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बायस्कोप : सागर जिसकी कोई सरहद नहीं...

हर जगह उनके आस-पास अनेक किताबें बिखरी मिल जाएंगीं और इन सबके बीच सागर साब ख़ुद एक किताब की तरह, नज़र आते हैं मगर थोड़ी बूढ़ी किताब... अपनी अधखुली पनीली सागर जैसी आँखों में एक पूरा काव्य छुपाये हुए, जिसे कोई भी आकार पढ़ सकता है, चाय की चुस्कियों के साथ...
sagar sarhadi
(मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और लेखक सागर सरहदी के साथ अनौपचारिक बातचीत/ संस्मरण)

सागर सरहदी जो हमेशा किसी फ़िल्म की तैयारी में लगे रहते हैं, हमेशा एक अच्छी कहानी की तलाश में रहते हैं। उनके साथ मुंबई में 1999 से 2003 तक लगातार एक साबका बना रहा, उनके लिखे नाटक 'राजदरबार' में एक किसान के केंद्रीय किरदार को करते हुए। ये आज तक बना हुआ है। वे मेरे लिए हमेशा एक प्रेरणास्रोत रहे। उनकी किस्सागोई के साथ बैठना अपने आपमें रचना का एक पूरा संसार होता है। उनके साथ का असर ये कि अपने शहर रीवां के बाद कई सालों से सुप्त पड़ा कविताओं, नाटकों और कहानियों का मेरा लेखक जाग उठा।

मैंने ओल्ड कपल्स पर आधारित एक ऐसा मोनोलॉग 'ख़्वाब' लिखा जिसे सुनकर सागर साब ने अपनी प्यार भरी गाली दे कर कहा 'तूने अल्टीमेट लिख दिया अब तू चैन से मर सकता है!'' उनकी तमन्ना उस पर फ़िल्म बनाने की थी। फिर बड़े अर्से बाद एक कहानी 'बोलाई और चंपा' लिखी (ये कहानी समकालीन भारतीय साहित्य के मार्च -अप्रैल 2016 के अंक में छपी है)। इसको सुनकर बोले 'तू बहुत अच्छा लिखता है… तुझे लगातार लिखना चाहिए'.. । ऐसे बहुत से किस्से हैं वे फिर कभी, अभी उनसे की गयी एक बेलौस चर्चा जिसे पढ़ कर हम-आप बहुत कुछ सीख सकते हैं।

मित्रों, फिल्मी संसार मे अक्सर परदे पर जो दिखता है, उसी की कदर होती है। ऐसे में परदे के पीछे के फ़नकारो को वो शोहरत नहीं मिलती जिसके वो हक़दार होते हैं। लेकिन कुछ इन फिल्मी हदों के परे, खुद का एक ऐसा संसार बनाते हैं जो हर एक के वश में नहीं होता। ऐसे ही रचना संसार के मालिक हैं पाकिस्तान के एक छोटे से गाँव 'बफा'  में जन्में गंगा सागर तलवार यानी मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और लेखक सागर सरहदी।

सागर साब ने शुरुवाती दिनों में इप्टा में काम किया। इप्टा के लिए कई नाटक लिखे। भगत सिंह और अश्फ़ाक पर लिखे उनके प्ले बेहद चर्चित रहे। अश्फ़ाक के ऊपर लिखे प्ले को आज भी इप्टा गाहे-बगाहे करती रहती है। फिल्मों से जुड़ने के बाद में ‘नूरी’ और ‘बाज़ार’ जैसी अपनी कहानियों पर उन्होंने बेहद सफल फ़िल्में बनाईं। उनका जब फिल्मों में आगाज़ किया हुआ तो उन्हें अपनी पहली ही फ़िल्म 'कभी- कभी' के लिये बेस्ट डायलाग राइटर का फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद तो जैसे उनकी गाड़ी चल पड़ी। सिलसिला, चांदनी, सवाल, दूसरा आदमी, कर्मयोगी, रंग, नूरी, तेरी मेहरबानियाँ, फासले, दिवाना और कहो न प्यार है जैसी अनेको सुपरहिट फ़िल्में उनके खाते में जुड़ गई हालाँकि इस सबके बावजूद सागर साब 'बाज़ार' जैसे क्लासिक फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक और लेखक होने के नाते ज़्यादा जाने जाते हैं।

इसी के साथ वे जहाँ एक ओर फ़िल्मकार रमेश तलवार यानी अपने भतीजे को 'नूरी' जैसी हिट फ़िल्म से एक बड़ा प्लेट्फ़ॉर्म देने के लिए जाने जाते हैं, तो वहीं आज के मशहूर फ़िल्मकार, लेखक-गीतकार गुलज़ार उनके शुरुवाती दिनों के एक ऐसे साथी के रूप में भी जाने जाते हैं जिन्होंने अपना खाना, पीना और कमरा सब कुछ साझा किया, बस नहीं साझा किया तो अपना फ़िल्मी कैरियर!

