Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

'जूते' के लिए सबसे ज़्यादा जद्दोजहद करनी पड़ रही हैः अंतरराष्ट्रीय एथलीट मुनीता प्रजापति

"हमें सबसे ज़्यादा जद्दोजहद जूते के लिए करनी पड़ रही है। सरकार की ओर से खिलाड़ियों को जो जूते दिए जाते हैं उससे वार्मअप तो किया जा सकता है, लेकिन ओलंपिक खेल की तैयारी नहीं। विदेशों से आने वाले 15 हज़ार के जूते डेढ़ महीने भी नहीं चलते। ग्राउंड में जो लड़कियां दौड़ लगाती हैं, जब उनके जूते पुराने हो जाते हैं उसे लेकर मैं अभ्यास करती हूं।"
Munita

"हमारी बेटी मुनीता प्रजापति के पास खेलने का बहुत बड़ा जज़्बा है। वो परफ़़ॉर्म भी ठीक करती है, लेकिन अभावों भरी ज़िंदगी और सरकारी घोषणाएं हमें हर वक़्त डंसती रहती हैं। यक़ीन कीजिए, हमारी बेटी दौड़ने से कभी नहीं थकी, लेकिन ग़रीबी और बदनसीबी हमारी ज़िंदगी में मुसीबत खड़ी करती जा रही है। पति विकलांग हैं, फिर भी वह बेटी का भविष्य संवारने के लिए हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। परेशानियां हमें असमय बूढ़ा कर रही हैं। हमारे घर नेता तो बहुत आए और सब के सब वादे करके लौट गए...।"

"यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्पर्धा जीतने वाले खिलाड़ियों को कई मर्तबा इनाम देने का ऐलान कर चुके हैं, लेकिन मुनीता के हिस्से में आया सिर्फ़ कोरा आश्वासन। हमारे सांसद देश के पीएम हैं और हम दो वक़्त की रोटी और पीने के साफ़ पानी तक के लिए मोहताज हैं। एक छोटी सी कोठरी में मेरी बेटी के तमाम मेडल और सर्टिफिकेट रखे हैं, लेकिन वो किस काम के हैं? अच्छा यही होगा कि झूठे वादे करने वाले ही उसे बटोरकर ले जाएं।"

ये सारी बात कहते हुए रासमनी की आंखें डबडबा जाती हैं। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के शाहबाज़पुर (बढ़ैनी ख़ुर्द) की रहने वाली हैं। इनकी बेटी मुनीता प्रजापति दो बरस पहले गुवाहाटी स्थित इंदिरा गांधी एथलेटिक स्टेडियम में आयोजित 36वीं राष्ट्रीय जूनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 10 किलो मीटर रेस वॉक सिर्फ़ 47 मिनट 53.58 सेकेंड में न सिर्फ़ अपने नाम किया, बल्कि पिछले सभी रिकार्डों को तोड़ दिया। एथलीट मुनीता के विकलांग पिता बिरजू प्रजापति बेटी को शिखर पर पहुंचाने के लिए अपनी ज़िंदगी से जंग लड़ रहे हैं। वो अपने घर से क़रीब 20 किमी दूर मज़दूरी करने जाते हैं और इनकी पत्नी रासमनी घर का ख़र्च चलाने के लिए खेतों में काम करती हैं।

मुनीता के पिता, भाई और मां

खूंटी पर टंगे हैं गोल्ड मेडल

अंतरराष्ट्रीय और कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में गोल्ड मेडल बटोरने वाली एथलीट मुनीता की मां रासमनी (45), पिता बिरजू प्रजापति (51) और इकलौता भाई किशन प्रजापति 8 /12 फीट वाली उस कोठरी में रहते हैं, जिसमें कुछ महीने पहले ही सीमेंट का प्लास्टर चढ़ाया गया है। हालांकि कोठरी के बाहरी दीवार की ईंटों पर प्लास्टर अभी नहीं है। इसी कोठरी में मुनीता के तमाम मेडल बेतरतीब ढंग से खूंटी पर टंगे हैं और ट्रॉफियां खाद वाली बोरी में बांधकर पाटे पर रखी गई हैं।

