विरोध प्रदर्शन को आतंकवाद ठहराने की प्रवृति पर दिल्ली उच्च न्यायालय का सख्त ज़मानती आदेश
कविता कृष्णन कहती हैं, “दिल्ली उच्च न्यायालय के जमानती आदेश पिछले साल से लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं के द्वारा कही जा रही बातों की पुष्टि करते हैं कि दिल्ली पुलिस की जाँच स्पष्ट रूप से पूर्वाग्रहग्रस्त है और सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों, विशेष रूप से अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय से संबंधित लोगों को झूठे आरोपों में आरोपी बनाने के लिए एक शानदार षड्यंत्र बुना गया है। उन्हें उन्हीं “दंगों” में जिसे उनके खिलाफ नियोजित और लक्षित किया गया था, में शिकार बनाया गया था।”
दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली दंगों के मामलों में यूएपीए के तहत आरोपित तीन छात्र कार्यकर्ताओं - आसिफ इक़बाल तन्हा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को रिहा करने का आदेश दिया है। तीनों ने दिल्ली दंगों के सिलसिले में अन्य प्राथमिकी में जमानत हासिल कर ली थी, लेकिन गैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत लगे आरोपों के कारण वे अभी भी जेल बंद थे।
जब ये तीनों जेल से बाहर निकले तो तिहाड़ जेल के बाहर का वातावरण भावनाओं से ओतप्रोत हो गया था। सबसे अधिक नताशा के पिता महावीर नरवाल की अनुपस्थिति को महसूस किया जा रहा था, जो अपनी बेटी की रिहाई को देख पाने से पहले ही कोरोनावायरस के शिकार हो चुके थे।
आसिफ के फेस मास्क पर चित्रित नारे जो (दृढ़तापूर्वक सीएए-एनपीआर-एनआरसी को ना कह रहे थे), और तीनों युवा आवाजों द्वारा नारेबाजी ने उम्मीद की एक चिंगारी को जला दिया था, जबकि हम यह जानते थे कि हो सकता है कि ऐसा ज्यादा लंबा न चले, क्योंकि दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुकरणीय फैसले द्वारा खोली गई खिड़की को बंद करने की कोशिशें जारी हैं।
निश्चित रूप से अगले ही दिन, सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने अभियोजन पक्ष की अपील पर सुनवाई की जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेशों पर रोक लगाने की मांग की गई थी।
जहाँ एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय आदेश पर रोक लगाने के लिए सहमत नहीं था और तीनों छात्रों को जमानत पर बाहर बने रहने की अनुमति को बरक़रार रखा, वहीँ उसके द्वारा जमानत के आदेशों को एक तहखाने में बंद करते हुए यह आदेश दिया कि जब तक अपील पर फैसला नहीं सुनाया जाता, तब तक इन्हें अन्य यूएपीए के जमानत मामलों के लिए एक नजीर के तौर पर पेश किये जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसलिये फिलहाल एक महीने तक के लिये सर्वोच्च न्यायालय के पास फैसला लंबित रहने तक अन्य यूएपीए कैदी दिल्ली उच्च न्यायालय के जमानत आदेशों का लाभ नहीं उठा सकते हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश बेहद अहम क्यों हैं?
