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टी.बी. के मरीज़ों के मामले में उत्तर प्रदेश आज भी "पहले नंबर पर"

"आर्थिक अभाव से जूझता एक मज़दूर यदि किसी दिन मज़दूरी पर न जाए तो उसके लिए रोटी का संकट पैदा हो जाता है और यही मजबूरी उसको अपनी बीमारी के प्रति जागरुक होने नहीं देती।"
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आंकड़े बताते हैं कि देश में टी.बी. (क्षय रोग या तपेदिक) का हर पांचवां मरीज उत्तर प्रदेश से होता है यानी टी.बी. के मरीजों के मामले में यूपी पहले नंबर पर है, अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा टी.बी. के मरीज उत्तर प्रदेश में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2030 तक विश्व को टी.बी. मुक्त बनाने का लक्ष्य तय किया है जबकि भारत सरकार कहती है कि हम 2025 तक देश को टी.बी. मुक्त बना देंगे। प्रदेश स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश के सामने है हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दावा है कि इन तीन वर्षों (2025) के भीतर केंद्र सरकार के लक्ष्य को पूरा करते हुए उत्तर प्रदेश टी.बी. मुक्त बन जायेगा जबकि विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरी तरह से टी.बी. मुक्त होना तो असंभव है हां बढ़ते मामलों को कम जरूर किया जा सकता है लेकिन यह मान लेना कि तीन सालों के अंदर प्रदेश टी.बी. मुक्त हो जायेगा तो यह संभव नहीं। टी.बी. के मरीजों की वास्तविक स्थिति का जायजा लेने, उनको मिलने वाले पोषण भत्ते की सच्चाई जानने और बढ़ते टी.बी. के मामलों तथा उन्मूलन के संबंध में विशेषज्ञ की राय जानने के लिए यह रिपोर्टर पहुंची राजधानी लखनऊ के ठाकुरगंज स्थित टी.बी. अस्पताल।

हर रोज़ आते हैं सैंकड़ो मरीज़

लखनऊ के ठाकुरगंज स्थित संयुक्त चिकित्सालय के टी.बी. विभाग में हर रोज सैकड़ों मरीजों के आने का सिलसिला लगा रहता है। (स्वास्थ्य विभाग की टी.बी. मरीज सर्वे रिपोर्ट बताती है कि सबसे ज्यादा टी.बी. रोगी लखनऊ में हैं) उस दिन भी मरीजों की खासी भीड़ थी, जिस दिन यह रिपोर्टर हालात का जायजा लेने अस्पताल पहुंची थी। तस्वीर बेहद तकलीफ़देह थी। टी.बी. के मरीजों में न केवल उम्रदराज या अधेड़ आयुवर्ग के लोग शामिल थें बल्कि बच्चे और व्यस्क भी शामिल थें। इसी भीड़ से अलग हॉल के एक कोने में बमरौली गांव (लखनऊ) से आई संगीता अपने बीमार पति के साथ बैठी अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रही थी। संगीता से बात करने पर पता चला कि टी.बी. हो जाने के कारण उसका पति पिछले चार महीनों से बेरोजगार है। बस किसी तरह कर्ज लेकर इलाज हो रहा है। वह कहती हैं बात केवल इलाज की नहीं है दवाओं के साथ-साथ अच्छी और पौष्टिक खुराक भी तो चाहिए तभी टी.बी. के मरीज ठीक हो सकते, यह बात डॉक्टर समझाते हैं। संगीता कहती है उसका पति एक मजदूर है, अब जब तक टी.बी. का इलाज चल रहा है तब तक मजदूरी तो पति कर नहीं पाएंगे तो आखिर पैसा कहां से आएगा तो कर्ज लेना मजबूरी हो गई है। उदास भाव से वह कहती हैं, टी.बी. के मरीज को काम भी कौन देगा, एक तो शरीर भी कमजोर पड़ जाता है दूसरा भेदभाव झेलना पड़ता है सो अलग। संगीता कहती हैं डॉक्टर तो समझाते हैं कि टी.बी. के मरीज से दूर भागने की जरूरत नहीं और किसी के नजदीक भर जाने से दूसरे को टी.बी. नहीं हो जायेगा लेकिन फिर भी लोग इसे छूत की बीमारी मानकर मरीज से दूर भागते हैं तो भला काम कौन देगा?

