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क्या सीजेआई हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल कर सकते हैं?

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम या तो सिफ़ारिश को मंज़ूरी दे सकता है और उसे लागू करने के लिए भारत सरकार को भेज सकता है, या वह उच्च न्यायालय कॉलेजियम से असहमत हो सकता है और प्रस्ताव को स्थगित कर सकता है।
क्या सीजेआई हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल कर सकते हैं?

हाल ही में एक समाचार सुर्खियों में आया जिसमें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) ने अपने सदस्यों को भेजे गए एक संचार/पत्र के माध्यम से दावा किया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना ने सुप्रीम कोर्ट के वकीलों को न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनाने पर विचार करने के लिए एससीबीए द्वारा भेजे गए अनुरोध पर "सहमति" जताई है। 

एससीबीए ने अपने सदस्यों के साथ किए गए पत्र-व्यवहार में आगे खुलासा किया कि उसने योग्य और मेधावी सर्वोच्च न्यायालय के वकीलों की पहचान करने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए एक "खोज समिति" का गठन किया है। 

संचार या पत्र-व्यवहार, हालांकि, किसी भी उद्देश्यपूर्ण मानदंड को निर्दिष्ट करने में विफल रहा है, जिसका पालन "खोज समिति" द्वारा वकीलों के नामों को पदोन्नति के लिए चुनने में किया जाएगा।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत दूसरे और तीसरे न्यायाधीशों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से की जाती है। संक्षेप में कहा जाए तो उच्च न्यायालय कॉलेजियम, जिसमें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं, सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के एक नाम की सिफारिश करता है। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम, जिसमें मुख्य न्याधीश और दो वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं, हाई कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिशों पर अंतिम फैसला लेता है।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम या तो सिफारिश को मंजूरी दे सकता है और फिर उसे लागू करने के लिए भारत सरकार को भेज सकता है, या वह उच्च न्यायालय कॉलेजियम से असहमत हो सकता है या प्रस्ताव को स्थगित कर सकता है।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने की पात्रता की दो आवश्यकताएं होती हैं: संबंधित व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और कम से कम दस वर्षों तक उच्च न्यायालय में वकालत की होनी चाहिए या दो या उससे अधिक ऐसे न्यायालयों में वकील होना चाहिए। यदि संबंधित व्यक्ति अधीनस्थ न्यायपालिका से है, तो उसका कार्यकाल कम से कम दस वर्षों तक भारत के किसी भी न्यायिक कार्यालय का होना चाहिए।

भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से नियुक्ति की प्रक्रिया को दर्शाने वाला एक दस्तावेज मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) भी यही प्रावधान करता है कि यदि किसी राज्य का मुख्यमंत्री किसी व्यक्ति के नाम की सिफारिश करना चाहता है, तो उन्हें मुख्य न्यायाधीश के विचार के लिए उसे भेजना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे वकीलों को न्यायधीश बनाने की एससीबीए की चिंता जायज़ हो सकती है लेकिन इस मुद्दे को कैसे हल किया जाना है क्योंकि इसका कोई कानूनी आधार नहीं है।

सबसे पहले, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1993) [जिसे द्वितीय न्यायाधीशों के केस के रूप में जाना जाता है] में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि सर्वोच्च न्यायालय के मामले में नियुक्ति के प्रस्ताव की शुरुआत भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा, और उच्च न्यायालय के मामले में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जानी चाहिए। इस प्रकार, उच्च न्यायालय संबंधित नियुक्ति के प्रस्ताव की पहल करने की शुरुवात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को करनी चाहिए। इसके अलावा, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को उस अदालत के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से भी विचार करना होगा और उन्हें अपनी सिफारिश में शामिल करना चाहिए।

