर पर ऐसा करना बुरा नहीं होगा। लेकिन इस बात की उम्मीद करना कि यह सरपट दौड़ने लगेगा तो यह किसी चाँद-सितारे माँग कर लाने की माँग करने से कम न होगा। कुछ टिप्पणीकार इस प्रयास को सार्क 2.0 की शुरुआत के रूप में कह रहे हैं, मानो सार्क 1.0 में झंडे गाड़ दिए गये थे। आइए सार्क वीडियो वार्ता के दौरान जो कुछ हुआ उसका हम सब जायजा लेते हैं। लेकिन इससे पहले इसकी कुछ पृष्ठभूमि पर चर्चा कर लेना सार्थक हो सकता है।

मेरी अपनी राय में सार्क एक असफल प्रोजेक्ट साबित हुआ है। एक वैकल्पिक दृष्टिकोण संभव है यदि कोई इंसान सार्क की बुनियादी अवधारणा में ही बदलाव के रूप में खुद को सम्‍मिलित करे, और वह यह है कि सार्क से पाकिस्तान को हटा कर देखा जाए। जहां तक भारत का प्रश्न है तो उसे पाकिस्तान रहित खंडित सार्क देखने को मिले तो उसके लिए यह बेहद पंसदीदा होगा। लेकिन समस्या यह है कि उसे इस बारे में पूरा भरोसा नहीं है कि बाकी के मेम्बरान इस तरह के पुनर्निधारण पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे, शायद भूटान को छोड़कर जिसकी विदेश नीति करीब-करीब सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिहाज से भारत पर निर्भर है। जिस प्रकार सार्क नियमित तौर पर नाटकीयता में लिप्त रहता है, वैकल्पिक दृष्टिकोण को भी उसके प्रति उच्च सहिष्णुता रखनी चाहिए। यह कुछ ऐसा है जिससे हर सदस्य देश काफी खुश नजर आता है। और आखिर हो भी क्यों न, नाटकीयता  दक्षिण एशिया के डीएनए में जो है।

कूटनीति के लिहाज से सार्क में शामिल अन्य सदस्य देश सीधे भारत की हाँ में हाँ मिलाने के बजाय नपे तुले ढंग से अपनी प्रतिक्रिया देना पसंद करेंगे। उदाहरण के लिए जहाँ वे उरी में पाकिस्तानी आतंकवादी हमले के बाद भारत के गुस्से को शांत करने के लिए नवंबर 2016 में पाकिस्तान की अध्यक्षता वाले 19वें सार्क शिखर सम्मेलन के बहिष्कार के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन उससे कुछ और आगे कदम उठाने के लिए तैयार नहीं थे। निश्चित तौर पर वे पाकिस्तानी कार्रवाइयों को अपना समर्थन नहीं देते, लेकिन उन्हें इस बात का भी ख्याल है कि इस क्षेत्र में भारतीय दादागिरी के खिलाफ पाकिस्तान ही उनके पास एकमात्र संतुलन शक्ति है।

नेपाल के पास तो इसकी एक अतिरिक्त तकनीकी वजह भी थी, विशेष तौर पर वर्तमान सन्दर्भों के परिपेक्ष्य में। नवंबर 2014 में काठमांडू में आयोजित 18वें सार्क शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता करने के बाद से नेपाल प्रभावी तौर पर स्थायी तौर पर इस पद पर बने रहने के लिए अधिकृत हो गया है, जब तक कि वास्तव में 19वां शिखर सम्मेलन आयोजित नहीं हो जाता। संख्या अपने-आप में सार्क की विफलता बयां कर रही है। याद कीजिये कि सार्क की स्थापना 1985 में कर दी गई थी और प्रक्रियात्मक तौर पर इस बात की उम्मीद की जानी चाहिये थी कि साल में एक बार सार्क शिखर सम्मेलन आयोजित हो। इसलिए सामान्य परिस्थितियों के हिसाब से 2020 में इस संस्था का 35वां शिखर सम्मेलन हो जाना चाहिये था, लेकिन यहाँ खुद को हम 19वें नंबर पर अटके पाते हैं।