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश क्या कहते हैं, और वे इतने अहम क्यों हैं? वास्तव में देखें तो, उन आदेशों को भारत के हर गाँव, झुग्गी, हर मोहल्ले में पढ़ा और उन पर चर्चा की जानी चाहिए।
भारत में गरीब समुदाय पुलिस द्वारा निर्दोष लोगों को फंसाने, झूठे कबूलनामे के लिए यातना देने, और हिरासत के दौरान बर्बरता में लिप्त रहने की आदतों से भलीभांति परिचित है।
लेकिन जब मीडिया द्वारा पुलिस और उनके राजनीतिक आकाओं के लिये स्टेनोग्राफर और प्रचारक के तौर पर कार्य किया जाता है, और व्यक्तियों और समूचे अल्पसंख्यक समुदाय (जैसे मुसलमानों, सिखों और आदिवासियों) के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को “आंतकवादियों” के तौर पर बदनाम करता है, तो ये समुदाय शायद ही कभी सार्वजनिक तौर पर पुलिस और मीडिया के कर्णभेदी स्वरों पर संदेह व्यक्त करने का भरोसा जुटा पाते हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेशों को यदि ढंग से समझा जाए, तो यह प्रत्येक भारतीय को अपने अधिकारों को बेहतर ढंग से समझने के लिये तैयार कर सकते हैं, और पुलिस एवं राज्य द्वारा मढ़े गए आरोपों को सटीक मानदंड के आधार पर आकलन करना सीख सकते हैं।
यूएपीए और वटाली: अनिश्चितकाल तक बंदी बनाकर रखने वाला नुस्खा
सारे देश भर में पुलिस बलों के लिये नवीनतम संसोधनों के साथ यूएपीए को लागू करने के लिए, असहमति की आवाजों को लंबे, अनिश्चित काल तक, बिना मुकदमे के और जमानत मिलने की बेहद क्षीण संभावनाओं के साथ कैद करने के लिए एक बेहतरीन औजार के तौर पर काम करता है।
यूएपीए इस प्रकार से काम करता है कि इसमें वैधानिक तौर पर परीक्षण-पूर्ण बंदी बनाये गए आरोपी की निंदा करता है, क्योंकि इसमें पुलिस के पास मामले की जाँच के लिये (सीआरपीसी के तहत आमतौर पर 60 से 90 दिनों) के बजाय 180 दिनों की अवधि तक हिरासत में रखने का प्रावधान है, और इसके अलावा जो लोग यूएपीए के तहत आरोपी हैं, वे जमानत पाने के हकदार नहीं हैं, यदि अदालत की राय है कि “ऐसा विश्वास करने के उचित आधार मौजूद हैं कि उक्त व्यक्ति के खिलाफ लगाये गए आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं”।
उत्तरार्ध वाला विचार वटाली मामले में (राष्ट्रीय जांच एजेंसी बनाम ज़हूर अहमद शाह वटाली) सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से निकलता है।
इसका आशय यह हुआ कि जमानत की याचिका पर सुनवाई करने वाली अदलात सिर्फ अभियोजन पक्ष की ही सुनवाई कर सकती थी, और अभियोजन पक्ष के आरोपों को उनके मुहँ पर स्वीकार करने के लिए वह बाध्य थी, जबकि अभियुक्त द्वारा अपने बचाव में पेश की गई किसी भी दलील को सुनने से उसे क़ानूनी तौर पर रोक दिया गया था।
इसलिए भले ही यूएपीए के तहत फर्जी “तथ्यों” के आधार पर “आतंकवाद” का आरोप मढ़ा जाता था, तो ऐसे में आरोपी द्वारा दाखिल जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत इस बात पर विचार नहीं कर सकती थी कि सुबूत फर्जी हैं या नहीं हैं। अदालत को सिर्फ इस बात की जांच का अख्तियार था कि क्या आरोप “देखने में सत्य प्रतीत हो रहे हैं या नहीं”, बगैर इसके “चेहरे से परे” देखे हुए।
बिना ज़मानत के कारावास
वास्तव में इसका अर्थ यह हुआ कि यूएपीए के तहत कैदियों को बिना जमानत के कई वर्षों तक हिरासत में रखा जा रहा है, क्योंकि जाँच एजेंसी निरंतर जांच के बहाने मुकदमे की सुनवाई की प्रक्रिया को लगातार लंबा खींचती रहती है।
