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सिल्क्यारा का सबक़: सुरक्षा मानकों को नज़रअंदाज़ कर मज़दूरों के जीवन से खिलवाड़?

दिल्ली के JNU में आयोजित एक पब्लिक मीटिंग में इंद्रेश मैखुरी ने सिल्क्यारा घटना को लेकर सुरक्षा के मानकों, लापरवाही, जवाबदेही, पर्यावरण को हो रहे ख़तरे समेत कई मुद्दों पर अपनी बात रखी।
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फाइल फ़ोटो। PTI

उत्तराखंड में सिल्क्यारा-बड़कोट टनल में फंसे 41 मज़दूरों को बचाने के लिए चलाया गया बचाव अभियान यकीनन देश के बड़े बचाव अभियान में से एक रहा। कहते हैं हर ग़लती से कुछ सीखने को मिलता है तो क्या सिल्क्यारा में हुई ग़लती से भी कुछ सीखने को मिला?

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इसी पर एक पब्लिक मीटिंग का आयोजन किया गया था जिसमें हिस्सा लेने के लिए उत्तराखंड से CPIML, उत्तराखंड के स्टेट सेक्रेटरी इंद्रेश मैखुरी और 'जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति' के संयोजक अतुल सती पहुंचे। दोनों ने इस हादसे के बाद उठे कुछ सवालों पर ध्यान खींचा साथ ही पहाड़ों को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की। 

इंद्रेश मैखुरी ने इस पब्लिक मीटिंग में इस परियोजना, सुरक्षा के मानकों, लापरवाही, पर्यावरण पर ख़तरे समेत कई मुद्दों को लेकर अपनी बात रखी।

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"जिसको कहा गया चारधाम प्रोजेक्ट, ये कोई नई सड़क नहीं बन रही है"

इंद्रेश मैखुरी कहते हैं, "आजकल एक सुरंग चर्चा में है, उस सुरंग में 17 दिन तक 41 मज़दूर फंसे रहे और अब 17 दिन के बाद बाहर निकल पाए। उस सुरंग के हवाले से कुछ बातें मैं कहता हूं और आपदा प्रबंधन के सवाल पर भी, सिल्क्यारा में वो सुरंग जिस सुरंग में 41 लोग फंसे, तो एक बात तो ये समझें कि ये जो सड़क जिसको चारधाम प्रोजेक्ट कहा गया, ये कोई नई सड़क नहीं बन रही है। पहाड़ों में पहली बार कोई सड़क बन रही है ऐसा नहीं है। तमाम चैनल में जाइए तो वे कहते हैं कि आख़िरकार सड़क तो चाहिए, लेकिन सड़क तो यहां 1960-62 से है!”

"जिसे बताया गया 'ऑल वेदर रोड' वो दरअसल 'ऑल वेदर स्लाइड रोड' है"

"2017 में जब विधानसभा चुनाव होना था उससे पहले दिसंबर 2016 में मोदी जी देहरादून गए और एक रैली में उन्होंने घोषणा की  कि ऑल वेदर रोड बनेगीहमारी समझ में नहीं आया कि ये ऑल वेदर रोड क्या होती है, ये क्या बात है? लेकिन आज की तारीख में वो ऑल वेदर रोड, ऑल वेदर स्लाइडिंग रोड है, हर वेदर में स्लाइड करती है, उसमें बारिश की ज़रूरत नहीं है, बहुत तेज़ बारिश हो तब सड़क स्लाइड करेगी ऐसा नहीं है, अभी इसी नवंबर में ठीक एक महीना पहले अचानक चटक धूप, खुला मौसम और सड़क बंद हो गई और दो दिन तक सड़क बंद रही तो जिसको कहा गया 'ऑल वेदर रोड' वो दरअसल 'ऑल वेदर स्लाइड रोड है, असल में ये कोई नई सड़क नहीं बन रही थी ये रोड को चौड़ा करने की परियोजना है।"