फिलहाल दक्षेस तकनीकी गड़बड़ी में उलझा हुआ है। यह तय नहीं हो पा रहा कि इस्लामाबाद में “आयोजित” किये जाने वाले 19वें शिखर बैठक को किस प्रकार से व्य्ख्यायित किया जाना चाहिए था। नेपाल जो कि उस दौरान सार्क की अध्यक्षता कर रहा था, को छोड़कर बाकी के छह सदस्यों में से किसी ने भी भारत के गुस्से को ध्यान में रख उसके सम्मान में इसमें शामिल नहीं हुए थे। जहाँ एक ओर पाकिस्तानी प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने 19वें सार्क शिखर सम्मेलन को संबोधित किया, जिसका अर्थ है कि शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था; और फिर वहीँ दूसरी ओर उनकी ओर से इस शिखर सम्मेलन को "स्थगित" कर दिया, जिसका साफ़ अर्थ है कि वे खुद ही समझ चुके थे इस सम्मेलन को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं मिलने जा रही है। इसके साथ ही उन्होंने घोषणा की कि नई तारीखों की घोषणा जल्द कर दी जाएगी। हमें आजतक उस घड़ी का इन्तजार है।

इसलिए तकनीकी अर्थों में कहें तो नवम्बर 2014 से सार्क की अध्यक्षता के साथ नेपाल सबसे लम्बे समय से इस पद पर काबिज है। कोई भी उसकी इस शर्मिंदगी को समझ सकता है जब वह कहता है कि "जल्द ही एक सौहार्द्यपूर्ण माहौल को निर्मित कर सार्क सम्मेलन के चार्टर की भावना के अनुरूप 19वें शिखर सम्मेलन में सभी सदस्य देशों की भागीदारी को सुनिश्चित किया जायेगा।“ संक्षेप में कहें तो सार्क का कामकाज एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक कि पाकिस्तान एक बार फिर से 19वें शिखर सम्मेलन के लिए सभी को इकट्ठा नहीं करता, और विशेष तौर पर यदि भारत को इसमें भाग लेने के लिए राजी नहीं करा पाता। पाकिस्तान को बिल्ली के गले में घंटी तो बांधनी ही पड़ेगी, लेकिन ऐसा करने के लिए और भारत की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए उसे एक अनुकूल कूटनीतिक माहौल को तैयार करना ही पड़ेगा। वहीँ भारत ने पाकिस्तान के सामने जो शर्त रखी है उसे पूरा कर पाना उसके लिए असंभव है। उसे न सिर्फ भारत में अपनी सभी आतंकवादी गतिविधियों से तौबा करनी होगी, बल्कि उसने अब ऐसा कर दिया है इसे प्रमाणित करने का काम सिर्फ भारत ही करेगा। सार्क के सामने क्या स्थिति है, आप इसे देख पा रहे हैं?

इस पृष्ठभूमि में कोई भी भारत की सार्क कूटनीति का विश्लेषण इस कोरोना वायरस काल में बखूबी कर सकता है। इस वीडियो बैठक के जरिये भारत की ओर से क्षेत्रीय मिजाज को भांपने के लिए आधा-अधूरा कदम ही उठाया गया था। और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह देखने में था कि क्या पाकिस्तान इस लपेटे में आ जायेगा? पाकिस्तान इस खेल में शामिल तो हुआ, लेकिन अपने ही अंदाज में। अन्य सार्क देशों के विपरीत जिनकी ओर से सर्वोच्च पदों पर आसीन लोगों ने अपने देशों का प्रतिनिधित्व इस बैठक में किया था, वहीँ प्रधान मंत्री इमरान खान की ओर से पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करने के लिए स्वास्थ्य मामलों के विशेष सहायक को भेजा गया।