हमने देखा है कि भीमा कोरेगांव मामले में और दिल्ली दंगों के मामले के साथ ही साथ देश भर में निहत्थे प्रदर्शनकारियों से जुड़े कई अन्य मामलों में कैसे यूएपीए का इस्तेमाल विरोध की आवाज को आपराधिक साबित करने और प्रदर्शनकारियों को दंडित करने में किया जाता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के दिल्ली दंगों के मामलों में यूएपीए के तहत हिरासत में रखे गए तीन छात्रों को जमानत दिए जाने के आदेश ने आखिरकार मुद्दों को स्पष्ट कर दिया है, और उन संवैधानिक सिद्धांतों पर जोर दिया है जिन्हें यूएपीए के मामलों सहित सभी मामलों में जमानत की सुनवाई में बरकरार रखे जाने की आवश्यकता है। जमानत पर उनकी रिहाई के आदेश देते वक्त उन आदेशों ने दंगों में समूची दिल्ली पुलिस की जांच के खोखलेपन और बदले की कार्यवाई को उजागर करके रख दिया है।
वटाली मामले पर दिल्ली उच्च न्यायालय का जवाब
दिल्ली उच्च न्यायालय ने जो व्याख्या की है वह संभवतः अभियुक्तों के सांविधिक अधिकारों के पक्ष में यूएपीए के सबसे बदतरीन पहलुओं को उजगार करने वाला साबित हुआ है। आसिफ इक़बाल तन्हा के जमानत आदेश में इसने इंगित किया है कि टाडा और पोटा कानूनों में अदालतों को जमानत देने से पहले आरोपी व्यक्तियों को प्रथमदृष्टया “दोषी नहीं” पाए जाने की जांच करनी पडती है। इसके विपरीत, यूएपीए में अदालतों को “जमानत याचिका के बारे में निर्णय लेने के चरण में सबूतों के गुण और दोषों की जांच में पैठने” से रोकता है (जैसा कि वटाली के मामले में व्याख्या की गई थी) और खुद को दोषियों के खिलाफ लगाये गए आरोप क्या प्रथमदृष्टया तर्कसंगत लग रहे हैं या नहीं तक सीमित कर देता है।)
यहाँ पर इसका यह आशय समझने कि अदालत को अभियोजन पक्ष के द्वारा लगाये जा रहे आरोपों को “प्रथमद्रष्टया सत्य” मानकर आँख मूंदकर स्वीकार कर लेने के बजाय दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला करते वक्त अपने मष्तिष्क का इस्तेमाल करते हुए उन आरोपों की पड़ताल की है कि क्या वे आरोप यूएपीए के तहत आरोपों को लगाने के लिए तार्किक रूप से उचित हैं या नहीं हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय का कहना है कि जिस प्रकार से अदालत को जमानत के चरण में उन सुबूतों की जांच करने से रोका जाता है जो आरोपी को “दोषी नहीं” होने को प्रमाणित कर सकते हैं, उसी प्रकार से यह अपेक्षा की जाती है कि अभियोजन पक्ष के सिर्फ आरोपों के अलावा कुछ भी अलग देखने से परहेज किया जाना चाहिए।
अदालत उन किसी भी निष्कर्षों को नहीं देख पा रही है जिसे अभियोजन पक्ष सुबूतों के आधार पर निकालने का दावा कर रहा है। और दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि आसिफ, नताशा और देवांगना के खिलाफ दायर चार्जशीट में उन पर सिर्फ व्हाट्सएप ग्रुप्स में जुड़े होने का दोषी पाया गया है, या ऐसे एक व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिनिस्ट्रेटर में से एक को सिम कार्ड की व्यवस्था करने का दोषी करार दिया गया है, जो सीएए कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने की योजना बना रहे थे, लोगों को विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित कर रहे थे इत्यादि। इसके साथ ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष के तौर पर इन्हें “आतंकी” कार्य की किसी भी तार्किक परिभाषा के लिए कहीं डॉ भी तर्कसंगत नहीं पाया है, जिसके लिए यूएपीए को बनाया गया है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस के विशिष्ट एवं तार्किक आरोपों की कमी को पूरा करने की कोशिशों को लेकर जिस प्रकार के शब्दों में कड़ा रुख दिखाया है, वह हैरान और अवाक कर देने वाला साबित हुआ है। इसमें कहा गया है “उक्त चार्जशीट में सिर्फ खतरनाक और अतिशयोक्ति पूर्ण शब्दाडंबरों का इस्तेमाल कर देने मात्र से” किसी भी विशिष्ट, विशेषीकृत, तथ्यात्मक आरोपों के पूर्ण अभाव को पूरा नहीं कर सकता है, अर्थात इच्छित आरोपों के अलावा बाकी आरोप मात्र आडंबरपूर्ण शब्दों से बुने गए हैं”।