मुनीता के घर हम शाम के वक़्त पहुंचे तो उनके पिता बिरजू ज़मीन पर खाना खाने के लिए बैठे ही थे। उनके खाने की थाली में पत्ता गोभी की सब्ज़ी और चंद रोटियां थीं और कुछ भी नहीं। कोठरी के किनारे एक छोटी सी बोरी में कुछ अनाज और ताख पर नमक, मसाले के डिब्बे रखे हुए थे। कोठरी में एक चारपाई के अलावा कुछ भी नहीं था। अगर कुछ था तो जाड़े की रात काटने के लिए कुछ फटे-पुराने कपड़े जिन्हें सिलकर बनाया गया ओढ़ना और बिछावन (कथरी) था। बिरजू की हालात को देखकर कोई कल्पना नहीं कर सकता कि देश-विदेश से तमाम मेडल बटोरने और रेस वॉक में नया कीर्तिमान रचने वाली किसी एथलीट का परिवार इस क़दर मुफ़लिसी का शिकार होगा?

मुनीता के घर में बना पकवान

मुनीता प्रजापति के घर पहुंचने पर परिजनों ने खाना खाना रोक दिया और वो हमारे आवभगत में लग गए। चाय पिलाने के बाद मुनीता की मां रासमनी एक पोटली उठा लाईं, जिसमें ढेरों प्रमाण-पत्र और प्रतियोगिताएं जीतने के समय खींची गईं तमाम तस्वीरें थीं। कहने लगीं, "हमारे पास कुछ है तो सिर्फ़ बेटी मुनीता का हौसला। हालात तो पहले भी अच्छे नहीं थे और अब भी वैसे ही हैं। हमें गुमान था कि मुनीता पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र की बेटी है तो सरकार हमारे ऊपर ग़ौर करेगी, लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ हमारी उम्मीदें टूटती चली गईं। सीएम योगी आदित्यानाथ ने पिछले साल राष्ट्रीय कीर्तिमान बनाने वाले खिलाड़ियों को छह-छह लाख रुपये देने का वादा किया, लेकिन वो भी पूरा नहीं हुआ। लोग कहते हैं कि यूपी में डबल इंजन की सरकार है और हम दो वक़्त की रोटी के लिए मोहताज हैं। हमारी बेटी मेडल, ट्रॉफियां और प्रमाण-पत्र जीतकर क्या करेगी?"

रासमनी कहती हैं, "टीवी और अख़बारों के ज़रिए हमें अपनी बेटी के रिकॉर्ड बनाने की ख़बर मिली तो लगा कि सरकार की ओर से कुछ मदद ज़रूर आएगी, पर बनारस के किसी अफ़सर ने आज तक हमारी सुधि नहीं ली। लखनऊ में ख़बरिया चैनल “जी न्यूज़” वालों ने मुनीता को सम्मानित करने के लिए बुलाया, लेकिन दिया सिर्फ़ स्मृति चिह्न। उन लोगों ने हमसे बात तक नहीं की। कार्यक्रम में मौजूद यूपी की तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री स्वाति सिंह ने मेडल देते समय भी बेटी को किसी सहायता की पेशकश नहीं की।"

गोल्ड मेडल जीतने के बाद मुनीता

एक छोटे से घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने वाली मुनीता प्रजापति वंचित समाज से आती हैं। अपनी प्रतिभा के बल पर उसने देश-विदेश में कई प्रतिस्पर्धाओं में न सिर्फ़ गोल्ड मेडल जीता, बल्कि तमाम भारतीय खिलाड़ियों के पिछले सभी रिकार्ड भी तोड़ दिए। इसके बावजूद यूपी की योगी सरकार की घोषणाएं इस एथलीट की देहरी तक नहीं पहुंचीं। अभाव और ग़रीबी का संत्रास झेल रहा मुनीता का परिवार बस किसी तरह से दो वक़्त की रोटी जुटा पा रहा है। सुविधा के नाम पर उसके पिता को हर महीने सिर्फ़ 500 रुपये विकलांग पेंशन मिलती है और कुछ नहीं। न पीने का साफ़ पानी मयस्सर है, न ही सरकारी आवास, न मुफ़्त अनाज वाला लाल कार्ड। घर तक पहुंचने के लिए क़ायदे की सड़क तक नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उज्ज्वला योजना भी इस बदनसीब एथलीट के घर नहीं पहुंच सकी है।