दूसरे, न्यायाधीशों के मामले में निर्धारित कानून जिसके माध्यम से कॉलेजियम प्रणाली अस्तित्व में आई है, वह एमओपी में भी प्रतिबिंबित होती है, जो नियुक्ति प्रक्रिया में एससीबीए जैसी निजी संस्था की भूमिका की परिकल्पना नहीं करती है। हालाँकि, यह ध्यान देने की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के वकील को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की चर्चा  हमेशा "अनौपचारिक" रूप से होती रही है। उदाहरण के लिए, अतीत में सर्वोच्च न्यायालय के कई वकीलों को उच्च न्यायालय में पदोन्नत किया गया है। उनमें से कई को अंततः सर्वोच्च न्यायालय में भी पदोन्नत किया गया था। जस्टिस बीएस चौहान, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस रवींद्र भट ऐसे उदाहरण हैं। यदि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के अनौपचारिक सुझावों को सुनने को तैयार नहीं होते तो उनकी नियुक्तियां संभव नहीं होतीं।

तीसरा, एससीबीए के संचार या पत्र-व्यवहार में स्पष्टता का अभाव है कि क्या इसकी खोज समिति सीजेआई को प्रस्ताव भेजने के लिए वकीलों के नामों का चयन करेगी, जो बदले में उन्हें सीधे उच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भेजेंगे। यह ध्यान देने की बात है कि जब तक उच्च न्यायालय कॉलेजियम से नाम नहीं मिलते, तब तक सीजेआई की कोई औपचारिक भूमिका नहीं हो सकती है। सीजेआई की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम उच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए प्रस्ताव की समीक्षा के लिए एक प्राधिकरण के रूप में काम करता है। यदि सीजेआई पहले उच्च न्यायालय को नाम भेजता है, तो यह प्रक्रिया में विचलन होगा, क्योंकि उच्च न्यायालय से सिफारिशें मिलने के बाद ही, सीजेआई फिर से कॉलेजियम में उनकी समीक्षा करने के लिए बैठता है।

इसके अलावा, अगर एससीबीए नामों पर विचार के लिए सीधे उच्च न्यायालय को नाम भेजने का फैसला करता है, तो किसी को भी यह आश्चर्य होगा कि आखिर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश किस आधार पर अपनी एक राय बनाएंगे जबकि सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले  वकील को संबंधित उच्च न्यायालय में बहस के दौरान देखा नहीं गया है।

एसीबीए का प्रस्ताव, अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो उच्च न्यायालय बार एसोसिएशनों की सुप्रीम कोर्ट में जजशिप के लिए नामों की सिफारिश करने की मांग को जन्म देगा, जो पूरी प्रक्रिया का राजनीतिकरण कर सकता है।

जैसा कि ऊपर बताया गया कानून इंगित करता है कि एसीबीए का प्रस्ताव उतना सरल नहीं है जितना यह लग सकता है। यह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विशेषाधिकार में भी हस्तक्षेप कर सकता है, जो कानून के तहत अकेले अपने दो सहयोगियों के परामर्श से नामों की सिफारिश करने का अधिकार रखता है।

हाई कोर्ट कॉलेजियम किस आधार पर नाम लेता है यह एक अलग मुद्दा है, जो न्यायाधीशों की गैर-पारदर्शी प्रक्रिया नियुक्ति का एक बड़ा मुद्दा है।

प्रक्रिया को पारदर्शी, समावेशी और उद्देश्यपरक बनाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों से आहवान किए जा रहे हैं।

उच्चतम न्यायालय के वकीलों के नामों को उच्च न्यायालय में पदोन्नत करने की सिफारिश के स्रोत को प्रदान करने और अधिकृत करने के लिए एमओपी में उपयुक्त संशोधन करके ही एससीबीए की चिंताओं का सबसे बेहतर समाधान किया जा सकता है। अटॉर्नी जनरल का कार्यालय, जो एससीबीए के विपरीत एक संवैधानिक कार्यालय है, को इस उद्देश्य के लूप में लिया जा सकता है।

यह ध्यान देने की बात है कि कानून के तहत एमओपी में किसी भी बदलाव पर सीजेआई और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले कॉलेजियम के सर्वसम्मत विचार की आवश्यकता होगी।

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(पारस नाथ सिंह दिल्ली स्थित वकील हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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