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स्मृति शेष: जन रचनाकार मैनेजर पांडेय का निधन, भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन को अपूरणीय क्षति!

यकीनन वे सत्ता-शासन की “लूट-झूठ की राजनीति-संस्कृति”  के खिलाफ एक मुखर शिक्षाविद-साहित्यकार और वैचारिक-सांस्कृतिक संगठक रहे।  
Manager Pandey

अक्सर हां, मेरा निवेदन है कि...  के विनम्र संबोधन से अपनी धारदार और विषयवस्तु की पूरी बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात रखने वाले प्रोफेसर  मैनेजर पांडेय जी की वो खनकती हुई आवाज़ दैहिक रूप से सदा के लिए ख़ामोश हो गयी है।            

6 नवम्बर की सुबह 8 बजे (लगभग) दिल्ली स्थित निवास पर बीमारी से जूझते हुए उन्होंने 81 वर्ष की उम्र में ज़िन्दगी की आखिरी सांस ली। देश के व्यापक साहित्य जगत में लोग इससे इस क़दर मर्माहत हैं कि उनकी मौत की खबर आते ही अख़बारों और सोशल मीडिया में शोक संदेशों से लेकर जगह-जगह शोक-सभा कार्यक्रमों का तांता सा लग गया है। कुछेक प्रमुख अख़बारों ने उनपर केन्द्रित विशेष पन्ना प्रकाशित करते हुए कई जाने माने लेखक-कवियों के स्मृति-संस्मरण प्रसारित किये हैं।                                                                               

पटना में प्रकाशित दैनिक अखबार द्वारा मैनेजर पांडेय ‘स्मृति-शेष’ में ख्यात कवि आलोकधन्वा ने लिखा है, “मैनेजर पांडेय ने पूरी शिद्दत के साथ रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह की विरासत को आगे बढ़ाया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि वे बड़े देशभक्त थे और उनका एक एक शब्द भारतीयता को मजबूत करता है। वे आम जन के लेखक रहे और कभी अपनी माटी से कटे नहीं। इसलिए उनका स्पष्ट मानना था कि भाषा आम लोगों के लिए किये गए संघर्ष और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने से मजबूत होती है।”   

वरिष्ठ प्रगतिशील कवि अरुण कमल ने लिखा है कि उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्र का निर्माण किया और परिवर्तनकामी शक्तियों के समर्थक रहे।  इसलिए वे आजीवन परिवर्तनकारी मूल्य रखने वाले लेखकों को संगठित करते थे।  मौजूदा मार्क्सवाद के सिद्धान्तकारों में वे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। उनके निधन के साथ कहीं न कहीं जेएनयू की साहित्यिक हस्तियों के एक युग का अंत सा हो गया है।  उनके निधन से भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन को अपूरणीय क्षति हुई पहुंची है।

भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अपनी शोक संवेदना में ‘जब तक आप स्थानीय नहीं होंगे आप वैश्विक नहीं हो सकते... का उद्धरण देते हुए लिखा है कि, “अलविदा, कॉमरेड आपकी विरासत स्वतंत्रता, सामाजिक परिवर्तन और मानव मुक्ति के लिए जारी लड़ाई में जीवित रहेगी।”

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने अपने शोक सन्देश में कहा है कि बिहार में जन्मे प्रो.  मैनेजर पांडेय के निधन से साहित्यिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में अपूरणीय क्षति हुई है।  

सोशल मीडिया में तो मैनेजर पांडेय जी से जुड़े स्मृति-संस्मरणों की भरमार सी लगी हुई है, जिनमें सबसे अधिक जेएनयू में उनके छात्र रहे लोगों व सभी उम्र के रचनाकारों और सांस्कृतिक ऐक्टिविस्टों की बातें लगातार आ रही हैं।