चक्काजाम (सडकों या हाईवे पर जाम लगाने) के हिंसक हो जाने के बारे क्या आरोप हैं? वहां भी फिर से दिल्ली उच्च न्यायालय ने बेहद तार्किक टिप्पणी की है: सामान्य दंड संहिता (जिसके तहत अभियुक्तों पर पहले से ही आरोप लगाया जा चुका है, पर जमानत हासिल कर चुके हैं, और इसमें मुकदमे का इंतजार किया जा रहा है) जो ऐसे कृत्यों से निपटने के लिये पर्याप्त हैं। आसिफ के जमानत आदेश पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा “बेवजह दंड संहिता के प्रावधानों का इस्तेमाल सिर्फ उन्हें महत्वहीन बना देने वाला साबित होगा।
नजीब जमानत आदेश: अनिश्चितकालीन कारावास पर रोक
दिल्ली उच्च न्यायालय ने के.ए नजीब मामले में सर्वोच्च न्यायालय के केरल उच्च न्यायालय के फैसले में जमानत दिए जाने को बरक़रार रखे जाने को याद किया। अभियोजन पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे एएसजी ने तर्क दिया कि नजीब का आदेश इस आधार पर दिया गया था कि आरोपी पहले से ही काफी लंबे समय से कारावास में समय बिता चुका था और सुनवाई के पर्याप्त समय में पूरा हो जाने की संभावना नहीं थी। एएसजी ने तर्क दिया कि दिल्ली दंगों के मामले में यह (अभी तक) नहीं था। इसके प्रतिउत्तर में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने जवाब तलब किया: क्या इस अदालत को फिर तब तक का इंतजार करना चाहिए जब तक कि अपीलकर्ता लंबे वक्त तक जेल में बंद न रहे, यह देखने में सक्षम होने के लिए कि किसी भी निकट भविष्य में अभियोजन पक्ष के 740 गवाहों की गवाही को पूरा करना असंभव होगा, विशेषतौर पर प्रचलित महामारी को देखते हुए जब अदालत की सभी कार्यवाहियां प्रभावी तौर पर ठप्प पड़ी हैं? क्या इस अदालत को तब तक इंतजार करना चाहिए जब तक संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अपीलकर्ता के त्वरित न्याय पाने के गारंटीशुदा अधिकार को पूरी तरह से नकार नहीं दिया जाता, जबतक कि वह इस प्रकार के उल्लंघन के बारे में नहीं जागता और सवाल नहीं उठाता? हमें बिल्कुल भी नहीं लगता कि यह कार्यवाई का वांछनीय तरीका होगा। हमारे विचार में अदलात को निश्चित तौर पर दूरदर्शिता का इस्तेमाल करना चाहिए और देखना चाहिए कि उक्त चार्जशीट में मुकदमे को आने वाले कई-कई वर्षों तक निष्कर्ष पर पहुँचने का इंतजार नहीं करना चाहिए; जो के.ए. नजीब मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरुपित सिद्धांतों के कार्यान्यवन को प्रमाणिक ठहराता या कहें निमंत्रित करता है।”
लोकतंत्र के लिए खतरा
नताशा और देवांगना के जमानत आदेश में दिल्ली उच्च न्यायालय ने बेहद स्पष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हुए संकेत दिया है कि इन तीनों आरोपियों के खिलाफ दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में विरोध का आपराधिककरण किये जाने की मांग करके लोकतंत्र के लिए खतरे के तौर पर चित्रित किया गया है।
नताशा के जमानत आदेश में अदालत ने कहा है: “हम यह व्यक्त करने के लिये विवश हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य के दिमाग में असंतोष की आवाज को दबाने की चिंता में, संवैधानिक तौर पर गारंटीशुदा विरोध के अधिकार और आतंकी गतिविधि के बीच की रेखा लगता है कहीं गड्डमड्ड सी हो गई है। यदि इस प्रकार की मानसिक वृत्ति को बल मिला तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा।”
देवांगना के जमानत आदेश में यह कहा गया है: “हमें डर है कि हमारी राय में, अभियोजनकर्ता एजेंसी द्वारा बेफिजूल की शब्दावली, अतिशयोक्ति और अभिप्रायों को बेमतलब में खींचा गया है, जबकि अपीलकर्ता के खिलाफ लगाये गए तथ्यात्मक आरोप प्रथमदृष्टया यूएपीए की धारा 15, 17 और/या 18 के तहत किसी भी अपराध की स्वीकृति का कोई भी खुलासा नहीं करते हैं।
