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चमोली के सुमना में हिम-स्खलन से 10 की मौत, रेस्क्यू जारी, जलवायु परिवर्तन का असर है असमय बर्फ़बारी

डॉक्टर डोभाल कहते हैं कि यह बर्फ़बारी असमय और भारी हो रही है। तीन दिन पहले केदारनाथ में तीन फ़ीट तक बर्फ़ गिरी थी। सुमना में दो दिन से बर्फ़ गिर रही थी। पहाड़ अभी पूरी तरह नंगे थे यानी कि उन पर पुरानी बर्फ़बारी का कवर नहीं है।
चमोली के सुमना क्षेत्र के ग्लेशियर से शुक्रवार शाम हुआ हिम-स्खलन। फोटो साभार: Indian Army
चमोली के सुमना क्षेत्र के ग्लेशियर से शुक्रवार शाम हुआ हिम-स्खलन। फोटो साभार: Indian Army

उत्तराखंड में करीब डेढ़ महीने बाद एक बार फिर बर्फ़ कातिल बनकर सामने आई है। चमोली के सुमना क्षेत्र में हुए एक हिमस्खलन में 10 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है। जबकि 7 लोगों को रेस्क्यू कर आर्मी हॉस्पिटल जोशीमठ लाया गया है। 30 से अधिक लोग लापता हैं। शुक्रवार शाम करीब चार बजे हुए हिमस्खलन की चपेट में सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) के दो कैंप आए। बीआरओ के अनुसार संगठन के 384 कर्मचारियों को सुरक्षित निकाल लिया गया है और सेना का राहत-बचाव अभियान जारी है। देर रात से ही स्थानीय मीडिया में ग्लेशियर टूटने की खबरें थीं लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार यह हिमस्खलन है और जिस क्षेत्र में यह हुआ है वहां भारी बर्फ़बारी के बाद यह असामान्य घटना भी नहीं है।

उत्तराखंड पुलिस के अनुसार जोशीमठ सेक्टर के सुमना क्षेत्र 23 अप्रैल की शाम हिमस्खलन की चपेट में दो बीआरओ कैंप आए, जिनमें 430 लोग मौजूद थे। इनमें से 384 को निकाल लिया गया है, जिनमें 6 गंभीर रूप से घायल भी हैं। समाचार लिखे जाने तक 10 शव बरामद कर लिए गए थे और बाकी लोगों की तलाश की जा रही थी।

भारतीय सेना की सेंट्रल कमांड के अनुसार सुमना में राहत और बचाव कार्य तेज़ी से चल रहे हैं। बचाव कार्य में चार हैलिकॉप्टर और एक एवलॉंच रेस्क्यू डॉग भी लगाया गया है। 23 तारीख को राहत और बचाव का ऑपरेशन रात को डेढ़ बजे तक चलाया गया था।

शनिवार शाम 6 बजे तक 10 शव बरामद किए गए, 7 घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया, लापता श्रमिकों की तलाश जारी है। फोटो साभार : Indian Army

मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने शनिवार सुबह घटनास्थल का हवाई सर्वेक्षण किया और स्थानीय प्रशासन को सभी ज़रूरी कदम उठाने के निर्देश दिए। हवाई सर्वेक्षण और सेना के अधिकारियों से जानकारी लेने के बाद मुख्यमंत्री ने कहा कि मौके पर सेना, आईटीबीपी की टीमें राहत बचाव कार्य में जुटी हैं। एसडीआरएफ वहां पर आगे बढ़ी है और एनडीआरएफ की कुछ टीमें भी आगे बढ़ रही हैं। ज़िला प्रशासन भी शुक्रवार से ही पूरी मुस्तैदी से राहत-बचाव में जुटा है। गाजियाबाद में भी एनडीआरएफ की टीमें अलर्ट मोड पर हैं। उन्होंने कहा कि रेस्क्यू के लिए जिन भी संसाधनों की आवश्यकता होगी वह उपलब्ध कराए जाएंगे।

जिस स्थान पर यह घटना घटित हुई है वह जोशीमठ से 94 किलामीटर दूर है। आबादी से दूर इस क्षेत्र में संचार सुविधाएं भी कमज़ोर हैं। यहां बीआरओ सड़क निर्माण का काम कर रहा है। शुक्रवार को सीमा क्षेत्र में भारी हिमस्खलन हुआ।

असामान्य घटना नहीं

वाडिया हिमालयन भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉक्टर कलाचंद सैन कहते हैं कि यह कोई असामान्य घटना नहीं है। जब भी ज़्यादा बर्फ़बारी होती है तो ऐसा स्नो एवलॉन्च यानी हिम स्खलन होता है। यह हिम क्षेत्र हैं। यहां जब भी ज़्यादा बर्फ़बारी होती है और पहाड़ की उस बर्फ़ को धारण करने की क्षमता खत्म हो जाती है तो स्नो एवलॉन्च हो जाता है। हालांकि फ़रवरी में जो हुआ (ऋषिगंगा में ग्लेशियर टूटने की घटना) वह असामान्य था।

संवेदनशील क्षेत्र में था बीआरओ का कैंप, सड़क के निर्माण कार्य में लगे थे श्रमिक। फोटो साभार: Indian Army

क्या बीआरओ कैंप्स में हुए नुक़सान को टाला जा सकता था?

