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अमीश देवगन मामले में सुप्रीम कोर्ट का अजीब-ओ-ग़रीब फ़ैसला: अनगिनत सवाल

देवगन मामले में दिये गये फ़ैसले से अदालत की यह आशंका साफ़ तौर पर सामने आती है कि हेट स्पीच की किसी सख़्त परिभाषा से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कमज़ोर हो सकती है।
अमीश देवगन

मणि चंदर लिखती हैं कि हेट स्पीच(नफ़रत पैदा करने वाली भाषा) के सिद्धांतों को लागू करने और इस तरह के  अलग-अलग मामलों में अलग-अलग प्रक्रियात्मक नज़रिया अपनाने से सुप्रीम कोर्ट का दोहरा मानदंड सामने आता है,जो हेट-स्पीच से भरे भाषण को लेकर पहले से ही भ्रमित न्यायशास्त्र की गड़बड़ियों को और बढ़ा देता है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 7 दिसंबर को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विनियमित करने और नफ़रत फ़ैलाने वाले भाषणों की परिधि के बीच संतुलन बनाने के प्रयास में भारत के अमीश देवगन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में 128-पृष्ठ लंबा फ़ैसला दिया।

बड़े पैमाने पर विभिन्न विदेशी अदालतों के जानकारियों के साथ-साथ अदालत के ख़ुद के नज़ीरों पर आधारित इस फ़ैसले से हेट-स्पीच की परिभाषा की फिर से जांच-पड़ताल करते हुए अदालत ने सावधानीपूर्वक टिप्पणी की और कहा,“क़ानून में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इस स्वतंत्रता के इस्तेमाल की उस अधिकतम सीमा को खींच पाना मुश्किल है, जिसके दायरे से बाहर इस अधिकार के सामने मुश्किलें पेश होंगी और उसे अन्य लोकतांत्रिक मूल्यों और सार्वजनिक क़ानून के विचारों के अधीन किया जा सकता है, ताकि इसे दंडनीय अपराध बनाया जा सके।”

देवगन फ़ैसला ने जहां एक बार फिर अदृश्य और अस्पष्ट व्याख्याओं पर रौशनी डालती है,वहीं जिससे हेट-स्पीच के ख़िलाफ़ क़ानून निकलता है,उससे अन्य मामलों के मुक़ाबले कुछ ख़ास मामलों में अदालत की तरफ़ से दिखायी जाती सक्रियता की भिन्नता भी सामने आती है

क़ानून में एक ‘माकूल शख़्स' कौन है ?

इस फ़ैसले का एक अजीब पहलू यह है कि जिन चीज़ों से यह हेट-स्पीट बनता है,उसका विश्लेषण 'माक़ूलियत' की परेशान करने वाली अवधारणा पर टिका हुआ है।

न्यायमूर्ति ने अन्य मामलों के बीच रमेश एस/ ओ छोटलाल दलाल बनाम भारत संघ और उन अन्य के मामले का हवाला दिया,जिसमें कहा गया था, "इस्तेमाल किये गये शब्दों के असर को माकूल,अक़्लमंद,मज़बूत और साहसी लोगों के मानकों से आंका जाना चाहिए, न कि कमज़ोर और ख़ाली दिमाग़ वाले लोगों, और न ही उन लोगों से आंका जाना चाहिए,जो हर विरोधी नज़रिये में ख़तरे को भांपते रहते हैं।”

यही "माक़ूल, अक़्लमंद, दृढ़ और साहसी" शख़्स की मानकता हेट-स्पीच की बहस के केन्द्र में है और यही वजह है कि अहम कोशिशों के बावजूद,भारत में हेट-स्पीच का न्यायशास्त्र काफ़ी हद तक साफ़ नहीं है।

इस भाषण के निशाने पर रह रहे उन तबके,उनके ऐतिहासिक संदर्भ और प्रासंगिक समय में अलग-अलग समूहों के बीच भावनाओं की स्थिति पर विचार करने को लेकर अदालत के इस ‘माक़ूल शख़्स’ की ओर इशारे करते हुए भी यह सवाल तो बचा ही रह जाता है कि क्या यह माक़ूल शख़्स किसी धर्म, जाति, पंथ या लिंग से रहित है ? या फिर यह कोई ऐसा शख़्स है,जो उन लोगों को महसूस करता है,जो निशाने पर होते हैं ?

