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सिंघु बॉर्डर से विशेष: ''किसानी एक बंदगी है और ये वही जानता है जो इसे करता है''

किसानी करने वाले इन बुज़ुर्गों ने भले ही कोई जमात न पढ़ी हो लेकिन MSP से लेकर APMC का गणित मुझे उन एंकर्स की डिबेट से अच्छी तरह समझा दिया जिनके ग्रैफ़िक्स, क्रोमा और बहस में किसान आंदोलन कुछ और ही दिख रहा है। 
सिंघु बॉर्डर से विशेष

''बेटा जी, तेरे जिन्नी मेरी पोती है, जो अगला महीना लगेगा दिसंबर दा, उसदा ब्याह धरा है. मैंनू कहती, दादा जी ब्याह ते आओगे ना? मैं कहया, बेटा मेरी आस ना रखियो...''ये कहते-कहते उस बुज़ुर्ग के अल्फ़ाज़ भारी हो गए और रुंधे गले ने भी जैसे आगे कुछ ना बोलने की इज़ाज़त दी। पिछले कई दिन से दिल्ली की दहलीज पर बैठे दादा जी को ना तारीख़ का पता था ना दिसंबर महीने के शुरू होने का एहसास। जिस अगले महीने की वो बात कर रहे थे उसे चढ़े पांच दिन से ज़्यादा हो गए थे।

ऐसा महसूस हो रहा था कि सिंघु बॉर्डर की रहगुज़र पर किसान आंदोलन के वो किरदार मेरी नज़रों से गुज़र रहे थे, जिनपर आगे चलकर बहुत कुछ लिखा जाएगा।  हर जत्था एक इबारत लिख रहा था, जगह-जगह बैठी बुज़ुर्गों की टोली हौसले की स्याही से आंदोलन की कहानी लिख रही थी। अजीब लोग थे, अजीब बातें कर रहे थे,  मैं हैरान थी हर आंदोलनकारी ''वन लाइनर'' पर ''वन लाइनर'' दे रहा था। किसी की बात में गहराई थी तो कोई आंदोलन की बात शुरू करके मुझे अंग्रेजों और मुग़लिया सल्तनत के ज़ुल्म के दौरान डटकर मुक़ाबला करने वाली सिख क़ौम का इतिहास समझा रहा था। किसानी करने वाले इन बुज़ुर्गों ने भले ही कोई जमात (स्कूल की क्लास) ना पढ़ी हो लेकिन MSP से लेकर APMC का गणित मुझे उन एंकर्स की डिबेट से अच्छी तरह समझा दिया जिनके ग्रैफ़िक्स, क्रोमा और बहस में किसान आंदोलन कुछ और ही दिख रहा है। 

ये किसान अपने साथ वो पराली भी लाए थे जिसके जलाने से दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स कांपने लगता है, लेकिन इस बार उन्होंने पराली को दिल्ली की सीमा पर बिछाकर अपना आसन जमा लिया है। हर जत्था भले ही सरकार के उस कृषि क़ानून के खिलाफ़ था जिसे वो ''काला क़ानून'' कह रहे थे लेकिन इसके अलावा आंदोलन के साथ जुड़ने की हर किसी की अपनी  कहानियां थी। 

''मेरे नाना और मामा ने अंग्रेज़ों के साथ जंग लड़ी थी, जेल गए थे, मेरे मामा आज़ादी की लड़ाई में शहीद हो गए थे, मैंने अपनी मां से सब सुना है, मेरी रगों में भी वही ख़ून दौड़ता है, हम संघर्ष करेंगे, लड़ेंगे मरेंगे लेकिन पीछे नहीं हटेंगे'', ये कहते-कहते बुज़ुर्ग परमजीत जी की आंखों की चमक बढ़ गई, ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव पर खड़ी मोगा पंजाब से आई इस बुज़ुर्ग के चेहरे पर एक नूर था जो बयां कर रहा था इस आंदोलन में जीत मिले या ना मिले लेकिन उनकी कोशिश में कोई कमी नहीं है। 

तमाम परेशानियों के बावजूद किसी के चेहरे पर कोई शिकन ना थी। दिसंबर की सर्द रातों में ट्रॉली में पिछले 10 दिनों से रह रहे इन बुज़ुर्ग, बच्चों और औरतों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी मैंने पूछा इतनी परेशानी के बावजूद आप लोगों में ये उत्साह कैसे बना हुआ है? तो जवाब था कि ये हमारे गुरुओं की देन है। मैंने पूछा आप लोग इस कृषि क़ानून को काला क़ानून क्यों कह रहे हैं? तो उन्होंने कहा कि ''ये क़ानून हमसे हमारी ज़िन्दगियां छीनने जैसा है'' आगे उन्होंने ये भी साफ़ किया कि इस आंदोलन में सिर्फ़ किसान ही नहीं बल्कि हर वो शख़्स आया है जो खेत से जुड़ी उन चेन का हिस्सा है जो एग्रीक्लचर इंडस्ट्री से  किसी ना किसी तरह से जुड़ा है। फिर वो खेत में काम करने वाला मज़दूर हो या फिर मंडी में काम करने वाला या आढ़ती। 

