कुछ अनछुए पहलू: 1947 का 14 अगस्त, सेंगोल कथा और उसका समाजशास्त्र
पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के ऊपर से दूसरे नंबर के नेता अमित शाह तमिलनाडु के दौरे पर थे। उन्होंने वेल्लौर के एक कार्यक्रम में कहा कि मोदी सरकार ने संसद के नवनिर्मित भवन में सेंगोल को स्थापित कर दिया है। इसलिए अब तमिलनाडु के लोगों का दायित्व बनता है कि वे प्रधानमंत्री मोदी को धन्यवाद ज्ञापन के तौर पर एनडीए के खाते में कम से कम 25 संसदीय सीटें जितायें। शायद गृह मंत्री और भाजपा के दिग्गज नेता के ‘बौद्धिक सलाहकारों’ ने उन्हें तमिलनाडु में सेंगोल की असलियत और राज-न्याय के महान प्रतीक सम्बन्धी उसकी कथित धारणा से अवगत नहीं कराया।
प्राचीन काल का चोलवंश एक ऐसा राजवंश था जो मन मिज़ाज और विचार से ब्राह्मणवादी मूल्यों को पसंद करता था। सेंगोल उसी मन-मिज़ाज और विचार से प्रेरित राज-न्याय के कथित प्रतीक का दंड है। आज के आधुनिक लोकतांत्रिक और संवैधानिक दौर में भी जो लोग प्राचीनकाल के वर्णाश्रमी और ब्राह्मणवादी मूल्यों में आस्था रखते हैं, उनके लिए सेंगोल का कुछ पुनरुत्थानवादी-आकर्षण हो सकता है पर तमिलनाडु जैसे द्रविड़-वैचारिकता की व्यापक स्वीकृति वाले समाज में इसके लिए जगह कहाँ है?
तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत के ज़्यादातर राज्य अलग-अलग ढंग और विचारों से प्रेरित समाज सुधार आंदोलनों से प्रभावित रहे हैं। संभवतः इसीलिए यहाँ की राजनीति में उत्तर के राज्यों की तरह पुराने ब्राह्मणवादी मान मूल्यों को लेकर ज़्यादा दिलचस्पी नहीं नज़र आती। समाज में भी ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा नहीं है। केरल का बड़ा हिस्सा श्रीनारायण गुरु और अय्यंकाली जैसे प्रगतिशील विचारों के संतों-समाज सुधारकों से प्रभावित रहा। कर्नाटक में लिंगायत संत बसवन्ना का प्रभाव रहा। आंध्र और तेलंगाना की आम जनता भी ऐतिहासिक रूप से ‘ब्राहमणवादी पुनरुत्थान’ की हिमायती नहीं दिखती।
ऐसे में चोलवंश के ‘ब्राह्मणवादी राज न्याय प्रतीक’ से लोगों के प्रभावित होने की बात सोचना RSS-BJP के नेताओं का ख़्याली पुलाव तो हो सकता है पर असलियत से यह बहुत दूर है। सेंगोल को संसद की नयी बिल्डिंग में स्थापित करने के लिए सरकार और सत्ताधारी दल ने जिस तरह से झूठ का प्रचार किया; वह किसी लोकतांत्रिक देश की निर्वाचित सरकार के लिए बेहद अफ़सोसनाक और शर्मनाक है। हम उस प्रकरण के अब तक उजागर हो चुके पहलुओं या सर्व-ज्ञात तथ्यों को यहाँ दुहराये बग़ैर कुछ अल्प-ज्ञात तथ्यों का उल्लेख करना चाहेंगे।
भारत में सत्ता के हस्तांतरण और स्वतंत्र भारत के एक राष्ट्र-राज्य के रूप में उदय की प्रक्रिया पर बहुत शोध परक काम करने वाले डॉमिनिक लॉपियर और लॉरी कॉलिन्स की बहुचर्चित किताब ‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’(1990) में सेंगोल प्रकरण पर दर्ज कुछ ठोस तथ्यों को यहाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा।
यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि ‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ के लेखक ने किताब के लिए शोध अध्ययन के क्रम में भारत के आख़िरी अंग्रेज गवर्नर जनरल यानी वायसराय लॉर्ड माउंटबैटन से भी मुलाक़ात की थी। समझा जाता है कि माउंटबैटन का भारत में सत्ता के हस्तांतरण के दौर के घटनाक्रम पर किसी लेखक को दिया वह संभवतः आख़िरी इंटरव्यू था। यह इंटरव्यू 1970 में किसी समय माउंटबैटन के दक्षिण इंग्लैंड के रेमसे नामक गाँव स्थित उनके भव्य बंगले में रिकॉर्ड किया गया था। (फ़्रीडम एट मिडनाइट, पृष्ठ xiv )। बहुत मेहनत और गहन शोध के बाद लेखकों ने यह किताब लिखी। इसलिए इसमें दर्ज तथ्यों को आरएसएस के अफ़वाहबाज पत्रकार, कोई चार्टर्ड एकाउंटेंट या संघी नेता-प्रचारक जैसे लोग चुनौती नहीं दे सकते!