अदालत टिप्पणी करते हुए कुछ संकेत देती है,“इस तरह के भाषण को ऐसे ऐतिहासिक अनुभव से रहित विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति या समुदाय की जगह से नहीं देखा जाना चाहिए।”

हालांकि, इस तरह का नज़रिया व्यक्तिगत मूल्यों और मान्यताओं पर भी बहुत ज़्यादा निर्भर करेगा, और इस तरह यह नज़रिया पक्षपात से भरा होगा।

स्पष्टता की यह कमी आज भारत के आम लोगों साथ होने वाली नाइंसाफ़ी का सबसे घातक रूप है।

यह कई लोगों के लिए तो दमन और अलग-थलग किये जाने वाली राजनीति को जारी रखने का एक हथियार बन गया है।

कुछ मामलों में राज्य की तरफ़ से की गयी सख्त कार्रवाई और दूसरे मामले में कुछ भी नहीं होना भी इस तर्कशीलता की अवधारणा के साथ चलती व्यापक समस्या प्रतिध्वनित होती है।

जिन लोगों ने राज्य की नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने के लिए "हम देखेंगे" जैसे तराने और "काग़ज़ नहीं दिखायेंगे" जैसे नारे लगाये थे, वे बिना किसी सुनवाई के जेल में कई दिनों तक सड़ते रहते हैं, लेकिन जिन लोगों ने "देश के गद्दारो को .." जैसे नारे लगाये,उन्हें स्टेट ने ‘माक़ूल’ शख़्स समझकर छोड़ दिया है।

प्रशांत भूषण मामला भी ’माक़ूल शख़्स’ की दुविधा की एक संजीदा मिसाल थी,जिसमें कई लोगों ने सवाल उठाये थे कि क्या वह बेंच,जिसमें वह न्यायाधीश भी शामिल थे,जिनके आचरण पर भूषण ने सवाल उठाया था, वह भी उस माक़ूलियत का इम्तिहान पास करेंगे।

हेट-स्पीच को परिभाषित करने की गड़बड़ी से बढ़ता भ्रम

साफ़ तौर पर यह देखते हुए कि "हेट-स्पीच’ की एक सार्वभौमिक परिभाषा 'मुश्किल बनी हुई है", सुप्रीम कोर्ट ने इसे चिह्नित करने के लिए एक और अस्पष्ट मानदंड जोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि "अपनी पहुंच, प्रभाव और शक्ति को ध्यान में रखते हुए,जो असरदार लोग आम जनता या अपने सम्बद्ध विशिष्ट वर्ग के लिए काम करते हैं, उनका एक फ़र्ज़ होता है और उन्हें अधिक ज़िम्मेदार होना पड़ता है।"

हालांकि अदालत के तर्क का आधार समझ से परे नहीं है,असरदार लोगों के लिए एक उच्च मानक एक दोधारी तलवार साबित हो सकता है।

जिस माहौल में कई कार्यकर्ता, छात्र, कलाकार, शिक्षाविद और पत्रकार शांतिपूर्ण असहमति व्यक्त करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करने का ख़ामियाजा भुगत रहे हैं, उस माहौल में अदालत के इस टिप्पणी से अभिव्यक्ति की आज़ादी को काफ़ी नुकसान पहुंच सकता है।

प्रभावशाली लोगों के लिए इन कठोर मानकों से स्टेट के लिए सुविधाजनक व्याख्याओं की गुंज़ाइश पैदा हो सकती है,इससे स्टेट के पक्ष में बोलेने वालों को सज़ा से आज़ादी मिल जाती है और जो लोग स्टेट के पक्ष में नहीं होते हैं,उनके ख़िलाफ़ दुर्भावनापूर्ण मुकदमा चलाने का प्रयास किया जाता है।