अमृतसर से आई एक ट्रॉली में सवार कुछ औरतों से मेरी बात हुई मैंने पूछा इस तरह से रहना कितना मुश्किल है तो मुस्कुराते हुए सबने एक साथ कहा ''जी, ऐसा नहीं है हमने इस ट्रॉली का नाम 'लग्ज़री रूम' रखा है''. वो आगे कहती हैं कि ''हम सिख-जट परिवार की हैं और ये तक़लीफ़ उस तक़लीफ़ के सामने कुछ नहीं जो इस क़ानून के लागू होने पर होने वाली है''। कोई किसान की बेटी, तो कोई रिटायर्ड फौजी की, ये सब इस आंदोलन में उसी तैयारी के साथ आई थीं जैसे सीमा पर एक फौजी पूरी तैयारी के साथ जाता है। बुलंद हौसले वाली ये महिलाएं एक बात जो बार-बार दोहरा रही थीं वो ये कि आंदोलन शांतिपूर्वक चलेगा लेकिन अगर हमारी नहीं मानी गई तो ये आंदोलन सरकार के लिए तख़्ता पलट आंदोलन साबित होगा। हालांकि उन्हें ये क़ानून सरकार के लिए गले में फंसी हड्डी की तरह लग रही है,  उन्होंने कहा कि ''सरकार को ,ना हम करने नहीं देंगे और हां वो कर नहीं पा रही इसलिए मामला लंबा खिंच रहा है'' बात ख़त्म होते-होते एक महिला ने मुस्कुराते हुए कहा ''इत्थे इतिहास सिरजा जाऊगा( यहां इतिहास बनेगा ) और हम इसके गवाह होंगे''। 

ये बातें मुझे हिस्ट्री की किताब के चंपारण सत्याग्रह के उस चैप्टर पर ले गईं जिसे पढ़कर हमने रटा था कि कैसे गांधी जी ने किसानों की आवाज़ बनकर अपना पहला सत्याग्रह किया था। लगता है इतिहास ख़ुद को दोहराने के लिए बेताब है। आज एक बार फिर किसान साबरमती के उसी संत की दी टेक्नीक को दिल्ली की सरहद पर आज़माते नज़र आ रहे हैं। लेकिन शायद सरकार भी अग्रेज़ी हुक़ूमत के मोड में आ गई है। और ये बात मुझे पंजाब यूनिवर्सिटी की उन तीन छात्रों से बात करके समझ आईं। 

चहकती हुई इन तीन छात्राओं में से जसप्रीत जस्सू ने कहा कि ''ये सरकार बौखला गई है, सरकार का काम सड़कें बनवाना है लेकिन ये कैसी सरकार है जो हमें रोकने के लिए सड़क खुदवा रही है?'' वो सवाल करती हैं कि जिस लॉकडाउन का सहारा लेकर सरकार ने ये ''काला क़ानून'' पास किया क्या उस वक़्त कोरोना से लड़ने के लिए अस्पतालों के बारे में नहीं सोचना चाहिए था?  क्या उस वक़्त देश के बेरोज़गारों की परेशानी को हल करने के लिए किसी प्लान पर काम करने की बजाए अंदरखाने इस बिल को पास करवाना ही देश की सबसे बड़ी ज़रूरत थी? आंदोलन से जुड़ी इन छात्राओं ने बहुत ही साफ़गोई से कहा कि हम यहां अपनी फ़ीस के लिए बैठे हैं, हमारे पापा किसान हैं और हमारी इनकम  किसानी से ही होती है और अगर वही रुक गई तो हमारी फ़ीस के लिए पैसे कहां से आएंगे? इसलिए हमारा इस आंदोलन के साथ जुड़ना बहुत ज़रूरी है।

'करो या मरो' के मूड में इन छात्राओं ने दो टूक बात कह दी ''या तो हमारी मांगे मानी जाएंगी या फिर यहां जलियावाला बाग़ दोहराया जाएगा" ऐसा लग रहा था कि ये लोग क़ुर्बानी के उस ज़ज्बे को पीकर आई थीं जो इन्होंने बचपन से गुरुवाणी से सीखी है।  फिर तीनों एक सुर में ऊंची आवाज़ में कहती हैं'' सूरा सो पहचानिए, जो लडे दीन के हेत, पुरजा पुरजा कट मरै कबहू ना छाड़े खेत''।  ये तीनों सच में तारीख़ में अपना नाम दर्ज करवाने की ठान कर आई थीं।  जैसे ही मैं इनके पास से उठने लगी एक ने कहा ''मैडम जी दो ही लोगों का इतिहास लिखा जाता है एक गद्दारों का और दूसरा इंसाफ पसंद लोगों का''। यक़ीनन  ये बात आंदोलन के साथ जुड़ा क़रीब-कऱीब हर बंदा सोच रहा था। 