कठिन ज़िंदगी

एथलीट मुनीता इन दिनों बेंगलुरु स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) में रहकर रेस वॉक की कोचिंग ले रही है। एक बरस पहले वो अपने घर आई थी। कुछ कर गुज़रने के जुनून के चलते एक दिन भी उसने रेस वॉक की कोचिंग बंद नहीं की। वो हर सुबह मैदान में उतर जाती है और घंटों दौड़ती रहती है। पिता बिरजू ने मुनीता से मोबाइल फ़ोन पर बात कराई तब पता चला कि वो इन दिनों कितने मुश्किल भरे दौर से गुज़र रही है? अपने हालात का जिक्र करते हुए मुनीता रुआंसी हो गई और ‘न्यूज़क्लिक’ से कहा, "हमें सबसे ज़्यादा जद्दोजहद जूते के लिए करनी पड़ रही है। सरकार की ओर से खिलाड़ियों को जो जूते दिए जाते हैं उससे वार्मअप तो किया जा सकता है, लेकिन ओलंपिक खेल की तैयारी नहीं। विदेशों से आने वाले 15 हज़ार के जूते डेढ़ महीने भी नहीं चलते। ग्राउंड में जो लड़कियां दौड़ लगाती हैं, जब उनके जूते पुराने हो जाते हैं उसे लेकर मैं अभ्यास करती हूं। कई बार हमारे पास मोबाइल चार्ज कराने तक के लिए पैसा नहीं होता है। अच्छी बात यह है कि साई हॉस्टल में रहने और खाने-पीने की पर्याप्त सुविधाएं हैं। प्रतियोगिताओं में शामिल होने पर आने-जाने का ख़र्च तो मिलता है, लेकिन बाक़ी इंतज़ाम ख़ुद हमें करना पड़ता है।"

तेज़-तर्रार रेस वॉकर मुनीता प्रजापति साल 2018 में नई दिल्ली में भारत सरकार की ओर से आयोजित 3000 मीटर रेस वॉक में 'खेलो इंडिया फ़ेलोशिप' के लिए चयनित हुई। दो जुलाई 2018 से उसे हर महीने उसे 10 हज़ार रुपये फ़ेलोशिप मिल रही थी। पिछले सात महीने से खिलाड़ियों को केंद्र सरकार की ओर से मिलने वाली यह फ़ेलोशिप बंद हो गई है, जिसके चलते उसकी और उसके परिवार की मुश्किलें बढ़ गई हैं।

‘खेलो इंडिया कार्यक्रम’ के तहत भारत सरकार का युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय तीरंदाज़ी, एथलेटिक्स, बास्केटबॉल, मुक्केबाज़ी, फुटबॉल, जिमनास्टिक्स, हॉकी, जूडो, कबड्डी, खो-खो, निशानेबाज़ी, तैराकी, वॉलीबाल, भारोत्तोलन और रेस्लिंग में फ़ेलोशिप देता है। खेलो इंडिया की अधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद सूचना के मुताबिक़, "उच्च प्राधिकार समिति की संस्तुति पर अंडर-17 के चयनित खिलाड़ियों को पांच लाख रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से आठ सालों तक वार्षिक वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। खिलाड़ियों के प्रदर्शन के आधार पर उच्च प्राधिकार समिति हर वर्ष उनकी सूची जारी करती है। कुछ साल पहले जारी सूची में मुनीता प्रजापति का नाम तो था, लेकिन फूटी कौड़ी नहीं मिली।"

भारत की भावना जाट, रवीना के साथ मुनीता प्रजापति ने विश्व एथलेटिक्स पैदल चाल टीम चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचा

मुनीता कहती है, "दोस्तों से क़र्ज़ लेकर किसी तरह से अपनी निजी ज़रूरतों को पूरा कर रही हूं। भारतीय टीम से खेलने वाली साथी खिलाड़ियों को उनके राज्यों की सरकारों ने ख़़ूब इनाम दिए और पढ़ाई के हिसाब से नौकरी भी। लेकिन मैं अभाव में ही रह गई। मैं यह भी जानती हूं कि अपने परिवार की मुश्किलों को ख़त्म करने के लिए मुझे बहुत कुछ करना होगा। माता-पिता ने मेरे लिए बहुत कुछ त्याग किया है। इसलिए अब मेरा सपना है कि मैं उन्हें बेहतर भविष्य दे सकूं।"

