शायरी: ऑनलाइन तक़्तीअ बनाम उस्ताद की इस्लाह

उर्दू अदब में उस्ताद और शागिर्द की एक लंबी परंपरा है। उस्ताद यानी गुरु या शिक्षक और शागिर्द यानी शिष्य, छात्र। जैसे अन्य विषयों की पढ़ाई के लिए शिक्षक की ज़रूरत होती है वैसे ही शायरी ख़ासकर शे'र या ग़ज़ल कहने के लिए उस्ताद की इस्लाह की बहुत ज़रूरत होती है। इस्लाह यानी ग़लतियों को दूर करना, बिगड़ी हुई अवस्था में सुधार करना।
किसी भी शे'र या ग़ज़ल के लिए तीन चीज़ें बहुत ज़रूरी होती हैं। क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र।
क़ाफ़िया तुक या तुकांत को कहते हैं और रदीफ़ जो क़ाफ़िया के पीछे-पीछे चलता है यानी सहतुकांत को कहते हैं। हर ग़ज़ल में रदीफ़ ज़रूरी नहीं लेकिन क़ाफ़िया ज़रूर होना चाहिए और साथ ही सारे शे'र यानी मतला से लेकर आख़िरी शे'र या मक़्ता तक पूरी ग़ज़ल एक ही बह्र यानी एक ही मीटर, एक मात्रा-भार, एक वज़्न में होनी चाहिए।
अब उर्दू अदब में कुल 32 बहरें बताई गई हैं। कुछ आसान तो कुछ बहुत मुश्किल। और आसान भी क्या, किसी भी एक बह्र को साधना आसान नहीं। नये लोगों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।
इसलिए उर्दू अदब ख़ासकर ग़ज़ल कहने के लिए इनका या इनमें से कुछ का ज्ञान तो होना बेहद ज़रूरी है। और इसी के लिए गुरु कहें या उस्ताद या जानकार की बेहद ज़रूरत होती है।
उस्ताद ही बता सकता है कि कहां गड़बड़ है, कहां झोल आ गया है और उसे कैसे सुधारा जा सकता है।
तो बह्र की इस्लाह के लिए तक्तीअ की जाती है। यानी हर मिसरे (पंक्ति) को तोड़कर उसका मात्रा-भार या वज़्न लिया जाता है। अब बह्रों का ज्ञान और तक्तीअ करना आना, आते आते आता है। इसमें बरसों लग जाते हैं। और कभी कभी बरसों में भी हम नहीं सीख पाते।
इसलिए ग़ज़ल कहने के लिए उस्ताद की बहुत ज़रूरत होती है।
अब उर्दू शायरी की वेबसाइट रेख़्ता ने एक तक्तीअ टूल उपलब्ध कराया है। कुछ दिन पहले ही मेरी इस पर निगाह गई।
रेख़्ता ने इस टूल के बारे में लिखा है कि–
“रेख़्ता तक़्तीअ एक ऐसा टूल है जिसकी मदद से आप अपनी ग़ज़ल या अश'आर की मात्रा- गणना कर सकते हैं। ये टूल रेख़्ता लैब्स द्वारा विकसित एल्गोरिदम पर काम करता है। इस टूल से आप ये जाँच सकते हैं कि क्या आप का कलाम (ग़ज़ल/शे'र) बह्र में है या नहीं, उसमें ग़लतियाँ अगर हैं तो कहाँ हैं ताकि उन्हें सुधारा जा सके।
यूज़र अपनी इच्छा से कोई भी ग़ज़ल या शे'र इनपुट के तौर पर दे सकता है। टूल द्वारा हर शब्द को उसकी उच्चारण इकाइयों में तोड़ा जाता है, और इसके बाद हर इकाई का मात्रा- भार यानी वज़्न की गणना होती है। इसके बाद टूल हर पंक्ति में मात्रा-भारों के क्रम और योग के आधार पर बह्र का अनुमान लगाता है।”
वाक़ई यह काफ़ी काम का टूल (औजार) है। इससे आप अपनी ग़ज़ल को जांच सकते हैं।
तो क्या अब इस्लाह या तक़्तीअ के लिए उस्ताद की ज़रूरत नहीं रह गई है?
