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भारतीय मुसलमानों से 'ख़तरे' को भड़काने के लिए संघ परिवार कर रहा है मोपला विद्रोह का इस्तेमाल

मोपला विद्रोह पर राम माधव की टिप्पणी भारतीय मुसलमानों को निशाना बनाने और जीने के बुनियादी मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए यह आरएसएस की इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करने वाली ही एक ओर साज़िश है।
Moplah Rebellion

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सबसे ऊंचे स्तरों से इतिहास को लेकर गढ़े गये दो हालिया सूत्र न सिर्फ़ बेहद गलत हैं, बल्कि ये दोनों सूत्र इस बात का भी संकेत देते हैं कि सार्वजनिक जीवन में मुसलमानों की मौजूदगी के सिलसिले में भारत के बहुसंख्यक समुदाय को असहज बनाने की संघ परिवार की रणनीति में अतीत के कितने झूठ या आधे-अधूरे सच शामिल हैं।

एक अस्थिर और अजेय युद्ध से बाहर निकलने की संयुक्त राज्य अमेरिका की जल्दबाज़ी से पैदा हुआ अफ़ग़ानिस्तान के हालिया घटनाक्रम ने हिंदू धार्मिक-सांस्कृतिक ताक़तों के भीतर भारत में मुसलमानों की मौजूदगी की वास्तविकता और बेलचीलेपन को लेकर नापसंद, पूर्वाग्रह, घृणा और संदेह को और गहरा कर दिया है।

इस बात को लेकर समाज में व्यापक सहमति है कि कुछ मामलों को छोड़ दिया जाये, तो भारतीय मुसलमान जिहादी या इस्लामी आतंकवाद जैसे शब्दों को जन्म देने वाले विचारों को लेकर उदासीन बने रहे हैं। इसके बावजूद, संघ परिवार लगातार एक ऐसा अभियान चलाता रहा है जिसमें भारतीय मुसलमानों और वैश्विक इस्लामी समुदाय के बीच के रिश्ते को एक एक दूसरे से प्रभावित होने के तौर पर दिखाया जाता रहा है।

इस दलील को मज़बूती के साथ रखा जाता है कि भारतीय मुसलमानों की पीड़ा भारत के बाहर के मुसलमान महसूस करते हैं, और इसी तरह, बाहर के मुसलमानों के भीतर की हर पीड़ा भारत के मुसलमान महसू करते हैं। दलील तो यह भी दी जाती है कि भारत का मुसलमान वैश्विक स्तर पर इस्लाम की एकता में यक़ीन करने वाले लोग हैं। महात्मा गांधी के प्रति उनका दिखावटी प्रेम और राष्ट्रीय आंदोलन के सामाजिक आधार को व्यापक बनाने को लेकर उनकी सचेत पसंद के बावजूद पहले विश्व युद्ध के ख़त्म होने के बाद शुरू हुए ख़िलाफ़त आंदोलन के समर्थन और इस्लामी ख़िलाफ़त को ख़त्म करने के ब्रिटिश फ़ैसले को भारतीय मुसलमानों के अतिरिक्त क्षेत्रीय भावनाओं से प्रेरित होने के उदाहरण के तौर पर ज़िक़्र किया जाता है।

पिछले महीने, आरएसएस में कभी पोस्टर-बॉय रहे और कुछ साल तक बियाबान में गुज़रने के बाद राम माधव संघ परिवार की राजनीतिक हैसियत में फिर से दाखिल होने की कोशिश में हैं और इसी कोशिश की प्रक्रिया में राम माधव ने भारतीय मुसलमानों को अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे घटनाक्रम के साथ जोड़कर उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है।

तालिबान की ओर से किये जा रहे ज़ुल्म-ओ-सितम की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने कहा है कि "तालिबानी मानसिकता" भारत में एक सदी पुरानी है और यह सबसे पहले केरल के मालाबार इलाक़े में मोपला विद्रोह या मोपला बलबे के तौर पर सामने आयी थी। उन्होंने यह भी कहा कि इसी भावना का नतीजा 1947 में हुआ बंटवारा भी था। तालिबान और भारतीय इतिहास को लेकर अपनी ख़ास तरह की समझ को रेखांकित करते एक बयान में माधव ने कहा, "तालिबानवाद देश में एक लकीर बन गया है और हर बार इसकी असलियत छुपा ली जाती है है।"