इस सवाल के जवाब में डॉक्टर सैन कहते हैं कि यह तो सभी कहेंगे कि वहां पर बीआरओ या किसी और के कैंप नहीं होने चाहिए थे। हालांकि कैंप कहां बनाने चाहिए, स्नो एवलॉन्च का कितना ख़तरा है यह तो विस्तृत अध्ययन के बाद ही पता चल सकता है।

कोरोना का असर

डॉक्टर सैन कहते हैं कि कोरोना का असर वाडिया संस्थान के काम पर भी पड़ा है। वह कहते हैं इस एवलॉन्च का अध्ययन करने के बारे में सोमवार को संस्थान खुलने के बाद ही कुछ तय हो पाएगा। अभी तो पूरे प्रदेश में लॉकडाउन (तीन दिन का) है।

डॉक्टर सैन बताते हैं कि ऋषिगंगा आपदा का अध्ययन करने वाले दल में शामिल एक ग्लेश्यरोलॉजिस्ट की शुक्रवार को ही कोरोना संक्रमण से मौत हो गई है। वह 50 साल से भी कम उम्र के थे। डॉक्टर सैन कहते हैं कि इससे न सिर्फ़ अध्ययन पर असर पड़ा है बल्कि हम सभी लोग भी डिस्टर्ब हो गए हैं। वह कहते हैं कि अगर स्थिति सामान्य रहती तो वह आज ही टीम को चमोली भेज देते लेकिन आज के हालात में यह भी संभव नहीं है।

जलवायु परिवर्तन का असर

वाडिया हिमालयन भूविज्ञान संस्थान (WIHG) में वरिष्ठ वैज्ञानिक रहे ग्लेश्यरोलॉजिस्ट डॉकटर डीपी डोभाल को यह जलवायु परिवर्तन का असर लगता है। वह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के असर की वजह से गर्मियां बढ़ रही हैं और सर्दियां सिकुड़ रही हैं। बर्फ़ अब उस समय नहीं गिर रही है जब उसे गिरना चाहिए था। अमूमन नवंबर, दिसंबर, जनवरी में जमकर बर्फ़बारी होती थी और फरवरी तक होती रहती थी। इस सर्दियों में दिसंबर में बेहद कम बर्फ़बारी हुई। जनवरी में बर्फ़ नहीं गिरी। फरवरी में भी बहुत थोड़ी बर्फ़ गिरी। अब यह बर्फ़ गिर रही है अप्रैल में।

डॉक्टर डोभाल कहते हैं कि यह बर्फ़बारी असमय और भारी हो रही है। तीन दिन पहले केदारनाथ में तीन फ़ीट तक बर्फ़ गिरी थी। यहां भी (सुमना में) दो दिन से बर्फ़ गिर रही थी। पहाड़ अभी पूरी तरह नंगे थे यानी कि उन पर पुरानी बर्फ़बारी का कवर नहीं है। जहां यह हिमस्खलन हुआ है, वह एक ढलान है। आजकल ज़मीन का तापमान भी बढ़ा हुआ है। ऐसे में दो दिन जो बर्फ़ गिरी उसे जमने का मौका ही नहीं मिला और वह हिमस्खलन के रूप में नीचे आ गिरी।

पहले रात को होते थे एवलॉन्च

डॉक्टर डोभाल कहते हैं कि हिमस्खलन (स्नो एवलॉन्च) के बारे में एक तथ्य यह है कि अगर 35 से 45 डिग्री के बीच वाली ढलान पर दो-तीन फ़ीट बर्फ़ गिर जाए तो यह ट्रिगर हो जाता है। फिर आजकल के तापमान में बदलाव भी इसकी वजह बनता है। और एक बार जब यह गिरना शुरू करता है तो फिर जितनी भी बर्फ़ गिरी होती है उसे पूरा खींचकर ले आता है।

डॉक्टर डोभाल के अनुसार इन पहाड़ों में एवलॉन्च तो हमेशा से आते हैं। लेकिन पहले क्या होता था कि सर्दियों में बर्फ़बारी हो जाती थी और मार्च-अप्रैल में जैसे ही गर्मी शुरू होती थी यह स्नो एवलॉन्च हो जाते थे। इनका समय भी तकरीबन निश्चित होता था। यह एवलॉन्च रात को दो बजे के बाद या तीन-चार बजे होते थे। अभी जो हुआ है वह तो हालिया गिरी बर्फ़ का एवलॉन्च था।

चमोली में फरवरी के महीने में ग्लेशियर टूटा था और अप्रैल में हिम-स्खलन। मौसम और समय के लिहाज से ये सामान्य घटनाएं नहीं हैं। आम लोग भी कह रहे हैं कि जनवरी जैसी बर्फ़बारी अप्रैल में हो रही है। अप्रैल जैसी गर्मी जनवरी में झेली। जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है। ये पर्यावरण संरक्षण के प्रयास में तेज़ी लाने के संकेत हैं।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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