अपने आपमें अकेले और अलग लेखनी के मालिक सागर सरहदी से अलग-अलग मौके पर कई जगह बातचीत हुई। कभी उनके अँधेरी स्थित ऑफिस में तो कभी उनके सायन के आशियाने में... जिसको पिरोकर मैंने एक साक्षात्कार का रूप दे दिया है। वैसे आप चाहे उनके सायन के आशियाने में मिलें या फिर उनके अंधेरी के ऑफिस में.. हर जगह उनके आस-पास अनेक किताबें बिखरी मिल जायेंगीं और इन सबके बीच सागर साब खुद एक किताब की तरह, नज़र आते हैं मगर थोड़ी बूढी किताब..अपनी अधखुली पनीली सागर जैसी आँखों में एक पूरा काव्य छुपाये हुए, जिसे कोई भी आकार पढ़ सकता है, चाय की चुस्कियों के साथ। अब वे लगभग 86 साल के हो रहे है।

गुलज़ार साब का ये समकक्षीय लेखक (दोनों ने लगभग एक साथ ही अपना लेखकीय सफर शुरू किया था), सायन में किताबों से भरे घर में अकेले रहता है जो ऑफिस या फिर घर में बिखरी किताबों के बीच अक्सर युवा जिज्ञासुओं के साथ अपनी जीवन के अनुभवों को बांटते हुए और अच्छा सिनेमा बनाने की बाते करते अक्सर नज़र आता है। आज कल उनके साथ बैठकर उनको सुनते हुए लोग ही उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं। ऐसी ही कई चाय की चुस्कियो के दौरान उनसे की गई बातचीत जहाँ थोड़ा सा कुरेदने पर खुद ही बोलना शुरू कर देते हैं अपने आपको बयान करते हुए।

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सागर सरहदी - देखिये यही मेरा जीवन है ये किताबे न होती तो शायद मैं भी ना होता।

आलोक शुक्ला – इस तरह अकेले ...आपने शादी क्यों नही की ?

सागर सरहदी – कभी सोचा ही नहीं और शादी आदमी जिस बात के लिये करता है वो प्यार मुझे हमेशा हासिल रहा, मेरे 17 अफेयर रहे हैं। क्या ये किसी शादी से कम हैं (एक ज़ोरदार ठहाके के बाद) वैसे सच कहूँ तो मुझे किसी भी बंधन मे रहना पसंद नही, अकेले रह कर जो लिखना–पढना होता है वो शादी के बाद कहां मुमकिन होता?

आलोक शुक्ला- आज कल क्या करते हैं?

सागर सरहदी – ( हंसते हुये) लोगों को लिखने के लिये मना करता हूँ। ...देखिये अब मेरे मिज़ाज का लिखना नहीं होता। मसलन सुभाष घई साब या कोई और मुझे कहें कि इस तरह मेरे लिये एक फ़िल्म लिख दीजिये तो फिर मैं गाली ही दूंगा फिर वे चाहे पचास लाख दें या एक करोड़ दें। ऐसे ही सावन कुमार टाक के साथ हुआ..(इन दोनों ने ही इन्हें फिल्मे ऑफर की थी, वो भी एक अच्छी–खासी रकम के साथ लेकिन सागर साब ने मना कर दिया)। मैं इस मुल्क मे अपनी किस्म का एक लेखक हूं... मैं जो लिखता हूँ, उसमें किसी की दख़लदांजी पसंद नहीं.. आज तक नहीं की तो अब कैसे करुंगा? आज लोग बिना अपनी दख़लदांजी के काम करवाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। कहते हैं हम निर्माता–निर्देशक हैं, हम कुछ भी कर सकते हैं।

आलोक शुक्ला – सागर साब आपका एक लम्बा साबका अमिताभ बच्चन और यश चोपड़ा दोनो के ही साथ रहा है। उस दौर के बारे में कुछ बताईये।

सागर सरहदी- वो दौर कुछ और था। तब मेरी हर फ़िल्म के हीरो को ये पता होता था कि सागर अपने लिखे को बदलता नहीं है। इससे कभी-कभी मुश्किल हालात पैदा होते थे पर मेरे लिये नही फ़िल्म के निर्माता निर्देशक के साथ। वे भी बोलते थे कि जाओ सागर से बात कर लो और हीरो को जब ये पता चलता कि ये सागर सरहदी ने लिखा है तो हीरो वही बोल देता था जो मैं लिखता था। भला किसको मुझसे गाली खानी थी। शत्रुघ्न सिन्हा और नसीर के साथ ऐसा ही हुआ। 