एक सदी पुरानी मालाबार इलाक़े की उस घटना की इस एकपक्षीय धारणा का यह नवीनतम रूप है, जिसे "मुस्लिम शासन के बाद हिंदुओं पर हुए सबसे बड़े मुस्लिम हमले" के रूप में दिखाया गया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने हिसाब से सिर्फ़ उन्हीं ऐतिहासिक पहलुओं को चुन लेने की सहजता की एक और मिसाल सामने रख दी, जो उनके समकालीन एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं।

एक सहयोगी संगठन की ओर से आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लेते हुए भागवत ने ज़ोर देकर कहा कि "इस्लाम भारत में हमलावरों के साथ आया था। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है और इसे इसी रूप में कहे जाने की ज़रूरत है।" जहां तक इतिहास की बात है और अतीत को एक ख़ास नज़रिये से पेश किये जाने की बात हो, तो यह बयान भी संघ परिवार का अपने तरीक़े से इतिहास की घटनाओं से किसी घटना को चुन लिये जाने का एक और उदाहरण था।

हक़ीक़त तो यही है कि भारत में इस्लाम तीन अलग-अलग दरवाज़ों से दाखिल हुआ था। ये तीन दरवाज़े थे- व्यापार, सूफ़ीवाद और सैन्य गतिविधियां। इसी सैनिक गतिविधियों को भागवत और उनके जैसे लोग हमलावर कहना पसंद करते हैं। इस्लाम के बाक़ी दो दरवाज़ों की अनदेखी करते हुए संघ परिवार जानबूझकर इस मिथक का प्रचार करता है कि आज के मुसलमानों की विरासत की निशानदेही हिंसक तरीक़े से राजनीतिक सत्ता को इसी हड़पे जाने से की जा सकती है।

दरअसल, आज के मुसलमानों को इन कथित 'हमलावरों' से जोड़ने की यह कोशिश समकालीन भारत में उनके लिए ग़ुस्सा और नफ़रत को भड़काने की रणनीति का ही एक हिस्सा है। आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन इस सच्चाई को छुपा जाते हैं कि अरब में इस्लाम के उदय से पहले भी शुरुआती फ़ारसी और अरब व्यापारी भारत के कुछ हिस्सों में बस गये थे। बाद में, वे इस्लाम के आने से पहले के अरबों और फ़ारसियों के रूप में नहीं, बल्कि मुसलमानों के रूप में यहां बस गये। कम से कम नौवीं शताब्दी में पहले तो ये तटीय केरल में बसे और फिर बाद में भारत के उस उत्तरी हिस्सों में बस गये, जहां हर मुसलमान के ऊपर ‘हमलावरों के वंशज' होने का ठप्पा लगाया जाता है।

यहां बसने वाले मुसलमान, व्यापारी, धार्मिक मिशनरी, सैनिक, रईस और दूसरे आम लोग थे, जिन्होंने इस भूमि को अपना घर बना लिया, उन्होंने भारत में ही शादी की और जल्द ही एक ऐसे विशाल स्वदेशी मुस्लिम समुदाय का विकास हुआ, जो सामाजिक मामलों में यहां बसे अप्रवासी मुसलमानों से बिल्कुल अलग था। मालाबार इलाक़ों के बाहर बसे मलयाली मुसलमानों को मोपला नाम दिया गया था और यह इलाक़ा उस प्रमुख विद्रोह या क्रांति की जगह बन गया, जिसकी एक सदी से अलग-अलग तरीक़े से व्याख्या की जाती रही है।