स्पष्ट तौर पर देखें तो पाकिस्तान को यह कत्तई गँवारा नहीं था कि भारत द्वारा चोर दरवाजे से सार्क प्रक्रिया को एक बार फिर से शुरू कराने का सारा श्रेय अपने नाम कर लिए जाने के दावे को, वो भी विशेषकर तब जब प्रक्रियात्मक रूप से इस काम को सार्क की अध्यक्षता कर रहे पाकिस्तान को करना चाहिये था। क्षेत्रवाद के मामलों के किसी भी वस्तुपरक पर्यवेक्षक के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे इस भूल-भुँलैय्या वाले खेल को देखना घृणास्पद ही होगा। लेकिन दुर्भाग्यवश सार्क की यही वास्तविकता है। बहरहाल भारत-पाकिस्तान के बीच का कोरोना-सार्क वाला कूटनीतिक नृत्य का यह पहला दौर इस तरह समाप्त हुआ। दूसरे दौर में बाकी के आधे-अधूरे कदम को उठाने की बारी अब पाकिस्तान की थी। जैसा कि 14 मार्च के वीडियो सम्मेलन में सहमति बनी थी, 24 अप्रैल को सार्क देशों के वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों की एक आभासी बैठक आयोजित की गई, जिसमें भारत सहित सभी आठ सार्क सदस्यों-देशों ने इसमें हिस्सेदारी की।

इस 35 साल से चल रही सार्क की इस कहानी के समूचे संदर्भ को देखते हुए कोई भी व्यक्ति इन दो प्रयोगों से क्या निष्कर्ष निकालेगा? अगर किसी को इस बात से यह उम्मीद जगती है कि इससे भारत के रुख में नरमी लाने में मदद मिलेगी और पाकिस्तान एक बार फिर से 19वां सार्क शिखर सम्मलेन आयोजित कर सकेगा, जिसमें वह भारत को भाग लेने के लिए राजी करा लेगा तो यह भारत-पाकिस्तान रिश्तों की वास्तविकता को बेहद हल्के स्तर पर समझना होगा।
इन दोनों बैठकों के उद्देश्यों और परिणामों के मूल्यांकन में हमें दो प्रश्नों को पूछने की आवश्यकता है। पहला, क्या वे क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर कोरोना वायरस से पड़ने वाले असर को प्रभावी तरीके से संबोधित कर पाए जो पहले से ही भीषण तबाही के संकेत दे रहे थे?  दूसरा यह कि क्या इन बैठकों ने भारत-पाकिस्तान गतिरोध को तोड़ने में अपना योगदान दिया, जो कि सार्क के मौजूदा संकट के मूल में है? जहां तक प्रश्न पहले लक्ष्य को लेकर है तो पहले से ही प्रत्येक देश अपनी ओर से पूरी कोशिश में लगा है कि वह देश की अर्थव्यवस्था की बर्बादी को यथासंभव कम से कम स्तर पर रोक पाने में कामयाब हो सके। इस बारे में सार्क के पास ऐसा कुछ ख़ास नहीं है, जिसकी वह पेशकश कर सके। जहाँ तक दूसरे प्रश्न का सवाल है तो इसका उत्तर है: नहीं।

एक गंभीर हस्तक्षेप के मद्देनजर क्या होना चाहिए इसे समझने के लिए हमें इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि इस सम्बंध में यूरोपीय संघ क्या कर रहा है। इन दो सार्क-कोरोना संबंधित वीडियो बैठकों के बीच में 8 अप्रैल को इस वैश्विक महामारी से उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए यूरोपीय संघ अपनी व्यापक कार्य योजना के साथ प्रस्तुत हुआ था। यूरोपीय संघ की ओर से प्रस्तुत किये गए कई सुझावों के बीच में से कोरोना वायरस महामारी के लिए आर्थिक पहल के प्रस्तावों के लिए दो सप्ताह के भीतर यूरोज़ोन में शामिल होने का निमंत्रण था, और इस सम्बन्ध में अब तक की गई कार्रवाइयों का जायजा लेने के लिए व्यापक और समन्वित आर्थिक पहल का आह्वान किया गया था। इसमें राजकोषीय उपायों के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र और नागरिक सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए यूरोपीय संघ के सकल घरेलू उत्पाद का तकरीबन 3% खर्च करने का प्रस्ताव पेश किया।