यश के साथ जब चांदनी लिखी तब ऐसा हुआ कि वे बार बार बदलने की कोशिश करते और मैं मना कर देता तो उन्होंने किसी और को बुलाया पर बात नहीं बनी, फिर किसी और को बुलाया पर फिर बात नहीं बनी और अंत में किसी और के जरिये संदेशा भेजा कि सागर ये फ़िल्म तुम ही लिख सकते हो... और फिर मैंने वो फ़िल्म लिखी। देखिये साब, मैं यूँ ही नहीं कहता कि रोमांस मे मेरी मोनोपली है। वैसे भी जो जिसका काम है वही करेगा न? ...लेखक लिखे.. हीरो अभिनय करे... निर्माता फ़िल्म बनाये और निर्देशक फ़िल्म निर्देशित करे.. इसमे ग़लत बात क्या है?

आलोक शुक्ला– सागर साब अपनी फ़िल्म ‘बाज़ार’ के बारे मे कुछ बताईये

सागर सरहदी – देखिये जब ये फ़िल्म बनी तब बड़े मुश्किल हालात थे। इमरजेंसी के हालात थे और मेरे पास कोई पैसे भी नहीं थे। पर मेन मसला ये कि इस सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनानी थी। लोगों ने कहा सागर पागल हो गया है पर फिर जब देखा कि मैं अडिग हूँ... तो मदद भी की। 

मैंने नसीर व अन्य लोगों को लिया जो अभी नये-नये ही आये थे और फिर ऐसे ही एक वाकये में लोग शूटिंग के लिये हैदराबाद निकल रहे थे और मेरे पास पैसे नहीं थे तब यश चोपड़ा ने एक पॉलीथिन में एक लाख रुपये अंधेरी स्टेशन पर भिजवाये, जहां से मैं निकलने वाला था। जैसे-तैसे फ़िल्म बन तो गयी पर फिर कोई खरीदने को तैयार नहीं था! तब हैदराबाद में ही फ़िल्म रिलीज़ की क्योंकि कहानी वहीं की थी और फिर जो हुआ वो इतिहास था कि फ़िल्म ने सिल्वर ज़ुबली मनाई और पूरे देश मे रिलीज़ हुई।

आलोक शुक्ला- इसमें तो कोई दोराय नहीं.. अच्छा सागर साब आप गुलज़ार के समकालीन हैं फिर ऐसा क्या हो गया कि आप..

सागर सरहदी – (बीच मे काटते हुये.. थोड़े से अचकचाये हुये) देखिये सबका अपना सफ़र होता है... हमने काफी समय साथ गुज़ारा। मैं उस वक्त इप्टा के साथ प्ले करता था और लिखता था। भगत सिंह और अश्फ़ाक उल्ला पर लिखे प्ले खूब चले। हम दोनों ने फ़िल्मों के लिये कोशिश की... फिर धीरे धीरे हमारे रास्ते अलग होते चले गये। उसने शादी कर ली, मैंने नहीं की। मैं एक अलग मिज़ाज का आदमी था और हूँ। सच कहूँ कि मैं दिखावटी आदमी नहीं हूँ  ..दिखावा पसंद नहीं, जो हूँ, वो हूँ... इस बाज़ार मे जीने की अगर शर्ते कुछ और हैं तो वे जियें जिनको जीना है। मैं उनमें शामिल नहीं हूँ और न ही हो सकता हूँ कभी।

आलोक शुक्ला – आज कल के लेखकों और उनके लेखन के बारे कुछ कहेंगे

सागर सरहदी – कुछ नहीं

आलोक शुक्ला- जी ?

सागर सरहदी – हाँ, क्योंकि सब अपने-अपने तरीके से काम कर रहे हैं। कहने को अच्छा काम कर रहे हैं पर हक़ीकत ये है कि वे अपनी ज़ुबान और तहज़ीब के बारे में नही जानना चाहते। पढ़ना नहीं चाहते। बस काम करना चाहते हैं.. तो करें, उसमे सागर सरहदी कौन होता है?

आलोक शुक्ला – क्या आप काम के कॉरपरेट होने से ख़फ़ा हैं?