इस मोपला विद्रोह को लेकर इस तरह की जो पहली शुरुआती व्याख्या थी,वह 1925 में आरएसएस के गठन से पहले ही शुरुआती हिंदू राष्ट्रवादियों की ओर से की गयी थी। इसके पीछे की कहानी तब से शुरू होती है, जब महात्मा गांधी 1915 में भारत लौटे थे। शुरू में केबी हेडगेवार (जो बाद में चलकर आरएसएस के संस्थापक हुए) और उनके गुरु बीएस मुंजे, दोनों गांधी की राजनीति से सहज थे क्योंकि उन्होंने तपस्या और सत्याग्रह की वकालत की थी। हालांकि, हेडगेवार हर तरह के विरोध में गांधी की ओर से अहिंसा पर ज़ोर दिये जाने को लेकर सहज़ नहीं थे। उनका विचार था कि राजनीतिक क्षेत्र में अहिंसा हिंदुओं को कमज़ोर कर देगी और मुसलमानों को भारत के इन 'मूल निवासियों' पर हुक़्म चलाने में सक्षम बना देगी।

जब गांधी ने असहयोग आंदोलन के साथ ख़िलाफ़त आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल कर लिया, तो हेडगेवार और उनके जैसे दूसरे लोगों ने कांग्रेस, ख़ासकर गांधी से दूरी बनानी शुरू कर दी। उन्हें लगा था कि गांधी हिंदू-मुसमान की एकता को मज़बूत बनाने की ज़रूरत पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं। मोपला विद्रोह के समय हेडगेवार जेल में थे। उस समय मुंजे ने इसकी जांच-पड़ातल को लेकर वहां गये हिंदू राष्ट्रवादियों की एक टीम की अगुवाई की थी।

उनकी रिपोर्ट ने नागपुर इलाक़े के हिंदुओं के भीतर यह कहते हुए डर को बढ़ा दिया था कि यह घटना कुछ और नहीं, बल्कि जबरन धर्म परिवर्तन का मामला है। अपनी रिपोर्ट के मद्देनज़र आर्य समाज मिशनरी, स्वामी श्रद्धानंद ने इस क्षेत्र में एक बेहद उत्तेजक शुद्धि /फिर से पहले वाले धर्म में धर्मांतरण किये जाने का आंदोलन शुरू कर दिया।

स्वामी ने बाद में मुंजे आयोग के सामने अपने विचार रखे, और उनके इन्हीं विचारों ने हेडगेवार को उनके भीतर आकार ले रहे इस नये नज़रिये को मज़बूती देने का काम किया कि 'हिंदू मुसलमानों की तरह संगठित नहीं हैं, और आपस में विभाजित हैं। इस समस्या का एक ही समाधान है कि हिंदू नेता अपने समाज को संगठित करें।' हेडगेवार ने आख़िरकार सितंबर 1925 में आरएसएस की स्थापना की, लेकिन इसकी स्थापना एक साल पहले नागपुर दंगों में अहम भूमिका निभाने से पहले नहीं की गयी।

इस मोपला विद्रोह को महज़ इस सांप्रदायिक लिहाज़ से देखना ही काफ़ी नहीं होगा कि आरएसएस के अंतत: स्थापित होने के पीछे का यही उत्प्रेरक कारण था और श्रद्धानंद (जिनके साथ हेडगेवार ने भी ईसाई मिशनरी आश्रयों में रह रहे अनाथों को फिर से धर्मांतरित करने का बीड़ा उठाया था) की ओर से बड़े पैमाने पर फिर से धर्मांतरण अभियान चलाया गया था,बल्कि सौ साल बाद "तालिबान मानसिकता" के 'वैश्विक प्रवर्तक' के रूप में इसके चित्रण का असली मक़सद तो कोविड-19 के क्रूर हमले के मद्देनज़र स्वास्थ्य के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के सिलसिले में महामारी और इससे पैदा हुई स्थिति से निपटने में सरकार की अक्षमता और जीने के मूलभूत मामलों से लोगों का ध्यान हटाना है।