इसके साथ ही यूरोपीय संघ ने कोरोनोवायरस रिस्पॉन्स इनवेस्टमेंट इनिशिएटिव के लिए 37 बिलियन यूरो के आवंटन का फैसला किया जिससे कि मौजूदा वर्ष में जो भी सदस्य देश इसकी सबसे बुरी मार से पीड़ित हैं उन्हें 800 मिलियन यूरो तक की वित्तीय सहायता प्राप्त हो सके। इसकी ओर से कॉरपोरेट सेक्टर खरीद कार्यक्रम (CSPP) के तहत पात्रता वाली संपत्तियों की सीमा का विस्तार करने के लिए 750 बिलियन यूरो की पान्डेमिक एमरजेंसी परचेज प्रोग्राम (PEPP) को भी शुरू किया गया है ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को सहायक वित्तपोषण की शर्तों के तहत लाभ पहुँचाया जा सके, जिससे कि वे सभी कोरोना सदमे से उबर पाने में सक्षम बन सकें। इसके आलावा भी इस योजना में कई अन्य विवरण थे।

इसकी तुलना में सार्क प्रस्ताव में कोरोना वायरस इमरजेंसी फंड के निर्माण की दिशा में कोई ठोस कदम उठाने से पहले ही यह भारत-पाक के बीच कूटनीतिक संघर्षों के शिकार के चलते प्रक्रियागत मुद्दों पर लड़खड़ा चुका था। इसके अलावा सच्चाई तो ये है कि इसका कुल बजट ही लगभग 19 मिलियन डॉलर का बनाया गया था, जो कि बेहद मामूली था। भारत की ओर से 10 मिलियन डॉलर की हिस्सेदारी के साथ इसके बड़े हिस्से के बतौर योगदान दिया गया, लेकिन इसके प्रबन्धन को लेकर विवाद उठ खड़ा हो गया। सैद्धांतिक तौर पर वर्तमान में सार्क की अगुआई कर रहे पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए यह तय पाया गया कि इस फंड का संचालन न तो किसी व्यक्तिगत सदस्य द्वारा किया जाएगा और न ही सार्क सचिवालय द्वारा। इसके बजाय प्रत्येक योगदान देने वाले देश की यह जिम्मेदारी होगी कि वह दूसरे देशों से प्राप्त अनुरोधों के जवाब में आवश्यक धन की मंजूरी और उसके वितरण को अमली जामा पहनायेगा।

प्रत्यक्ष तौर देखने में तो ऐसा ही लग सकता है कि इस व्यवस्था में किसी को कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान को इसमें दुर्गन्ध नजर आने लगी। उसके अनुसार वह इस कोष में रत्ती भर का भी योगदान करने नहीं जा रहा है, जब तक कि इस बात पर सहमति नहीं बन जाती है कि इसके संचालन का कार्यभार सार्क सचिवालय को सौंपा जायेगा। केवल इसी प्रकार से पाकिस्तान अड़ सकता था, लेकिन  क्या इसे सार्क में पहल के तौर पर योग्य ठहराया जा सकता है, जो रुकी पड़ी शिखर बैठक की प्रक्रिया को एक बार फिर से शुरू करने का मार्ग प्रशस्त कर सकेगा। संभावना इस बात की है कि पाकिस्तान इस मामले पर अन्य सदस्य-राज्यों के समर्थन को दर्ज करवाने जा रहा है।