सागर सरहदी – ख़फ़ा होने वाला मैं कौन होता हूँ? बस ये कि दिल में कहीं खला सी होती है कि इस सबमें क्रिएटिविटी मारी जाती है क्योंकि पहले वे उसके नफे-नुकसान का ग्राफ बनाते हैं फिर कुछ करते हैं... और इसमें कभी बेकार सी फ़िल्में भी चल जाती हैं और अच्छी फ़िल्में पड़ी रहती हैं।  

आलोक शुक्ला – ये एक तरह से स्टारडम वाली ही बात हुई .. जिसमें आज के कॉरपरेट जैसे ही बड़े अभिनेता या निर्माता और निर्देशक हैं, जो बस अपने नफे-नुकसान को देखते है पर ये तो पहले भी था?

सागर सरहदी – था, पर तब कहीं सब्जेक्ट भी एक मुद्दा हुआ करता था। सब्जेक्ट का और उससे जुड़े लोगों का एक सम्मान था पर अब ऐसा कहना मुश्किल है। सब्जेक्ट... एक ऐसे ही वाकया है कि सिलसिला के लिये यश जी और उनके लोगों के साथ सिटिंग चल रही थी कि अचानक अमिताभ बच्चन साब आ गये। सब सब्जेक्ट सिटिंग छोड़ कर उठ बैठे और उनकी आवभगत करने लग गये। मुझे इसका बहुत बुरा लगा.. और यश से इसके लिये बोला भी, इसके बाद ऐसी सिटिंग अलग से होने लगी और सबके आने के बाद होती जिसमें बीच में किसी के भी आने की पाबंदी हो गयी।

आलोक शुक्ला – पर ऐसा विरोध करने वाले लोग कहाँ हैं सागर साब?

सागर सरहदी- देखिये आपमें हुनर है तो अपनी बात कहने की ताकत भी होती है वर्ना कोई बात नहीं फिर वैसे ही जिइये जैसे आपसे बनता है। किसी बात की शिकायत मत कीजिये।

आलोक शुक्ला – अच्छी बात है, सागर साब तो फिर आज कल क्या मसरूफियत रहती है आपकी ? कुछ नया प्लान कर रहे हैं ?

सागर सरहदी – सुबह उठता हूँ,  पढ़ता–लिखता हूँ,  फिर दोपहर में अंधेरी के अपने ऑफिस मे जाता हूँ, जहां आप जैसे साथियो के साथ बैठता हूँ। कहानी, कविताओं और नाटकों की चौपाल सजती है। सिनेमा की बाते होती हैं। वैसे अभी मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के ऊपर दूरदर्शन के लिए एक सीरियल निर्देशित करने की बात चल रही है जो अभी थोड़ा पोस्टपॉन्ड हुआ है जबकि बाज़ार- 2 बनाने की भी सोच रहा हूँ लेकिन कोई माकूल प्रोडूसर ही नहीं मिल रहा है।

आलोक शुक्ला- नवाज़ुद्दीन स्टारर आपकी फ़िल्म ‘चौसर’ का क्या हुआ.. इसे बने तो कई साल हो गये ?

सागर सरहदी – जी हां, फ़िल्म बनी रखी है... काफी समय से इसके रिलीज़ के लिये लोगों से बात चल रही है... जैसे ही ये फ़िल्म रिलीज़ होगी इससे मिले पैसे से खुद ही बाज़ार-2  बनाऊंगा  या  फिर अपने प्ले ‘राजदरबार’ पर फ़िल्म बनाऊंगा (ये वही प्ले है जिसमे मैंने किसान की मुख्य भूमिका की थी) क्योंकि आज भी किसान मर रहा है और किसी को कोई चिंता है, ऐसा ज़मीन पर तो कतई नहीं दिखता बाकी बातें चाहे जो हों। 

आलोक शुक्ला- आपको बॉलीवुड का अपना दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला है। इसकी ज़्यादा चर्चा नही हुई.. क्यों?

सागर सरहदी – एक तो ये सरकारी पुरस्कार नहीं है और दूसरा मैं खुद कहीं छपने–छापने में यक़ीन नहीं करता। ऐसी ही उर्दू साहित्य अकादमी का महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार भी मिला था। लोग प्यार से बुलाते हैं और मैं चला जाता हूँ, बस...।

आख़िर में सागर सरहदी साब के अच्छे स्वास्थ की कामना करते हुये उनके आने वाले प्रोजेक्ट्स के लिये उनको शुभकामनाएं दी और मन ही मन उनकी इस जिजविषा को सलाम भी किया जिसमें वे लगभग मुफ़लिसी की सी हालत में अपने जीवन को गुजारते हुये भी अपने उसूलों से समझौता करने को तैयार नहीं...।

(लेखक आलोक शुक्ला वरिष्ठ रंगकर्मी, निर्देशक एवं पत्रकार हैं।)

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