दिल्ली दंगों से जुड़े मामले स्टेट की तरफ़ से सज़ा की आज़ादी से मिले फ़ायदे का एक शानदार उदाहरण हैं।

ऐसे कई मामलों में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कई सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं को ज़मानत देते समय ख़ास तौर पर पुष्ट सुबूतों की कमी का उल्लेख किया था। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस,मुरलीधर ने भी नेताओं द्वारा नफ़रत फ़ैलाने वाले भाषण को लेकर एफ़आईआर दर्ज नहीं किये जाने पर पुलिस से नाराज़गी जतायी थी।

मौजूदा माहौल को ध्यान में रखते हुए स्टेट को और ज़्यादा छूट देने से बड़े पैमाने पर अराजकता बढ़ सकती है।

यहां इस बात का ज़िक़्र करना ज़रूरी है कि विधि आयोग की 267 वीं रिपोर्ट ने 2017 में सुझाव दिया था कि नफ़रत फ़ैलाने वाली भाषा के प्रावधानों को “ग़ैर-चयनात्मक, ग़ैर-मनमाने और पारदर्शी तरीक़े” से लागू किया जाना चाहिए। ऐसे में असरदार लोगों के लिए यह उच्च मानक विधि आयोग की इस स़िफ़ारिश से बिल्कुल उटल है।

हेट-स्पीच मामले में सुप्रीम कोर्ट की विसंगति

अमीश देवगन मामले में आया यह फैसला उस अपनाये गये तरीक़े को भी सामने लाता है,जिसमें शीर्ष अदालत ने कुछ मामलों में तो गुण-दोष के अध्ययन करने के लिए अपने विवेक का इस्तेमाल किया है,जबकि दूसरे मामलों में टिप्पणी करने या सुनवाई का मौक़ा दिये जाने से भी परहेज़ किया है।

यह देखते हुए कि अमीश देवगन मामला अभी भी मुकदमे के शुरुआती चरण में है, सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि देवगन “महज़ एक मेज़बान होने के बजाय बराबर के एक सह-प्रतिभागी थे”,यह दूसरे उन मामलों से एकदम अलग है,जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने शुरुआती अवस्था में इस तरह के हस्तक्षेप करने से साफ़-साफ़ इनकार कर दिया था।

यह भी एक अजीब बात है कि अदालत ने इस क़ानून को लागू करने और निचली अदालत को इस मामले के गुण-दोष पर की गयी अपनी टिप्पणी से प्रभावित नहीं  होने का निर्देश दिया।

हालांकि,देवगन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले के लिए गुण-दोष की गहराई में जाने की जहमत ज़रूर उठायी, व्यापक दलीलें सुनीं और यहां तक कि उस टेलीविजन बहस के टेप की प्रतिलिपि को भी विस्तार से देखा, मगर उसी अदालत ने दूसरे मामलों में कार्रवाई करने को लकर अपनी बेबसी ज़ाहिर कर दी थी।

दिल्ली दंगों से पहले नफ़रत फ़ैलाने वाले भाषणों पर सुनवाई टालने के दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हर्ष मंदार द्वारा दायर की गयी अपील में सुप्रीम कोर्ट ने मंदार के वक़ील को बहस करने की अनुमति नहीं दी थी। अदालत ने मंदार की तरफ़ से उपलब्ध करायी गयी उस भाषण के टेप की प्रतिलिपि को भी सुनने से इनकार कर दिया था।

अदालत ने कहा, "हमें आपको नहीं सुनना। हमें आपको सुनने की ज़रूरत नहीं।” उसी मामले में मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने कहा, “हम शांति की कामना करेंगे,लेकिन हमारी शक्ति की कुछ सीमायें हैं। हम पर किस हद तक दबाव है, यह आपको पता होना चाहिए। हम इस मामले को नहीं ले सकते।”