एथलीट मुनीता मार्च 2019 में हांगकांग में आयोजित तीसरे एशियन यूथ एथलेटिक्स चैंपियनशिप में भी भाग ले चुकी है। 5000 मीटर रेस वॉक के बालिका वर्ग में इसे सातवां स्थान मिला था। इस रेस को उसने 25 मिनट 57.48 सेंकड में पूरा किया था। इतना ही नहीं मुनीता 48 मिनट से कम समय में स्पर्धा पूरी करने वाली अंडर-20 में पहली भारतीय महिला रेस वॉकर बन गई है। इसके अलावा वह राष्ट्रीय स्तर के दर्जन भर मेडल जीत चुकी है।

मुनीता केन्या की राजधानी नैरोबी में होने वाले वर्ल्ड जूनियर खेल प्रतियोगिता में हिस्सा ले चुकी है। साल 2020 में उसने 7वां नेशनल ओपन रेस वॉकिंग चैंपियनशिप (रांची) में गोल्ड जीता। इससे पहले नवंबर 2019 में 35वां नेशनल जूनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप (विजयवाड़ा) में भी गोल्ड अपने नाम किया। मुनीता ने सितंबर 2019 में 17वां फेडरेशन कप नेशनल जूनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल जीता। पहली इंटरनेशनल स्पर्धा हांगकांग में एशियन यूथ एथलेटिक्स चैंपियनशिप 2019 में खेला। साल 2018 में उसने इंडिया स्कूल गेम्स में देश में दूसरा स्थान हासिल किया था।

बिरजू की बेबसी

पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र रोहनिया इलाक़े के शाहबाज़पुर की एथलीट मुनीता ने भले ही कई गोल्ड मेडल अपने नाम कर लिया हो, लेकिन उसके परिवार की माली हालत में तनिक भी सुधार नहीं हुआ है। पिता बिरजू प्रजापति विकलांग हैं, लेकिन बेटी का भविष्य संवारने के लिए वह हर रोज़ 18 घंटे काम करते हैं। समूचे परिवार की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है। वो अपने घर से काफ़ी दूर कछवां बाज़ार अथवा राजातालाब जाकर ईंट-गारा ढोने का काम करते हैं। बिरजू बताते हैं, "पहले मैं मुंबई में दिहाड़ी मज़दूर था। काम के दौरान बिजली का करंट लगा तो दाहिना हाथ और पैर पैरालाइज हो गया। इलाज के बाद मैं घर लौट आया। यहां महीने में सिर्फ़ 10-15 दिनों की दिहाड़ी मज़दूरी मिल पाती है। उसी से घर का ख़र्च चलाता हूं। पहले अपनी बेटी को पैसे भेज देते थे, लेकिन मेरी माली हालत ऐसी नहीं है कि उसकी कोई मदद कर सकें। पिछले दो साल से कभी पैसे नहीं भेजे। हमारे कुछ रिश्तेदार और शुभचिंतक ही मुनीता की मदद करते हैं।"

"लॉकडाउन से पहले मेरी पत्नी रासमनी खाली समय में मोतियों की माला बनाने का काम करती थी तो कुछ पैसे हाथ में आ जाते थे। लॉकडाउन के बाद काम भी मिलना बंद हो गया। आर्थिक संकट के चलते अपने इकलौते बेटे का दाख़िला किसी अच्छे स्कूल में नहीं करा पा रहे हैं। जब हमारे हाथ ही खाली हैं तो मुनीता को पैसे कहां से भेजेंगे। रिश्तेदार मदद न करें, तो भूखे सोने की नौबत आ जाएगी।"

अंतरराष्ट्रीय एथलीट मुनीता प्रजापति बिरजू की तीसरी बेटी है। उसकी दो बड़ी बहनें पूजा और चंदा की शादी हो चुकी है। वो दोनों ससुराल में रहती हैं। सबसे छोटा और इकलौता भाई किशन प्रजापति नवीं कक्षा का छात्र है। बिरजू प्रजापति कुल चार भाई हैं। सभी का एक ही पुस्तैनी मकान है। बंटवारे के बाद सभी भाइयों को एक-एक कमरे मिले, जिसमें उनका समूचा कुनबा रहता है। मुनीता जब कभी गांव आती है तो उसे भी उसी कमरे में रहना पड़ता है। बिरजू पास में आबादी की ज़मीन पर एक झोपड़ी लगाकर उसमें सोते हैं। इनके हिस्से में सिर्फ़ दो बिस्वा खेती की ज़मीन है। उसी में थोड़ी बहुत सब्ज़ियों की खेती कर लेते हैं।