जेएनयू में मैनेजर पांडेय जी के प्रिय व वहाँ के छात्र संघ के महासचिव रहे वर्तमान आईसा राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा बिहार के पालीगंज से भाकपा माले विधायक संदीप सौरभ ने लिखा है कि, “जसम के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और जेएनयू में हमारे शिक्षक रहे और जेएनयू से रिटायरमेंट के बाद भी वे वहां छात्रों के अकादमिक और राजनितिक कार्यक्रमों में वक्ता के रूप में लगातार आते रहे।  गंभीर विषयों पर भी वो हमें हंसाने का मौका निकाल लेते थे।  जेएनयू के भाषा केंद्र में उनसे जुड़े और उनके द्वारा सुनाये गए चुटकुले आज भी सुनाये जाते हैं।  साहित्य हो या राजनीति, वे बिना किसी लाग लपेट के “अनभे साँचा” के हिमायती रहे।  

एक सांस्कृतिक एक्टिविस्ट के रूप में सन 1982 में जब दिल्ली में आयोजित होनेवाले इंडियन पीपल्स फ्रंट के स्थापना सम्मलेन हेतु सांस्कृतिक प्रचार मंडली में मेरा जाना हुआ था। तो गोरख पांडेय (जेएनयू में जिनके यहाँ मैं ठहरा था) और उनका आकर मुझसे मिलकर मेरी हौसला अफजाई करना, ताउम्र का यादगार लम्हा बन गया। जो यह दर्शाता है कि आज भी यदि वे युवा साहित्यकारों के साथ-साथ एक्टिविस्टों के बेहद अपने और प्रिय रहे तो इसके मूल में उनकी एक आन्दोलनकारी बुद्धिजीवी का ज़ज्बा होना रहा।  उन्होंने मार्क्सवाद को सिर्फ ‘शब्द’ में पढ़ा या पढ़ाया नहीं बल्कि यथासंभव उसके अनुरूप ‘कर्म’ में भी सक्रियता रखी। 

उक्त चर्चा का एक समकालीन सन्दर्भ विशेष यह है कि 1985 में जन संस्कृति मंच निर्माण के मुख्य संस्थापकों में रहने से पूर्व में देश की राजनीति और साहित्य-संस्कृति में चर्चित रहे 80 दशक के दौर में गोरख पांडेय के साथ मिलकर ‘नव जनवादी सांस्कृतिक संगठन’ की स्थापना की थी।  जिसके जरिये ‘वसंत वज्रनाद की सांस्कृतिक अनुगूँज’ को विस्तार देने में भी वे निरंतर सक्रिय रहे।  उन दिनों ‘नवजनवाद’ को माननेवाले हर साहित्यकार-बुद्धिजीवी पर सीआईडी और ख़ुफ़िया विभाग की पैनी नज़र रहती थी।  मैनेजर पांडेय ने इसकी परवाह किये बगैर देश में व्यवस्था परिवर्तनकामी सांस्कृतिक आंदोलन को खड़ा करने में सतत सक्रिय बने रहे।  

प्रो।  मैनेजर पाण्डेय जेएनयू भारतीय भाषा केंद्र के प्राध्यापक और फिर उसके अध्यक्ष रहते हुए कई वर्षों तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रिय अध्यक्ष रहे।  जिन्होंने बिहार स्थित गोपालगंज जिला के छोटे से गाँव ‘लोहती’ से निकलकर जेएनयू जैसे उच्च शिक्षा संस्थान का सफ़र बेहद विपरीत स्थितियों और नाना संकटों से जूझते हुए कैसे तय किया, इसे जानना और समझना बेहद प्रेरक साबित होगा।  कि किस प्रकार से उन्होंने अकादमिक और हिंदी साहित्य जगत में आम जन व उसके परिवर्तनकामी संघर्षों की महत्ता को स्थापित करने के लिए साहित्य के रचना-विचार के क्षेत्र में देश की प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की विरासत और परम्परा को आगे बढ़ाया।  जिसके खुद सतत सक्रिय रहते हुए कई पीढ़ी के लेखकों-सांस्कृतिक ऐक्टिविस्टों के मार्गदर्शक और प्रेरणा बने रहे।  अकादमिक-शैक्षिक कार्यों को पूरी बहुमुखी रचनात्मक कौशल के साथ पूरा करते हुए ‘शोषणमुक्त राज-समाज’ के निर्माण के लिए भी  अपनी पूरी बौद्धिक प्रतिभा और क्षमता लगा देनेवाले जन रचनाकार का दायित्व बखूबी निभाया।  