इस किताब का एक अध्याय है—न्यू डेलही, 14 अगस्ट 1947। इस अध्याय में कथित सेंगोल के जवाहरलाल नेहरू को भेंट किये जाने के कार्यक्रम का काफ़ी दिलचस्प वर्णन है। इसमें कहीं भी लार्ड माउंटबैटन या किसी अन्य ब्रिटिश हुक्मरान का ज़िक्र नहीं है। पहली बात तो ये कि यह कत्तई शासकीय या सरकारी कार्यक्रम नहीं था। अगर बहुत संक्षेप में कहें तो पुस्तक बताती है कि 14 अगस्त, 1947 को यह कथित राजसी स्वर्णजटित दंड (छड़ी) नेहरू जी को दिल्ली स्थित उनके 17 यार्क रोड स्थित घर पर भेंट किया गया था। चूँकि वह प्रधानमंत्री के रूप में स्वतंत्र भारत की बागडोर सँभालने वाले थे इसलिए दक्षिण के तमिलनाडु से आये कथित सन्यासियों और ब्राह्मणों का एक समूह वहाँ से इसी दंड और अन्य धार्मिक सामग्री (भभूत, तंजावुर से लाया पवित्र जल और पीताम्बर आदि) नेहरू जी को भेंट करने दिल्ली आया था। निश्चय ही नेहरू जी के किसी करीबी ने इन कथित सन्यासियों और ब्राह्मणों को उनसे मिलकर यह सब भेंट करने का समय दिलवाया होगा।
‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ के उक्त अध्याय का एक संक्षिप्त अंश यहाँ पेश हैः ‘ये लोग उस भारत के प्रतिनिधि थे, जिसकी कर्मकांड और अंधविश्वास में आस्था थी और यह लोग उस व्यक्ति के दरवाज़े आये थे जो नये भारत में विज्ञान व समाजवाद का नुमाइंदा था। इन पुजारियों ने अपने कर्मकांड के अनुसार नेहरू को वह दंड उनके निवास पर भेंट किया। नेहरू ने, जिन्हें धर्म शब्द ने कभी प्रेरित नहीं किया रहा होगा; इस दंड (छड़ी) आदि को विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया। लेखक द्वय के शब्दों को यहाँ हू-ब-हू उद्धृत करना उचित होगाः
‘They sprinkled Jawahar Lal Nehru with holy water, smeared his forehead with sacred ash, laid their sceptre on his arms and draped him in the Cloth of God। To the man who never ceased to proclaim the horror the word ‘religion’ inspired in him, their rite was a tiresome manifestation of all he deplored in his nation। Yet he submitted to it with almost cheerful humility। It was as if that proud rationalist had instinctively understood that in the awesome tasks awaiting him no possible source of aid, not even the occult he so scornfully dismissed, was to be totally ignored।' (Page: 376-77)।
बहरहाल, कथित धर्मात्माओं या पुजारियों द्वारा भेंट किये उक्त स्वर्ण-जटित राजदंड की अनुकृति को नेहरू ने इलाहाबाद संग्रहालय को भेंट कर दिया था। आज़ादी के एक दिन पहले, 14 अगस्त के पूर्वान्ह में सेंगोल की बस इतनी ही कहानी मिलती है। लेकिन मई, 2023 के आख़िरी सप्ताह में मोदी सरकार, आरएसएस, भाजपा और देश के कथित मुख्यधारा मीडिया, ख़ासतौर पर टीवीपुरम् ने सेंगोल की कहानी को इस कदर उछाला मानो पिछले 75 सालों से दबे-छुपे इतिहास के किसी महान् अध्याय को खोज निकाला गया है!
सच तो ये है कि आज़ादी के 75 साल बाद सेंगोल जैसे एक ‘राजवंशीय-ब्राह्मणी प्रतीक’ को भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने संविधान की जगह स्थापित करने की कोशिश की है। देश पर जबरन थोपने की कोशिश की है। संसद के दोनों सदनों का कार्य संचालन उनकी अपनी नियमावलियों से होता है, जिनका आधार-स्रोत हमारा संविधान है। फिर संसद के किसी सदन के अध्यक्ष के आसन के पास सेंगोल जैसे ‘राजवंशीय-ब्राह्मणी प्रतीक’ को स्थापित करने के क्या मायने हैं; इसे समझना किसी के लिए भी कठिन नहीं है।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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