मेरी राय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। हां, इससे नये शायरों को ज़रूर काफ़ी मदद मिलेगी और उस्ताद को भी कम मेहनत करनी होगी (और मज़ाक में कहूं तो उस्ताद की धौंसपट्टी भी कम होगी, जो शागिर्द को ज़रा ज़रा सी बात के लिए उलझाए रखते हैं, नख़रे करते हैं।)
और दूसरी बात यह कि हम इसे मानव और मशीन के टकराव की तरह ही क्यों देखें। हालांकि आने वाले समय में यह टकराव बढ़ेगा, लेकिन हम इसे एक सुविधा, एक सहूलियत, एक अवसर की तरह भी देख सकते हैं। मुद्दा इस्तेमाल का है यानी हम कैसे, कहां और कितना इसका प्रयोग करते हैं। इसी तकनीक की वजह से हमें कविता कोश और रेख़्ता जैसी अदबी वेबसाइट मिलीं, जहां एक क्लिक से ही किसी कवि-शायर का पूरा कलाम हमें मिल जाता है।
और वैसे भी अब न पहले जैसे उस्ताद रहे, न पहले जैसे शागिर्द। ज़िंदगी की ज़रूरतें और मुश्किलें भी बढ़ गई हैं। अब शागिर्द और उस्ताद दोनों को कामकाज के सिलसिले में दूसरे शहरों में भी जाना पड़ रहा है। अब आपको हर जगह तो पहले जैसा उस्ताद नहीं मिल सकता। मेरा ख़ुद का भी अनुभव यही है। अब फ़ोन की सुविधा तो है, लेकिन आप फ़ोन पर कितनी बात कर सकते हैं और उस्ताद भी आपको फ़ोन पर कितना राय-मशविरा या इस्लाह दे सकता है। इसलिए ऐसे टूल की मदद से शायर अपना बेसिक तो सुधार सकता है। आगे का काम तो उस्ताद ही कर सकता है।
और असल बात यही है जिसे मैंने समझा है कि उस्ताद का काम केवल आपकी बह्र सुधारना या ग़ज़ल की तक़्तीअ करना नहीं है। वो आपको शायरी के आदाब सिखाता है। और शायरी के आदाब केवल शे'र की बह्र या क़ाफ़िया रदीफ़ का नाम नहीं है।
क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र दुरुस्त होने से ही कोई शे'र या ग़ज़ल नहीं हो जाती। ग़ज़ल के लिए क़ाफ़िया, बह्र ज़रूरी है लेकिन केवल क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र का नाम शायरी नहीं।
गुलशन मेरठी का एक शे'र है–
ज़िंदगी की ग़ज़ल अधूरी है
कोई अच्छा सा क़ाफ़िया लिखियो
इस पर एक उस्ताद ने टिप्पणी की कि क़ाफ़िया मिलाने से ग़ज़ल नहीं होती।
दाग़ देहलवी के ज़माने का एक किस्सा मशहूर है कि उनके साथ के तमाम उस्ताद शायर माथा पीटते रह गए कि सबकुछ दुरुस्त होने के बाद भी उनके शे'र दाग़ की तरह मक़बूल क्यों नहीं हैं।
इसलिए उस्तादों के लिए भी कहा जाता है कि उस्ताद, ख़ुद में भी अच्छा शायर हो ज़रूरी नहीं। शायरी और उसके व्याकरण की जानकारी होने और शायर होने में फ़र्क़ है।
इसलिए यह भी कहा जाता है कि नक़्क़ाद यानी आलोचक अक्सर ख़ुद अच्छा शे'र नहीं कह पाता, क्योंकि वह हर समय तराज़ू लेकर मिसरों का वज़्न ही मापता रह जाता है। अश’आर के ऐब ही गिनता रह जाता है। नुक़्ता निकालता रहता है और अच्छे भले शे'र या भाव का भी कई बार सत्यानाश कर देता है।