“हम यह कहने के लिए बाध्य हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि असहमति को दबाने की अपनी चिंता में और इस भय में जकड़े हुए कि मामला हाथ से कहीं बाहर न चला जाए, राज्य ने संवैधानिक रूप से गारंटीकृत ‘विरोध के अधिकार’ और ‘आतंकवादी गतिविधि’ के बीच की रखा को धुंधलका बना दिया है। यदि इस प्रकार के धुंधलके ने आकार ग्रहण किया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा।
दिल्ली पुलिस ने अभी तक कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर और अन्य भाजपा एवं आरएसएस नेताओं के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं की है, जिन्होंने भीड़ से प्रदर्शनकारियों को गोली मारने और हत्या करने का आह्वान किया था और दिल्ली की सडकों पर हिसंक, हथियाबंद भीड़ का नेतृत्व किया था।
जहाँ प्रत्येक यूएपीए कैदी को दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश में उल्लिखित सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए जमानत मिलनी चाहिए, जो अकेले ही न्याय को निर्धारित नहीं करता है। न्याय की मांग है कि दिल्ली पुलिस की जांच को पूरी तरह से रद्द कर दिया जाये और इसके स्थान पर दिल्ली उच्च न्यायालय की निगरानी में एक नई जांच की जाए। इसके अलावा, निर्दोषों को एक ऐसी चार्जशीट की बिना पर गिरफ्तार करने के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों को जिसमें “निरर्थक शब्दाडंबर” के सिवाय कुछ नहीं है, को दंडित किया जाये। इन सबसे जरुरी, इस मह्मारी के दौर में हर उस मजबूर व्यक्ति को जिसे दिल्ली पुलिस द्वारा प्रतिशोध और राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते कैद में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है, उन सभी को उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए।
टाडा या पोटा के तहत किसी आरोपी के ‘दोषी नहीं’ होने से ‘संतुष्ट होने की जरूरत का अर्थ हुआ कि अदालत के पास अपराध से बाहर करने के लिए प्रथमदृष्टया तर्क होने चाहिए, जबकि यूएपीए के तहत किसी आरोप को ‘प्रथमदृष्टया सच’ मानने की आवश्यकता का अर्थ यह होगा कि अदालत के पास प्रथमदृष्टया आरोपी व्यक्तियों के अपराध को स्वीकार करने के कारण होने चाहिए, भले ही उनका आधार व्यापक संभावनाओं पर ही क्यों न टिका हो;
वटाली वाले मामले में सर्वोच्च न्यायलय का फैसला अदलात को जमानत याचिका पर निर्णय लेने के चरण में सुबूतों के गुण-दोष की गहराई में जाने से रोकता है; और एक अनुक्रमक के तौर पर, आरोपों की प्रथमदृष्टया सत्यता का आकलन करने के लिए, अदालत को उसी प्रकार से अभियोजन पक्ष द्वारा दाखिल चार्जशीट में जिन साक्ष्यों एवं अन्य सामग्रियों को पेश किया गया है उनसे जो संदेह और अभिप्राय निकालने की कोशिश की जा रही है, उस पर तल्लीन न होने का अख्तियार है। इसलिए यूएपीए के अध्याय IV के भीतर अपने केस को लाने के लिये, राज्य को निश्चित तौर पर अदालत को अभिप्राय और निष्कर्षों को न निकालने का आह्वान करते हुए, यह साबित करना चाहिए कि अपीलकर्ता के खिलाफ लगाये गए आरोप प्रथमदृष्टया एक ‘आतंकवादी कृत्य’ या ‘’षड्यंत्र’ या एक आतंकी कृत्य को ‘अंजाम देने वाले कार्यों’ की स्वीकारोक्ति का खुलासा करते हैं।
यह लेख मूल रूप से द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।
(कविता कृष्णन ऐपवा की सचिव और सीपीआईएमएल की पोलितब्यूरो सदस्या हैं। लेख में व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।)
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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