"शुरू में कहा गया कि ये प्रोजेक्ट रोड कनेक्टिविटी के लिए है। कनेक्टिविटी बेहतर हो इसलिए सड़क को चौड़ा कर रहे हैं बाद में डिफेंस का एंगल ले आए। ऐसे में सड़क चौड़ा करने की परियोजना को पहले 'ऑल वेदर रोड' कहा गया और फिर न जाने कब उसे चार धाम प्रोजेक्ट कहा जाने लगा और घोषणा हुई कि 889 किलोमीटर सड़क चौड़ी होगी फिर होते-होते 825 किलोमीटर रह गई यानी 2016 में जब मोदी जी ने घोषणा की थी तो वो सड़क 889 किलोमीटर थी और जब सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में फैसला किया तब वो 825 किलोमीटर ही थी, ऐसे में 64 किलोमीटर सड़क बीच में कहां गायब हो गई पता नहीं चला। उसी सड़क का एक पार्ट ये सड़क है, ये चार किलोमीटर की सुरंग है। देहरादून से करीब पांच घंटे की दूरी पर उत्तरकाशी जिला है। वहां एक छोटी-सी जगह है सिल्क्यारा, जहां एक पहाड़ को काटकर सुरंग बनाई जा रही है। बताया गया कि बड़कोट और उसके बीच की दूरी 25 किलोमीटर कम होगी। इसलिए साढ़े चार किलोमीटर की सुरंग बन रही थी।"

इंद्रेश मैखुरी ने कंपनी पर उठाए सवाल

इंद्रेश मैखुरी ने गंभीर आरोप लगाते हुए कहा, "उस सुरंग के अंदर दिवाली के दिन 12 नवंबर को सुरंग दरक गई, तो जो मज़दूर उसके अंदर फंसे हुए थे वे 12 नवंबर को उसके अंदर नहीं गए, बल्कि ये 11 नवंबर को उसके अंदर गए नाइट ड्यूटी वाले लोग थे जिन्हें 12 नवंबर को बाहर निकलना था। लेकिन सुरंग दरक गई और वो अंदर ही फंस गए और कई दिन तक फंसे रहे जिसे सभी ने देखा। ज़िक्र किया गया नवयुग कंपनी का, वो कंपनी कौन है? सुबह साढ़े पांच बजे लोग सुरंग में फंस गए और साढ़े आठ बजे बताना शुरू किया कि सुरंग के भीतर हमारे लोग फंस गए हैं, उससे पहले तक डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन को भी नहीं बताया, ऐसा क्यों?”

"ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन का काम नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड के पास"

मैखुरी कहते हैं, "वो जो नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड है, वो कंपनी महाराष्ट्र में भी समृद्धी एक्सप्रेस फेज़ थर्ड बना रही है, अगस्त के महीने में उनकी एक क्रेन गिरी जिसके नीचे 20 लोग दबकर मर गए जिसमें 2 साइट इंजीनियर भी थे। प्रधानमंत्री राहत कोष से मरने वालों को पैसा भी मिला और उस नवयुग कंपनी के ख़िलाफ़ 304 का मुकदमा भी दर्ज हुआ। उस कंपनी की परियोजना में इतने लोगों की मौत हुई सबको पता था, वही कंपनी सुरंग बना रही है, और वही कंपनी रेलवे की सुरंग भी - 1400 करोड़ का प्रोजेक्ट - बना रही है। हमारे यहां ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन बन रही है उसमें 2700 करोड़ का काम नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड के पास है। हमने कहा कि इस कंपनी के सारे ठेके रद्द होने चाहिए लेकिन उन्होंने हमारी नहीं सुनी गई। दिलचस्प बात देखिए कि अखबार में खबर छपी है कि पिछले पांच साल में यही सुरंग 20 बार गिरी, 20 से ज़्यादा बार।"

"एस्केप रूट क्यों नहीं बनाया गया?”