ओलंपिक में दौड़ेगी मुनीता

एथलीट मुनीता प्रजापति इसी साल 15 जनवरी को 21 बरस की हो जाएगी। वह कहती है, "साल 2024 में पेरिस में ओलंपिक होने वाला है। फिलहाल मैं ओलंपिक के 20 किलो मीटर की रेस वॉक की तैयारी में जुटी हूं। फिजिकल एजुकेशन से ग्रेजुएशन कर रही हूं। रेलवे में नौकरी चाहती हूं, ताकि हमारी तैयारी प्रभावित न हो सके। दो बार ओलंपियन रह चुके हमारे कोच गुरमीत सिंह हमें काफ़ी सहयोग कर रहे हैं।"

विदेशी खिलाड़ियों के साथ मुकाबला करती मुनीता

अपने शुरुआती करियर का ज़िक्र करते हुए मुनीता कहती है, "हमारे पड़ोस में रहने वाली बहन रीना प्रजापति ने हमें दौड़ लगाने के लिए प्रेरित किया। पहले रीना दौड़ने जाया करती थी, लेकिन बाद में मैं भी उनके साथ जाने लगी। एक हादसे के बाद रीना ने दौड़ना छोड़ दिया, लेकिन मैं दौड़ती रही और मेडल जीतती रही। मैं जिस गांव में पली-बढ़ी हूं, वह ट्रेनिंग और कोचिंग के लिहाज़ से एक बेहद पिछड़ा इलाक़़ा है। इसके बावजूद मैंने एथलीट बनने का कठिन फ़ैसला लिया। मेरी मां ने मेरे जुनून और क़ाबिलियत को समझा और मेरा साथ देने का फ़ैसला किया। हर कामयाबी के बाद अपनी मां को फोन करती हूं। मैं ऐसा प्रदर्शन करना चाहती हूं कि मुश्किल भरी ज़िंदगी गुज़ारने वाली मेरी मां के ऊपर हर कोई फ़ख़्र करे।"

जुलॉजी से स्नातकोत्तर करने वाली रीना प्रजापति से मुलाक़ात हुई तो ‘न्यूज़क्लिक’ से कहा, "मुनीता की मां अपनी बेटी को दौड़ने के लिए मैदान में भेजने के लिए तैयार नहीं थीं। काफ़ी समझाने के बाद वो राज़ी हुईं। हमारे पड़ोस की लड़की निकलकर देश-विदेश में पहचान बना रही है। मुझे भरोसा है कि वह और अच्छा खेलेगी। यह हमारे लिए भी गर्व की बात होगी। अच्छी बात यह है कि मुनीता सिर्फ़ अपने लिए नहीं, पीएम मोदी के बनारस व समूचे यूपी के लिए दौड़ रही है और गोल्ड मेडल बटोरती जा रही है।"

सिर्फ़ वादे

बीडीसी सदस्य वीरेंद्र प्रजापति कहते हैं, "मुनीता के घर बनारस के सभी सियासी दलों के लोग पहुंचकर बधाई दो चुके हैं, लेकिन आर्थिक मदद किसी ने नहीं की। सिर्फ़ प्रजापति शोषित समाज संघर्ष समिति और प्रजापति अंतर्विश्वविद्यालयी विद्यार्थी समूह ने एक मर्तबा 21,000 रुपये की मदद की थी। तत्कालीन विधायक सुरेंद्र नारायण सिंह ऐढ़े भी मुनीता के घर आए और जल्द ही हैंडपंप लगवाने व सीसी रोड बनवाने का वादा किया, लेकिन दिया कुछ भी नहीं। तमाम अभावों के बीच मुनीता ने जब देश-विदेश में कीर्तिमान बनाते हुए कई गोल्ड मेडल जीते तब लगा कि वे पदक उसे आगे बढ़ने का सहारा बनेंगे। हम इसे अपनी बदनसीबी ही कहेंगे कि हमारे गांव की अंतरराष्ट्रीय एथलीट के हिस्से में सरकार के कोरे आश्वासनों के सिवा कुछ भी नहीं आया।"