इस बीच पाकिस्तान के विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरैशी ने बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका के अपने समकक्षों के साथ फोन पर बातचीत की है। जाहिरा तौर पर उनकी ओर से अपने अफगान और भारतीय समकक्षों से इस मुद्दे पर परामर्श नहीं किया गया है। और जैसा कि उपर वजह बता दी जा चुकी है, पाकिस्तान की ओर से भूटान के साथ बातचीत को सिरे से ख़ारिज कर दिया गया था।

यहाँ पर अपने बांग्लादेशी समकक्ष एके अब्दुल मोमन के साथ हुई कुरैशी की बातचीत विशेष तौर पर काफी कुछ खुलासा करती है। इस बातचीत के बाद इस फंड को लेकर पाकिस्तान की स्थिति का जायजा पाकिस्तानी विदेश कार्यालय के रीडआउट से लिया जा सकता है। इसमें कहा गया था कि "संसाधनों को साझा करने की आवश्यकता पर चर्चा करते हुए इस बात को रेखांकित किया गया था कि सार्क-कोरोना वायरस आपातकालीन फंड को सार्क महासचिव के मातहत रखा जाना चाहिए और जल्द ही इसके उपयोग के तौर-तरीकों को आपसी परामर्श के जरिये अंतिम रूप दिए जाने की आवश्यकता है।” वर्तमान में सार्क महासचिव अनुभवी श्रीलंकाई राजनयिक इसला रुवान वीराकून हैं, जिन्होंने हाल ही में पाकिस्तान के अमजद हुसैन सियाल के स्थान पर यह पदभार ग्रहण किया है।

कुल जमा निष्कर्ष काफी आसान है। पहले दिन से ही सार्क एक नाटकघर बना हुआ है, जहां भारतीय और पाकिस्तानी ग्लैडीएटर अपनी-अपनी मांसपेशियों को प्रदर्शित करने में जुटे रहते हैं और बाकी के सदस्य देश अपनी-अपनी बेंचों पर काबिज होकर कभी एक के करतब पर ताली पीटते हैं तो कभी दूसरे पर। इनका खुद का स्वार्थ इस बात में निहित है कि यह खेल जारी रहे, बजाय कि इनमें से कोई ग्लैडिएटर विजयी घोषित हो। यह एक दुखद सत्य है कि हम दक्षिण एशियाई लोग सार तत्व के स्थान पर हमेशा बाहरी चमक-दमक को ही वरीयता देना पसंद करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के हालिया घिसे-पिटे जुमले “आत्म-निर्भरता” की एक बार फिर से वापसी को ही ले लें।

टैगोर के घरे बाईरे (1916, द होम एंड द वर्ल्ड) के दिनों से लेकर नेहरूवादी भारत के मिश्रित अर्थव्यवस्था पर जोर देने के माध्यम से हमने इस आदर्श और इसके विभिन्न अवतारों के बारे में सुन रखा है। स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया जैसी तमाम आडम्बरपूर्ण योजनाओं के अपने स्टॉक की मियाद खत्म हो जाने के बाद से मोदी सरकार एक बार फिर से आत्मनिर्भरता के उस जर्जर सिद्धांत पर लौट चुकी है, जो करोना वायरस द्वारा गढ़े आर्थिक संकट से निपटने के लिए इस पर बेरुखी से भरोसा कर रही है। यदि यह विचार भारत के वैश्वीकरण के साथ चल रहे हनीमून के अंत का पूर्वानुमान तय करता है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि यह किस तरह से क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है। आखिरकार अपने सबसे अच्छे दिनों में भी दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं एक-दूजे की प्रतिस्पर्धी हो सकती हैं, पूरक नहीं।

(लेखक सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं। आप आईसीएसएसआर नेशनल फेलो और साउथ एशियन स्टडीज, जेएनयू में प्रोफेसर थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखी गई इस मूल स्टोरी को आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-  

Playing the Covid Card to Sustain the SAARC Nonsense

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