बच के निकलने वाले रास्ते (एस्केप रूट) का ज़िक्र करते हुए मैखुरी कहते हैं, “2018 में जब ये सुरंग बनाने का फैसला हुआ तो मोदी जी की अध्यक्षता में भारत सरकार के कैबिनेट के इकोनॉमिक्स अफेयर्स कमेटी की मीटिंग हुई और उस मीटिंग में तय हुआ कि उस टनल के भीतर एक एस्केप रूट होगा, हादसों के वक़्त बच के निकलने का रास्ता होगा आज के दिन पर सब बता रहे हैं कि बचने का कोई रास्ता नहीं था।"

"जैसा की मैंने कहा, घोषणा हुई कि ये 890 किलोमीटर का प्रोजेक्ट है लेकिन ये 'एक' प्रोजेक्ट नहीं है, ये 100 किलोमीटर से कम के 53 पैकेज हैं। और ऐसा इसलिए है क्योंकि 890 किलोमीटर का एक प्रोजेक्ट होगा तो उसके लिए Environment Impact Assessment (पर्यावरण प्रभाव आकलन) करवाना होता है। आकलन न कराना पड़े इसलिए 890 किलोमीटर लंबे प्रोजेक्ट को 100 किलोमीटर से कम के 53 छोटे पैकेज में तोड़ा गया। प्रोजेक्ट किसका है भारत सरकार का, EIA का कानून किसका है भारत सरकार का, EIA से बचने का रास्ता कौन निकाल रहा है तो भारत सरकार।"

हमने इंद्रेश मैखुरी से कुछ सवाल भी किए।

सवाल: सिल्क्यारा से मज़दूर तो निकल आए लेकिन सबक़ क्या है?

जवाब: सबक़ तो ये है कि जो इस तरह के प्रोजेक्ट हैं और प्रोजेक्ट्स का ये जो मॉडल है, ये असल में विनाशकारी है। ये पूरे पहाड़ के पर्यावरण को, प्रकृति को, पारिस्थितिकी को नष्ट करने वाला है इसलिए इसको बदलने की ज़रूरत है। दूसरा- आपदाओं को लेकर ख़ासकर आपदा संभावित इलाक़ों में कोई तैयारी अभी तक तो दिखाई नहीं दे रही, भूकंप भी आएगा, बाढ़ भी आएगी, भूस्खलन भी होगा, ऐसे में इसे लेकर ज़्यादा तैयार रहने की ज़रूरत है। जैसा मैंने कहा कि जो डेवलपमेंट मॉडल है वो डिजास्टर क्रिएटर मॉडल है। इससे जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक लोग इसी तरह से ख़तरे में रहेंगे, लोगों का जीवन ख़तरे में रहेगा, पूरा पहाड़, हिमालय जो बहुत ही नाजुक हैं वो भी ख़तरे में रहेगा।

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सवाल: जवाबदेही किसकी बनती है?

जवाब: अभी जिस तरह से सिल्क्यारा की टनल में लोग फंसे, शुरुआती तौर पर आप देखें तो सबसे पहले सुरंग बनाने वाली कंपनी ने वहां की सारी ज्योलॉजिकल रिपोर्ट्स को अनदेखा किया, इंजीनियरिंग रिपोर्ट को अनदेखा किया, एस्केप रूट बनाना था नहीं बनाया, एक्सपर्ट्स ने कहा कि रॉक ख़राब है, उसने उसे नहीं माना...ऐसे में एक ज़िम्मेदारी उसकी भी है। लेकिन एक ज़िम्मेदारी तो उससे बड़ी कंपनी की भी है - NHIDCL (National Highways and Infrastructure Development Corporation Ltd) जो पूरे चारधाम प्रोजेक्ट की बड़ी ठेकेदार कंपनी है। ज़िम्मेदारी नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया की भी है।"

"भारत सरकार में शुरू में कहा कि 890 किलोमीटर की सड़क बनाएंगे, लेकिन उस सड़क का एनवायरमेंट इंपैक्ट का असेसमेंट नहीं कराना पड़े इसलिए इसे 100 किलोमीटर से कम के 53 छोटे-छोटे पैकेजस में तोड़ा गया। ये फैसला तो भारत सरकार ने किया, आख़िर वे एनवायरमेंटल इंपैक्ट जैसी औपचारिक प्रक्रिया को भी क्यों नहीं पूरा करना चाहते थे? तो एक तरह से इन सबकी ज़िम्मेदारी है।"

सवाल: क्या चुनाव में उत्तराखंड के लोग जब वोट देने जाएंगे तो उनके दिमाग में ये बातें होंगी?