यह मक़सद बिल्कुल सरल है और वह यह कि लोगों को भारतीय मुसलमानों, देश के भीतर उनके साथ देने वालों (विपक्षी दलों, मीडिया का वह वर्ग,जो सरकार की पकड़ में नहीं आ रहा है, उदार और वामपंथी तबकों और निश्चित रूप से नागरिक समाज), और वैश्विक जिहादी आतंकवादी समूहों से पैदा होने वाले डर के 'ख़तरे' के जाल में फंसाये रखना है। ऐसे में लोगों को भारी प्रचार तंत्र के ज़रिये संघ परिवार के साथ-साथ इस सरकार को भी अपना एकमात्र 'उद्धारकर्ता' के तौर पर देखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

कई जटिल ऐतिहासिक घटनाओं की तरह मोपहला विद्रोह को भी एक ही नज़रिये से देखना इसलिए नासमझी है, क्योंकि इसके होने के पीछे के कई कारणों में से महज़ एक ही कारण बताया जाता है। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि मैपिला विद्रोह आख़िर था क्या  ? क्या यह असहयोग-ख़िलाफ़त आंदोलनों से प्रेरित एक तीव्र उपनिवेश-विरोधी संघर्ष था, या यह वर्ग संघर्ष का प्रतिकात्मक संघर्ष था, या फिर यह एक ऐसा सांप्रदायिक संघर्ष था, जिसके चलते 'हिंदुओं का नरसंहार' हुआ था ? क्या यह घटना इनमें से किसी एक वजह का नतीजा थी, या फिर इस पर इन कारणों में से एक-एक कारण को अपना-अपना असर था ?

इन घटनाओं के धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक मूल्यांकन में भिन्नता की वजह इतिहास में निहित है। सितंबर 1921 में कांग्रेस कार्य समिति के एक प्रस्ताव में मोपलाओं के "सख़्ती से अहिंसक" नहीं होने के कारण उनकी आलोचना की गयी थी। लेकिन, यह आलोचना सांप्रदायिक हिंसा के लिहाज़ से नहीं थी। इसके बजाय उन्हें "देश के सबसे बहादुरों में से एक" क़रार दिया गया था। हालांकि, गांधी ने ज़रूर कहा था कि मुसलमानों को " मोपलाओं के जबरन धर्मांतरण और लूटपाट के आचरण को लेकर शर्म और अपमान को स्वाभाविक रूप से महसूस करना चाहिए।"

लेकिन, रिवॉल्युशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के संस्थापक सौमेंद्रनाथ टैगोर का आकलन अलग था। उनके मुताबिक़, यह घटना "ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ इस सदी की पहली तिमाही में सहज जनक्रांति की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति थी।"

इस घटना की 25 वीं वर्षगांठ पर अगस्त 1946 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से किये जा रहे कई तरह के मूल्यांकन से जुड़े मुद्दे को उठाया गया था। 1921 में पार्टी की त्रावणकोर, कोचीन और मालाबार समितियों की हुई बैठक में ‘द कॉल एंड द वार्निंग’ नामक एक प्रस्ताव को अपनाया गया। ईएमएस नंबूद्रिपाद ने इसी शीर्षक वाले एक पैम्फ़लेट में इसका विस्तार से वर्णन किया था। जनवरी-मार्च 2014 में ‘द मार्क्सिस्ट्स’ में एक आलेख में पिन्नारी विजयन ने लिखा था, "अंग्रेज़ों ने इसे प्रकाशित करने के लिए ‘देशाभिमानी’ पर प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया था। मालाबार विद्रोह का सही मायनों में विश्लेषण करने को लेकर इस अख़बार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जब लीग और कांग्रेस ने मालाबार विद्रोह की निंदा की थी, तब कम्युनिस्टों ने इसके वास्तविक स्वरूप को लोगों के सामने रखा था। कुछ सांप्रदायिक तत्व इस विद्रोह की व्याख्या मोपलाओं के पागलपन भरे उन्माद के रूप में करते हैं, जैसा कि अंग्रेज़ किया करते थे।"

