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क्यों मोदी का कार्यकाल सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में सबसे शर्मनाक दौर है

जब कोरोना की दूसरी लहर में उच्च न्यायालयों ने बिल्कुल सही ढंग से सरकार को जवाबदेह बनाने की कोशिश की, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस सक्रियता को दबाने की कोशिश की।
AAKAR

बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी का मौका सुप्रीम कोर्ट के लिए  एक मौका होना चाहिए कि जब कोर्ट इस पर विचार करे कि क्यों 2014 के बाद का समय इस संस्थान की साख के लिए सबसे खराब है। द लीफलेट ने आकार पटेल की हालिया किताब "प्राइस ऑफ द मोदी ईयर्स" से कुछ अंश पेश किए हैं जो इस अवधि में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर प्रकाश डालते हैं।

दोहरे पैमानों का न्याय

जैसा मेरी पिछली किताब "अवर हिन्दू राष्ट्र" में  मैंने विस्तृत तरीके से परीक्षण किया है, हमारी नयायपालिका हिन्दू चिंताओं को मोदी के काल में दूसरे धार्मिक विश्वासों पर ज्यादा वरीयता देती है।

उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर के संरक्षण पर 2 मई 2018 को फैसले में जस्टिस मिश्रा की सदस्यता वाली बेंच ने कहा कि मंदिर का लिंग "धार्मिक और दूसरी चीजों के लिए इतनी ज्यादा अहमियत रखता है कि संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 49 में वर्णित प्रावधानों के मुताबिक इसका संरक्षण करने का संवैधानिक कर्तव्य बनता है। ठीक इसी दौरान अनुच्छेद 51A के तहत यह मौलिक कर्तव्य भी है कि आपसी भाईचारे और शांति को बढ़ावा मिले।"

 लेकिन "लिंग" पर रोजाना हजारों लीटर पानी और दूध डालने से कोई सांप्रदायिक तनाव पैदा नहीं हुआ और ना ही आपसी भाईचारे को कोई नुकसान हुआ। यह साफ नहीं था कि यहां सुप्रीम कोर्ट की क्या भूमिका बनती है। लेकिन 2020 में अपने रिटायरमेंट से पहले मिश्रा ने केंद्र सरकार को शिवलिंग के रखरखाव के लिए 41.3 लाख रुपए देने का आदेश दिया।
उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से जरूरी परंपराओं का निर्वहन मंदिर में सबसे ज्यादा नजरअंदाज किया जाने वाला आयाम है और नए पुजारी इसे नहीं समझते हैं। ऐसा जारी नहीं रहना चाहिए। व्यावसायीकरण के लिए कोई जगह ही नहीं है। जरूरी धार्मिक परंपराओं और कार्यक्रम का नियमित आयोजन होना चाहिए। उन्होनें मंदिर समिति को सबसे स्वच्छ पूजन सामग्री का इस्तेमाल करने अपनी गौशाला को उन्नत करने को भी कहा ताकि बिना मिलावट का गाय का दूध इस्तेमाल किया जा सके।

 एक राज्य के लिए एक धर्म के खर्चे के वहन के अपने आदेश को न्यायोचित ठहराते हुए, जस्टिस मिश्रा की सदस्यता वाली बेंच ने कहा, "सभी धर्मों की धार्मिक परंपराओं, संस्कृति को संरक्षित करने और दिशा में कदम उठाने का संवैधानिक कर्तव्य है। इसी तरह ऐसे ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की जरूरत है। राज्य का कर्तव्य है कि वह ना सिर्फ पुरातत्व, ऐतिहासिक और प्राचीन धरोहरों का संरक्षण करें, बल्कि पवित्र स्थलों और देवताओं के स्थानों का भी संरक्षण करे।
 
यह बात कहते हुए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 27 को नजरंदाज कर दिया, जो कहता है, "किसी भी व्यक्ति को ऐसा कर देने पर बाध्य नहीं किया जा सकता, जिसके भुगतान का इस्तेमाल किसी खास धर्म या धार्मिक पहचान के प्रबंधन या प्रोत्साहन में हो।"

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा 2017 में दिए गए एक फैसले में, जस्टिस अरुण मिश्रा के इस तर्क को खारिज किया गया था, जिसमें मामला हिन्दू भीड़ द्वारा मुस्लिम धार्मिक  स्थल को तोड़े जाने से जुड़ा था। कोर्ट ने तब गुजरात हाई कोर्ट का फैसला बदला था, जिसमें राज्य सरकार को ऐसी तोड़ी गई मस्जिदों और दरगाहों को दोबारा बनाने की कीमत अदा करने के लिए कहा गया था. जस्टिस दीपक मिश्रा ने उस फैसले में बीजेपी सरकार की अपील मानी थी, जिसका तर्क था कि इस तरह के भुगतान से संविधान के अनुच्छेद 27 का उल्लघंन होता है। इससे हमें सुप्रीम कोर्ट की अजीबो गरीब स्थिति का पता चलता है, जहां कुछ ही महीनों  में हिन्दुओं के लिए दिया गया फैसला, मुस्लिमों के लिए दिए गए फैसले से अलग था।