फतेहगढ़ साहब से आए 70 साल के बुज़ुर्ग कुलवंत भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं वो कहते हैं कि ''मुझे कितना जीना है अगर मैं घर पर मरा तो मेरा क्या मोल लेकिन अगर में आंदोलन में अपना बलिदान करता हूं तो मुझे याद रखा जाएगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे आज़ादी के दौरान हमारे पूर्वजों के बलिदान को याद किया जाता है" वो आगे कहते हैं कि ''इस ज़िन्दगी का क्या मोल है''? और उनकी ये बात सुन मुझे फ़ैज़ का एक शेर याद आ गया '' ये जान तो आनी-जानी है इस जाँ की कोई बात नहीं'' मैंने कोई ज़्यादा पढ़ाई तो नहीं की लेकिन इस आंदोलन का हासिल मेरी ज़िन्दगी की किताब में बुकमार्क लगाकर याद रखने लायक ज़रूर होगा। 

सूरज डूब रहा था और ढलती शाम में बुज़ुर्गों की मुस्कुराहट ने मुझे उसने बात करने की एक बार फिर दावत दी। कोई आराम कर रहा था तो कोई आंदोलन की बारियों पर नज़र लगाए बैठा था, ये जत्था तरनतारण से यहां पहुंचा था और रास्ते में मिले हरियाणा के किसानों से दोस्ती भी कर ली थी जो यहां आज उनके साथ बैठे थे।  मेरे पास वक़्त की कमी थी लेकिन उनके पास मुझे बताने और समझाने और अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की बहुत ललक थी वो चाहते थे कि लोग इस बात को समझें कि इस क़ानून से सिर्फ़ किसानों का नुक़सान नहीं होगा बल्कि इसकी मार आम आदमी पर भी पड़ने वाली है।  इनके साथ लंबी चली बातचीत में बहुत कुछ ऐसा था जिसे में अनकट लिखना  चाहती हूं बेहद बुज़ुर्ग ये किसान कहते हैं कि जिसने खेत में बीज नहीं बोया वो कैसे उसका मोल लगा सकता है? मेरे चारों तरफ़ बैठे ये बुज़ुर्ग बहुत ही तरीक़े से मुझे इन क़ानून की पेचीदगी को समझा रहे थे और सबसे ख़ास बात थी कि ये अपनी बात को दूसरे किसान को ऐसे हैंडओवर कर रहे थे जैसे किसानों  के मुद्दे का कोई सिरा छूट ना जाए, छोटी-छोटी बातों की एक लंबी चर्चा बुनी गई जिसमें मुझे समझाया गया कि ये क़ानून किसानों के लिए फांसी का फंदा है, इससे उनकी ज़मीन हड़प ली जाएगी और किसान कॉरपोरेट घरानों का मुलाज़िम बन जाएगा।

वो कहने लगे जैसे मुग़लों के हाथ से देश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास चला गया था वैसे ही एक बार फिर सरकार देश को बड़े बिज़नेस घरानों को सौंप देगी। कुरूक्षेत्र हरियाणा से आए भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश सचिव मेनपाल जी ने कहा कि सरकार ने लॉकडाउन का फायदा उठाकर इस क़ानून को पास करवाया लेकिन आज का किसान इतना भी भोला नहीं है,वो अपना अच्छा-बुरा ना पहचानता हो, इसलिए आज हम यहां आंदोलन के लिए बैठे हैं। तभी तरनतारण से आए बुज़ुर्ग कुलवंत जी ने कहा कि ''किसानी एक बंदगी है और ये वही जानता है जो इसे करता है'', बात किसानी और बंदगी की छिड़ी तो ज़िक्र बुल्ले शाह और उनके अराइन ( किसानी करने वाले ) गुरु शाह इनायत का भी हुआ और उन्होंने वो शेर सुनाया जो ख़ुदा की तलाश में निकले बुल्ले शाह को उनके गुरु शाह इनायत ने सुनाया था'' बुलेया, रब दा की पौणा, एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा'' ( मतलब रब को पाना मतलब पौधे को यहां से उखाड़कर वहां लगा देना है।)  और अपनी बात ख़त्म करते-करते उन्होंने कृषि क़ानून के नुक़सान को ये बात को कहते हुए ख़त्म किया ''डूबगी नैया तो डूबेंगे सारे''। माहौल कुछ गंभीर हुआ तो हरियाणा के किसान मेनपाल जी ने कहा कि सरकार अगर बात मान ले तो बढ़िया वर्ना इस बार इंडिया गेट की परेड में किसान भी परेड करते नज़र आएंगे। 

लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

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