1943 में लिखे गये अपने निबंध ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ द पीजेंट मूवमेंट इन मालाबार’ में  ईएमएस ने जवाब देते हुए एक सवाल को सामने रखा था कि "तो फिर वह मुख्य शक्तियां कौन थी, जिसकी वजह से 1921 का विद्रोह हुआ था? कथित मार्क्सवादी कहेंगे कि यह कृषि असंतोष था। मैं इसका खंडन भी नहीं करना चाहता। अगर किसानों का असंतोष न होता, तो मोपला इतनी बड़ी संख्या और इतनी मज़बूत इच्छा शक्ति के साथ ख़िलाफ़त और कांग्रेस के झंडों तले रैली ही नहीं करते....कांग्रेस के साथ-साथ ख़िलाफ़त के हर नेता के हर भाषण में एक दोधारी तलवार ज़रूर चलती है, जिसकी एक धार के निशाने पर ब्रिटिश सरकार होती है और दूसरे पर जेनमी (केरल के भू-अभिजात वर्ग) होते हैं। यही वह बात थी, जिसने शोषित मोपला को एक नयी उम्मीद और एक नया नारा दे थमा दिया था...यह आंदोलन कृषि-राजनीतिक जनांदोलन का एक बेहतरीन मिसाल था।"

लेकिन, ईएमएस इस घटना को परेशान करने वाले नज़रिए से देखने में भी संकोच नहीं करते,उन्होंने लिखा है, "ऐसा क्यों था कि यह आंदोलन मोपला बहुल क्षेत्रों तक ही सीमित था ?...जैनमी और अधिकारियों का उत्पीड़न और शोषण हिंदू किसानों के लिए उतना ही बुरा है, जितना कि उनके मोपला साथियों के लिए बुरा है। फिर ऐसा क्यों है कि मोपला किसान तक़रीबन हर आदमी के पास तक पहुंच पाये, जबकि हिंदू किसान इस प्रचार का शिकार हो गये कि यह विद्रोह जेनमी या सरकार विरोधी नहीं, बल्कि हिंदू विरोधी था? ऐसे में इस बात से भला इनकार कैसे किया जा सकता कि हिंदुओं को अलग-थलग रखा गया...आख़िर में ऐसा क्यों है कि एक निश्चित संख्या में जबरन धर्मांतरण हुआ, जिसके बारे में मैंने पहले भी टिप्पणी की है कि किसी भी हिसाब से इसकी व्याख्या विशुद्ध कृषि आंदोलन के हिस्से के रूप में तो नहीं ही की जा सकती?"

लेकिन,मोपला विद्रोह की शताब्दी साल को मनाने के फैसले को लेकर केरल की वाम मोर्चा सरकार के ख़िलाफ़ अपनी आलोचना में राम माधव ने "कम्युनिस्ट सिज़ोफासिज्म" शब्द का इस्तेमाल करते हुए ईएमएस को उद्धृत तो ज़रूर किया है, लेकिन अपने हिसाब से आधे-अधूरे तौर पर ही उद्धृत किया है। उनकी यह अदा संघ परिवार की उस अदा से जुदा नहीं है, जिसमें संघ अपने हिसाब से किसी भी घटना के किसी पक्ष को चुन लेता है।

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान घटने वाली इस घटना के सौ साल बाद यह स्वीकार करना अहम है कि मोपला विद्रोह निश्चित रूप से उपनिवेश-विरोधी जनांदोलन का एक बेमिसाल अध्याय था। साथ ही साथ यह आंदोलन वर्ग उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक अभिव्यक्ति भी थी। लेकिन, इसके साथ कई परेशान कर देने वाले मुद्दे भी थे, जिन्हें ईएमएस और दूसरे नेताओं और प्रगतिशील शिक्षाविदों ने बहुत ही विस्तार से बताया है। स्वतंत्रता संग्राम के कई अन्य प्रकरणों की तरह इसमें भी कई ऐसे तत्व हैं, जो गौरवशाली होने के साथ-साथ हमें परेशान करते रहते हैं।

लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी किताबों में ‘द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ शामिल हैं। इनका ट्वीटर एकाउंट है- @NilanjanUdwin

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Sangh Parivar Using Moplah Rebellion to Ignite ‘Threat’ From Indian Muslims

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