तभी कहा जाता है कि फ़न के साथ फ़िक्र (चिंतन) का भी होना ज़रूरी है। फ़न में माहिर होना ही सबकुछ नहीं है। इसी बात को अकबर इलाहाबादी ने यूं कहा था–
दर्द को दिल में जगह दो अकबर
इल्म से शायरी नहीं होती
असल बात यही है कि वास्तव में अच्छा उस्ताद (यहां ‘अच्छे’ पर ज़ोर है, जो बहुत मुश्किल से मिलता है) आपको सिर्फ़ शे'र कहने, लफ़्ज़ों को बरतने की तमीज़ ही नहीं सिखाता, वह ज़िंदगी को बरतना भी सिखाता है, आपको बेहतर इंसान बनाता है। आपके भीतर समय-समाज, इतिहास-भूगोल, वर्तमान-भविष्य को भी समझने की सलाहियत पैदा करता है। आपके भीतर के रचनाकार को जगाता है। तभी आपके कहन (लेखन) में असर पैदा होता है। इसलिए नये लोगों को ही नहीं उस्तादों को भी उस्तादों की ज़रूरत होती है। उस्तादों के उस्ताद ग़ालिब के भी उस्ताद रहे हैं।
फिर भी कहा जाए तो रेख़्ता का यह तक़्तीअ टूल बहुत काम है। हालांकि इसकी भी सीमाएं हैं। यह टूल यह तो बता सकता है कि आपका मिसरा छोटा है या बड़ा है लेकिन उसे कैसे सुधारना है वह यह नहीं बता सकता। यह काम आपको ख़ुद ही करना है। हालांकि अच्छा उस्ताद भी यही करता है वह भी ग़लतियों की तरफ़ इशारा भर करता है और उसे सुधारने की सलाह आपको ही देता है। वह आपको अपने ऊपर निर्भर नहीं बनाता। आपकी ग़ज़ल फाड़कर उसकी जगह अपने शे’र लिखकर नहींं देता। आपको ‘मोम की बैसाखियां’ नहीं पकड़ाता जो ज़रा सी धूप लगने पर पिघल जाएं। वह आपको ग़ज़ल की पाबंदी निबाहने की चुनौती ख़ुद देता है। मुश्किल बह्र ही नहीं मुश्किल विषयों को भी साधने की चुनौती देता है।
वह केवल आड़ी–तिरछी पंक्ति को सीधा करना ही नहीं सिखाता बल्कि कैसे बेहतर कहा जाए यह भी सिखाता है। केवल लफ़्ज़ की हेरफेर नहीं बल्कि कहां क्या बेहतर लफ़्ज़ रखा जाए और उससे क्या असर पैदा होगा यह भी बताता है।
उदाहरण के लिए ‘उमराव जान’ फ़िल्म का एक सीन याद आता है। जिसमें रेखा यानी उमराव जान उस्ताद के पास अपना शे'र इस्लाह के लिए लाती है–
उमराव कहती हैं–
दिल ही नहीं हुज़ूर मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए
अब यह शे'र क़ाफ़िया, रदीफ़, बह्र के ऐतबार से दुरुस्त है। लेकिन उस्ताद कहते हैं– शे'र कहते वक़्त अल्फ़ाज़ की बंदिश और ख़्याल की नज़ाकत दोनों का ध्यान रखना चाहिए और वो इस शे'र को कुछ यूं कहते हैं–
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए
अब देखिए कि शे'र कितना ख़ूबसूरत हो गया। ‘दिल ही नहीं हुज़ूर’ की जगह ‘दिल चीज़ क्या है’ कहने भर से शे'र कितना नाज़ुक, कितना ख़ूबसूरत हो गया कि क्या कहने!