कई नामचीन और विषद साहित्यकारों के अनुसार मैनेजर पांडेय साहित्य जगत में आलोचना विधा को समाज परिवर्तन का औज़ार बनाने और साहित्य को समाज की कसौटी पर कसे जाने के मुखर पैरोकार रहे।  जिसके लिए साहित्य और आलोचना की सामाजिकता में ‘वर्ग संघर्ष’ की दृष्टि को सबसे मजबूती के साथ स्थापित करते हुए आलोचना विधा को नया विस्तार देने वाले अहम प्रवर्तक रहे।  

भक्तिकालीन साहित्य-कविता, प्रगतिशील आंदोलन, साहित्य के समाजशास्त्र, मार्क्सवादी आलोचना की सैद्धांतिकी व उपन्यास की सैद्धांतिकी आदि के सृजन संसार को अपने विविध लेखन से एक नयी धार दी।  अपने विचार सम्प्रेषण में बेहद सहजता और विनम्रता से अपने वक्तव्यों में तर्कपूर्ण चुटकी की भाषा बोलने के लिए काफी विख्यात रहे।   

माना जाता है कि पूरे साहित्य जगत में नामवर सिंह जी की पीढ़ी के बाद वे सबसे समर्थ आलोचक रहे जिन्होंने मार्क्सवाद से संपृक्त विचार दृष्टि से हिंदी साहित्य की सैद्धांतिकी और व्यावहारिक आलोचना को एक नयी धार और मजबूती देते हुए उसे लोकप्रिय बनाया।  इतना ही नहीं हिंदी आलोचना में दलित, आदिवासी, स्त्री विमर्श को जब संदेह की दृष्टि से देखा जाता था, उस समय उन्होंने उसे मान्यता प्रदान की। आलोचना को उन्होंने सभ्यता समीक्षा का माध्यम बनाया। उत्तर आधुनिकता के प्रबल विरोधी रहे। किसान चेतना प्रारंभ से ही उनकी व्यावहारिक आलोचना के केंद्र में रही। प्रेमचंद उनके सर्वाधिक प्रिय लेखक थे। नागार्जुन पर लिखे गए उनके तीन चार लेख हिंदी कविता में नागार्जुन का सबसे बेहतर मूल्यांकन है। मुक्तिबोध की आलोचना, महादेवी वर्मा के गद्य और नवजागरण के संदर्भ में माधवराव सप्रे का किया गया मूल्यांकन अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है। नवें दशक के बाद हो रहे सामाजिक सांस्कृतिक बदलावों पर उनकी कड़ी नजर थी। लूट और झूठ की संस्कृति को वे हमेशा बेनकाब करते रहे।  

निस्संदेह मैनेजर पांडेय पर काफी कुछ लिखा-पढ़ा और उन्हें विश्लेषित किया जाएगा लेकिन इन सबके बावजूद साहित्य में प्रतिरोध के उभरते नए स्वरों को रचनात्मक प्रोत्साहन करने वाले उनके जैसे विरले ही हैं। जिन्होंने साहित्य की दुनिया के बाहर समाज व जनजीवन में एक सचेत व रचनाशील बुद्धिजीवी के रूप में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने में भी कमी नहीं आने दी।  इसे इसी से जाना-समझा जा सकता है कि पिछले दिनों जब कोरोना-कहर से पूरा देश आक्रांत और असहाय बना हुआ था तो सत्ता-शासन की हत्यारी भूमिका को लेकर तीखा विरोध किया।  युवा पत्रकार पुष्पराज शास्त्री को दिए साक्षात्कार में साफ़ कहा था कि, “देश के प्रधान मंत्री द्वारा घोषित और जबरन थोपे गए कर्फ्यू- लॉकडाउन को “सरकारी कर्फ्यू” कहा जाना चाहिए।  विपदा के मारे पलायन कर रहे मजदूरों की मौत पर जिन्हें तरस नहीं आती, वे हाथी कि मौत पर छाती पीटते हैं।” 

यकीनन वे सत्ता-शासन की “लूट-झूठ की राजनीति-संस्कृति”  के खिलाफ एक मुखर शिक्षाविद-साहित्यकार और वैचारिक-सांस्कृतिक संगठक रहे।  उनका निधन ‘एक जीवंत उपस्थित’ का जाना है।

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