इसी तरह,जब बाल रोग विशेषज्ञ कफ़ील ख़ान की मां,नुज़हर परवीन ने कथित भड़काऊ भाषण के लिए ख़ान के ख़िलाफ़ एफ़आईआर को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया था, तो 18 मार्च को कोर्ट ने उन्हें पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख़ करने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने तब भी नफ़रत फ़ैलाने वाली भाषा पर इतनी विस्तृत चर्चा में जाना मुनासिब नहीं समझा था।

कई एफ़आईआर के सवाल से निपटते हुए अदालत ने उन्हें खारिज करने से इनकार कर दिया और कहा कि चूंकि देवगन के मामले में टेलीविजन बहस को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित किया गया था, इसलिए प्रत्येक राज्य में कार्रवाई के आधार को ध्यान में रखा गया है। हालांकि,अदालत ने सात एफ़आईआर में से प्रत्येक को एक साथ करने और एक ही जगह स्थानांतरित करने पर सहमत हो गयी।

लेकिन,इसके ठीक उलट,जब पालघर में हुई मॉब लिंचिंग को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित होने वाले न्यूज़ शो को लेकर अर्नब गोस्वामी के ख़िलाफ़ कई एफ़आईआर दर्ज किये गये थे, तो 19 मई को इसी अदालत ने एक को छोड़कर सभी एफ़आईआर को खारिज कर दिया था। गोस्वामी को कुछ राहत देते हुए अदालत ने तब माना था कि एक ही घटना से जुड़े कई प्राथमिकी का दर्ज किया जाना "प्रक्रिया का एक दुरुपयोग" है और "स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के इस्तेमाल पर इसका अलटा असर" होगा।

एक दूसरे फ़ैसले में, 26 जून को सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की अवकाश पीठ ने ओपइंडिया के संपादक, नूपुर जे.शर्मा के ख़िलाफ़ दर्ज कई एफआईआर पर बिना किसी दलील को सुने पहली ही सुनवाई में एकतरफ़ा स्टे दे दिया था। अदालत ने इस पत्रकार के ख़िलाफ़ आगे होने वाली किसी और सख्त कार्रवाई पर भी  रोक लगा दी थी।

इन उदाहरणों से तो यही पता चलता है कि कथित हेट स्पीट के मामलों के साथ अदालत जिस तरह निपटने की प्रक्रिया अपनाती है,उसमें एक स्पष्ट विसंगति है। इस तरह की विसंगति से हेट स्पीच पर चल रहा विमर्श और कमज़ोर हो जाता है।

देवगन मामले में दिये गये फ़ैसले से अदालत की यह आशंका साफ़ तौर पर सामने दिखती है कि नफ़रत वाले भाषण की किसी सख़्त परिभाषा से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कमज़ोर हो सकती है। हालांकि अदालत ने व्यावहारिक रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नफ़रत फ़ैलाने वाली भाषा के बीच फ़र्क़ किया हुआ है, इसके बावजूद क्या मुनासिब है  और क्या ग़ैर-मुनासिब है,इससे जुड़े अमल को लेकर अब भी लगातार अस्पष्टता बनी हुई है।

यह मानते हुए कि हेट-स्पीच के दायरे को सख़्ती से परिभाषित करने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनावश्यक प्रतिबंध लग सकता है,लेकिन,इससे पहले कि कथित भड़काऊ भाषण का कोई भी मामले सामने आये,भारत में उच्चतम न्यायालय को कम से कम एक सतत प्रक्रियात्मक दृष्टिकोण बनाये रखने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए।

यह लेख मूल रूप से द लिफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(मणि चंदर नई दिल्ली स्थित एक वेशेवर वक़ील हैं। वह क्लिंच लीगल की फ़ाउंडिंग पार्टनर हैं और भारत के साथ-साथ संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क राज्य में वक़ालत करती हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Supreme Court’s Curious Judgment in the Amish Devgan Case: Numerous Questions

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