मुनीता के ये मेडल किस काम के

05 दिसंबर 2022 को सीएम योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर में आयोजित महंत अवेद्यनाथ स्मृति अखिल भारतीय प्राइजमनी कबड्डी प्रतियोगिता के पुरस्कार वितरण समारोह में ऐलान किया था कि यूपी के खिलाड़ियों के लिए धन की कमी नहीं है। खिलाड़ियों को आगे बढ़ाने के संसाधन मज़बूत किए जा रहे हैं। उनका अनुदान बढ़ाने के लिए एकलव्य क्रीड़ा कोष की स्थापना की गई है। ओलंपिक एकल स्पर्धा में गोल्ड मेडलिस्ट को छह करोड़, रजत पदक विजेता को चार करोड़ और कांस्य पदक विजेता को तीन करोड़ रुपये दिए जाएंगे। ओलंपिक की टीम स्पर्धा में यह राशि क्रमश: तीन, दो व एक करोड़ होगी। अर्जुन पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार, खेल रत्न व खेल के क्षेत्र में पद्म पुरस्कार हासिल करने वाले प्रदेश के खिलाड़ियों के लिए प्रतिमाह 20 हजार रुपये की वित्तीय सहायता दी जाएगी।

आज़ादी के लिए दौड़ रही मुनीता

दलित और वंचित तबक़े की महिलाओं के उत्थान के लिए संघर्षरत एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, "मुनीता ने जो मुक़ाम हासिल किया वह सिर्फ़ बनारस ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी गर्व की बात है। मोदीजी ख़ुद कहते हैं कि मैं बनारस के गांव का रहने वाला हूं। मुनीता भी उनके गांव की बेटी है और वह जी-जान से ओलंपिक की तैयारियों में जुटी है। एक वक़्त वो भी था जब ओलंपिक खेलों में महिलाओं के न सिर्फ़ भाग लेने पर पाबंदी थी, उन्हें इन खेलों को देखने तक की इजाज़त नहीं थी। अगर कोई महिला दर्शक दीर्घा में बैठी पाई जाती तो उसे कड़ी सज़ा दिए जाने का प्रावधान था।"

"साल 1896 में आधुनिक ओलंपिक खेलों की शुरुआत हुई। ओलंपिक समिति का मानना था कि महिलाओं की शारीरिक क्षमता 200 मीटर से अधिक की दौड़ के लायक नहीं होती। साल 1972 में महिलाओं को 1500 मीटर की दौड़ में हिस्सा लेने का अवसर दिया गया। साल 1984 के ओलंपिक खेलों में महिलाओं की मैराथन रेस को जगह मिली, जबकि पुरुषों के लिए यह रेस पिछले नब्बे साल से हो रही थी। ज़ाहिर है दुनिया में चलने वाले बाक़ी नियम-क़ानूनों की तरह खेलों के भी सारे नियम पुरुषों ने ही बनाए थे। बनारस की मुनीता प्रजापति सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं, देश की उन सभी औरतों के अधिकार व उनकी आज़ादी के लिए दौड़ रही है और मुफ़लिसी के बावजूद सफलता के झंडे गाड़ रही है। मुनीता आज भी फ़ील्ड में उतरती है तो तमाम पुरुष खिलाड़ियों को पछाड़ देती है। अचरज की बात यह है कि उसने यूपी के लिए गोल्ड मेडल तो कई जीते, लेकिन उसे और उसके परिवार को मिला क्या? बड़ा सवाल यह है कि क्या इनाम के ऐलान सिर्फ़ मीडिया के लिए ही होते हैं?"

बनारस के वरिष्ठ शिवदास कहते हैं, "यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को नौकरी देने की घोषणा तो ख़ूब करते हैं, पर उनके वादे कभी हक़ीक़त में नहीं बदलते। दरअसल यूपी की खेल नीति ही दोषपूर्ण है और नियुक्ति नियमावली भी स्पष्ट नहीं है। राज्य के कई उम्दा खिलाड़ियों की उम्र नौकरी की आस में गुज़र रही है। बनारस की मुनीता प्रजापति जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर के पदक विजेता के परिवार को रोटी के लिए तरसना पड़ रहा है, इससे गंभीर बात क्या होगी? दूसरे राज्यों में उम्दा खेल नीति की वजह से खिलाड़ियों की छाती चौड़ी रहती है। यह महिला खिलाड़ी जिस तरह का प्रदर्शन लगातार करती आ रही है, उससे उसने एक नई उम्मीद जगा दी है। आने वाले समय में वह रेस वॉक में भारत के लिए एक नई इबारत लिख सकती है।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest