इतवार की कविता : मज़ूर

मज़ूर
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हमारे भीतर
उनका दर्द
बना रहेगा
वे मज़दूर
जो इतिहास में
कहीं दर्ज नहीं
एक सदी से दूसरी सदी में
फलांगते
कुर्बानियां देते रहे
उनके शोषण का ज़ख्म
हमेशा हरा रहा
सभी समाज में
हाशिये की तय जगह
पर स्थित
सीलन और सिकुड़न भरी
आमतौर पर
नाले, नाली के ऊपर की
रिहाईश
अफ़सोस जहां
चांद, सूरज मयस्सर नहीं
वहां शिकारी
अंधेरे कूप की दंगाई विचारधारा,
गर्वीला हिंदुत्व का वायरस डालता
आज के मज़ूर में
और
सत्ता उनका इस्तेमाल करती
वहीं कुछ जीवन वाले मज़दूर
रचते रहे
अपना सर्वोत्तम
हमेशा की तरह
दूसरों के नाम
हाड़-तोड़ मेहनत के बाद
लौटते अपने दड़बे में
रोटी
रात की नींद लेने
नींद के सपनों से
जीवन की ऊर्जा
खींच लेते
उन्हें तंगदिल मालिकों से
पैसे उतने ही मिलते
जिनसे वे ज़िंदा रह सकें
जीवन की गति
उम्र का सहज उल्लास
हृदय की दरारों से
फूट पड़ता
वे मिलकर
उल्लास से उत्सव मनाते
मालिक उन्हें मशीन
नहीं बना पाता
जब बुरे दिनों की आमद
तेज़ी से होती
भरभरा कर गिरती
ग़रीब की दुनिया
रोज़गार नहीं
राशन के खाली कनस्तर
बदहाली के ढोल से बजते
मोटरियों से चूहों की भाग-दौड
बेघर हो वे
सड़क पर
बच्चों की अपनों की भूख से
विचलित
राह तलाशते
कठिन से सरल के
चक्रव्यूह में
धंसते
रक्त रंजित, दूर घर का रास्ता
विकट समय है
आज जो तटस्थ है
समय उसका भी अपराध
लिखेगा
ज़रूर । ।
--
- शोभा सिंह
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