अयोध्या और सबरीमाला के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में ऐसी ही विरोधाभासी स्थितियों को देखा गया। अयोध्या मामले में कोर्ट ने दलीलों को साबित करने का भार (बर्डेन ऑफ प्रूफ़) मुस्लिमों पर डाल दिया, जिनसे कहा गया कि वे साबित करें कि वे शताब्दियों  से उस जगह प्रार्थना कर रहे थे और उसका मलिकाना हक उनके पास था। जबकि हिन्दुओं द्वारा वहां प्रार्थना किए जाने की बात को बिना जांच पड़ताल के मान लिया गया।

कोर्ट ने भी अयोध्या पर अपील सुनने से इंकार कर दिया और हमेशा के लिए मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। लेकिन सबरीमाला मामले में, जहां कोर्ट ने पहले कहा था कि सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति होनी चाहिए (जहां महिलाओं को प्रवेश पर मनाही थी)। लेकिन यहां कोर्ट ने मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया। जो तय कानून के खिलाफ था। यहां कोई नया तथ्य पेश नहीं किया गया था, ना ही फैसले में कोई त्रुटि पर ध्यान केंद्रित करवाया गया था, जो इसे बड़ी पीठ के पास भेजा जाता। यह मनमुताबिक ढंग से किया गया।

 जब बोबडे मुख्य न्यायाधीश थे, तब उन्होंने एक युवा वकील, एक छात्र को पीठ को "योर ऑनर" कहने पर डपट लगाई थी। बोबडे ने नाराज होते हुए कहा, "जब तुम योर ऑनर कहते हो, तो तुम्हारे दिमाग अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट रहता है या सबंधित मजिस्ट्रेट।" क्षमा मांगते हुए अपीलकर्ता ने कहा कि वो "योर लॉर्ड्स" उपयोग करेगा। जवाब में बोबडे ने कहा, "जो भी है। लेकिन गलत शब्दावली का उपयोग मत करो।" बोबडे ने आगे मामले पर सुनवाई से इंकार कर दिया

यह हैरान करने वाला है कि बोबडे खुद उस पीठ में शामिल थे, जिसने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को माय लॉर्ड कहना जरूरी नहीं है, "योर ऑनर" पर्याप्त है। "आप हमें सर कहें, वह मान्य है, आप योर ऑनर कहें, वह मान्य है, आप योर लॉर्डशिप कहें, वह भी मान्य है।"

लेकिन ऐसा जनवरी, 2014 में कहा गया था, तब मोदी के कार्यकाल ने न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट को संक्रमित नहीं किया था।

इस तरह की सूची लंबी है। कोरोना में जब हाईकोर्टों ने बिल्कुल सही ढंग से सरकारों को अयोग्य ठहराया, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस सक्रियता को दबाने की कोशिश की। जब हाई कोर्ट की सक्रियता की वजह से सरकार दबाव में आई, तो बोबडे के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया। इसे ऐसे देखा गया जैसे यह उच्च न्यायालयों से केसों को वापस लिया गया हो और    ज्यादा सुरक्षित और बात मानने वाले हाथों में सौंपा गया हो। लेकिन इसकी इतनी आलोचना हुई कि बोबडे को पीछे हटना पड़ा।

यह तब था जब रोज हजारों लोग मर रहे थे, वह बीमारी से नहीं, बल्कि ऑक्सीजन, मेडिसिन और अस्पतालों में सुविधाओं की कमी से, जिसे इस बेपरवाह सरकार ने ठीक करने की जरूरत नहीं समझी थी। तब न्यायिक व्यवस्था ने मोदी को जवाबदेह बनाने का बीड़ा उठाया। लेकिन यह छोटी सी कवायद भी बहुत देर से हुई। इतिहास बताएगा कि मोदी का कार्यकाल, भारतीय न्यायपालिका के लिए सबसे शर्मनाक दौर था।

यह आकार पटेल द्वारा लिखी गई किताब "प्राइस ऑफ मोदी ईयर्स" के अंश हैं। इसे वेस्टलैंड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। (इंप्रिंट: वेस्टलैंड नॉन फिक्शन)। यह अनुमति के बाद प्रकाशित किया गया है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why the Modi Years Have Been the Most Shameful Period in the History of the Indian Supreme Court

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