इसी तरह विज्ञान व्रत का एक शे'र है
बस अपना ही ग़म देखा है
तूने कितना कम देखा है
सुना है कि पहले उन्होंने इसे कुछ इस तरह कहा था कि
तुमने अपना ग़म देखा है
तुमने कितना कम देखा है
यह भी बह्र के ऐतबार से बिल्कुल दुरस्त था लेकिन ‘तुमने अपना ग़म देखा है’ कि जगह ‘बस अपना ही ग़म देखा है’, कहने से शे'र का वज़्न बढ़ गया, असर बढ़ गया।
कहने का मतलब यह है कि केवल बह्र दुरस्त होने भर से कोई शे'र, शे'र नहीं हो जाता। उसमें मा’नी नहीं पैदा हो जाते।
और इसी मा’नी या मायने पैदा करने की सलाह उस्ताद ही दे सकता है।
बह्र दुरुस्त करने के लिए हम कई बार मोहमल लफ़्ज़ यानी जिसका कोई अर्थ न हो, या का.., कि… का बेवजह प्रयोग कर लेते हैं। यानी जगह भर लेते हैं। तब उस्ताद ही बताता है कि इन शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं है। या कई बार हम हिंदी के हिसाब से मात्राओं का जोड़-घटाव करते रहते हैं। लेकिन पता चलता है कि मात्राएं बराबर होने पर भी बह्र दुरुस्त नहीं हो जाती। कई बार भर्ती के यानी गैरज़रूरी शे’र भी होते हैं, उस्ताद उनकी छंटनी कर देता है।
हालांकि तकनीक का जिस तरह विकास हो रहा है और अब जिस तरह एआई (AI) यानी आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस गया है, कल हो सकता है कि AI आपको मिसरा छोटा या बड़ा हो गया है के साथ उस्ताद की तरह उसे कैसे ठीक किया जाए और कौन से अल्फ़ाज़ बेहतर हो सकते हैं की भी सलाह देने लगे। आपके बे-बह्र शे’र को बह्र में करते हुए तीन-तीन सुझाव या विकल्प भी देने लगे कि इसे ऐसे किया जा सकता है।
लेकिन मेरे ख़्याल से तब भी उस्ताद की ज़रूरत या महत्व बना रहेगा क्योंकि AI कितना भी डेवलप हो जाए और आपको कितनी भी सलाह देने लगे, मीर या ग़ालिब की तरह लिखकर देने लगे (वैसे लिखकर भी देने लगा है। हर स्टाइल कॉपी कर लेता है। हालांकि यह लेखन अभी बचकाना लगता है, मगर कल इसमें और भी सुधार हो सकता है) मगर फिर भी मैं समझता हूं कि उसकी एक सीमा, एक लिमिट होगी क्योंकि AI में जितना भी इंटेलिजेंस होगा वह पिछले ज़मानों का ही होगा यानी उसका दिमाग़, उसकी अक़्ल, उसकी सोचने की क्षमता अब तक उपलब्ध ज्ञान यानी उसमें फीड की गई जानकारी के आधार पर ही होगी। तब भी अदब में या ग़ज़ल में नई ज़मीन कैसे तोड़ी जाए, नए ख़्वाबों को कैसे सजाया जाए, नए ख़्यालों को कैसा बांधा जाए उसमें तो हमारी मदद हमारे अलावा हमारे उस्ताद ही कर सकते हैं।
और यही नहीं हर नई तकनीक, टैक्नोलॉजी नई आसानियों और सुविधाओं के साथ नई चुनौतियां, नए ख़तरे भी लाती है। नए बिगाड़ भी पैदा करती है तो उसका भी कैसे सामना किया जाएगा, इसे भी हमें ख़ुद ही सीखना होगा, और इसमें भी हमारे उस्ताद ही हमारे काम आएंगे। हालांकि उस्तादों को भी अब नई चीज़ें सीखनी-समझनी होंगी, नई चुनौतियों के लिए तैयार होना होगा। और इसमें उनके उस्ताद नहीं, शागिर्द काम आएंगे।
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