जवाब: ये रहना चाहिए लोगों के दिमाग में, अगर लोग याद नहीं रखेंगे इस तरह से हम तबाह हुए थे, इस तरह से हमें तबाह करने की योजना विकास के नाम पर बनाई जा रही है तो फिर उनकी तबाही को कोई नहीं बचा सकता।

सवाल: क्या आपको नहीं लगता कि उत्तराखंड ही नहीं पूरे हिमालय रेंज की स्थिति एक मुद्दा बननी चाहिए?

जवाब: आज के दिन ये समय आ गया है कि पूरे हिमालय में मौसम बदलाव के असर दिखाई दे रहे हैं, फ्लैश फ्लड आ-जा रहे हैं, क्लाउड बस्ट की घटनाएं बहुत बडे़ पैमाने पर हो रही हैं, बादल फटने की घटनाओं का स्केल बहुत बढ़ गया है तो मौसम में जो बदलाव है उस बदलाव का असर बहुत साफ दिखाई दे रहा है। अगर इस वक़्त हम सचेत नहीं हुए तो एक तरह से पूरे हिमालय का अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाएगा और उसका असर हिमालय के साथ-साथ पूरे देश में भी पड़ेगा।

सवाल: सुरंग का मामला हुआ तो आप लोग यहां आए लेकिन आपको नहीं लगता इस तरह की चिंता बड़े पैमाने पर होनी चाहिए। दूसरा ये कि मज़दूर ही हमेशा शिकार हो रहे हैं, ध्यान तभी जाता है जब उनकी जान पर बन जाती है। आप क्या कहेंगे?

जवाब: हम लोगों की कोशिश रही है कि इस बात को हम जितने लोगों तक जितनी तरह से पहुंचा सकते हैं, उसमें छोटी-छोटी मीटिंग से लेकर बड़ी गोष्ठियां उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में और देश के भी विभिन्न हिस्सों में हो, हमारी तो कोशिश है कि हमारी बात देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचे और लोग इस बात की गंभीरता को समझें कि ये सिर्फ एक इलाके का सवाल नहीं है पूरे देश के लिए सवाल है तो हम चाहतें हैं कि ये बात हर जगह पहुंचे इसलिए जितने मीडियम हो सकते हैं, जितने तरीके हो सकते हैं उतने तरीके से हम कोशिश करते हैं कि इसको पहुंचाया जाए।"

"दूसरी बात है कि इन सारे प्रोजेक्ट में मज़दूर जो रिसीविंग एंड पर है वो इस क़दर बुरी अवस्था का शिकार है कि उसे इस तरह की परियोजना में काम करने जाना पड़ता है। अपने राज्यों में रोज़गार नहीं है इसलिए दूसरे राज्यों में जाता है और ये जो कंपनियां हैं, जो ऐसा प्रोजेक्ट चलाती हैं, वे ये सुनिश्चित और कोशिश करती हैं कि कम से कम लोकल आदमी हों और बाहर के मज़दूर ज़्यादा हों, ऐसा इसलिए क्योंकि लोकल आदमी के साथ लोकल सहानुभूति ज़्यादा जल्दी खड़ी होती है और बाहर का मज़दूर होगा तो इतनी सहानुभूति नहीं होगी।  अभी तो सोशल मीडिया है, थोड़ी चर्चा बनती है तो एक दबाव बनता है वर्ना इससे पहले के दौर में तो बिहार, झारखंड के मज़दूर सुरंग में दम तोड़ देते थे और उस पर ज़्यादा चर्चा नहीं होती थी। इसलिए कंपनियां ये सुनिश्चित करती हैं कि जानबूझकर दूसरे प्रदेश का मज़दूर रहे ताकी उसके पीछे लोकल सहानुभूति कम से कम हो। ऐसे में वो मज़दूर जो पूरे देश में निर्माण कर रहा है उसके जीवन का निर्माण कैसे हो ये बड़ा अहम सवाल है।"

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