संगीता के बाद हमारी मुलाकात निगोहां की रंजीता, ठाकुरगंज की संजना और लखनऊ की मुज़ाहिदा से हुई। रंजीता अपनी 21 वर्षीय बहन का इलाज करवाने तो मुज़ाहिदा अपनी 18 साल की बेटी के इलाज के लिए अस्पताल आई थीं जबकि संजना खुद टी.बी. से ग्रसित थीं। रंजीता ने बताया कि नौ महीने तक पहले बहन का इलाज निजी अस्पताल में चला लेकिन अब आर्थिक तंगी के चलते प्राइवेट में इलाज संभव नहीं रहा तो सरकारी अस्पताल चले आये लेकिन यहां आये दिन होने वाली मरीजों की भीड़ से वह कुछ परेशान भी दिखीं। रंजीता कहती हैं लंबे इंतज़ार के बाद नंबर आता है लेकिन सरकारी अस्पताल है तो दवाईयां मुफ्त में मिल जाती हैं। वह कहती हैं सरकारी अस्पताल आने पर इस सच्चाई का भी पता चलता है कि अभी भी एक बड़ी जनसंख्या किस कदर टी.बी. से ग्रसित है।

रंजीता की तरह मुज़ाहिदा भी इस बात से हैरान हैं कि अब जबकि टी.बी. कोई लाइलाज बीमारी नहीं रही उसके बावजूद इसकी रोकथाम क्यों नहीं हो पा रही। वह कहती हैं उनकी बेटी में टी.बी. का अभी एकदम शुरुआती लक्षण पाया गया है इसलिए डॉक्टर कहते हैं कि उसकी टी.बी. जड़ से खत्म हो जायेगी। मुज़ाहिदा बताती हैं कि अस्पताल में आने वाले कई ऐसे मरीज उन्होंने देखे हैं जिनकी टी.बी. बहुत क्रिटिकल स्टेज में पहुंच गई है और इसका कारण हैं उनका समय रहते अपनी बीमारी के प्रति जागरुक नहीं होना या डॉक्टर की बताई बातों का पालन न करना। मुज़ाहिदा की यह बात किसी भी लिहाज से अतार्किक नहीं, चूंकि वे स्वयं एक संपन्न और शिक्षित परिवार से आती हैं तो अपनी बेटी की बीमारी के प्रति शुरुआती लक्षण आने में ही जागरुक हो गई जबकि अधिकांश मामलों में ऐसा होता नहीं दिखता। टी.बी. के मरीजों के लिए सरकार ने 500 रुपये का पोषण भत्ता भी निश्चित किया है लेकिन जब कई मरीजों या मरीजों के साथ आये उनके तीमारदारों से इस बाबत बात हुई तो सब ने पोषण भत्ता नहीं मिलने की बात कही। बहुत तो ऐसे थें जिन्हें इसकी जानकारी तक नहीं थी यानी ये दशा यह बताती है कि यह योजना बस कागजों तक सीमित है।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ ?

उत्तर प्रदेश में क्यों टी.बी. के मामले बढ़ते जा रहे हैं? क्या प्रदेश 2025 तक पूरी तरह टी.बी. मुक्त हो पायेगा? चिकित्सा के क्षेत्र और सरकार के स्तर पर इसकी रोकथाम के लिए क्या ठोस उपाय किये जा रहे हैं? इन सवालों के जवाब के लिए हम पहुंचे अस्पताल के चेस्ट एवं टी.बी. विशेषज्ञ और वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ.एस.पी. सिंह के पास। उन्होंने बताया कि पुनरीक्षित राष्ट्रीय क्षय नियंत्रण कार्यक्रम के तहत गांव-गांव में अभियान चलाकर टी.बी. रोगी चिन्हित किए जाते हैं और उनका उपचार किया जाता है। उनके मुताबिक अस्पताल में हर रोज तकरीबन 700 से 800 टी.बी. के मरीज आते हैं, जो एक काफी बड़ा आंकड़ा है। डॉ.सिंह कहते हैं आने वाले टी.बी. के मरीजों में बच्चे भी शामिल हैं और युवा भी हैं जो काफी चिंता की बात है। प्रत्येक दिन करीब सौ की संख्या तो केवल बच्चों की ही रहती है जो चुनौतीपूर्ण विषय है। जब उनसे ये पूछा गया कि प्रदेश में टी.बी. मरीजों के बढ़ने की वजह क्या है और इसके रोकथाम के लिए क्या कुछ ठोस किया जा रहा है, तो वे इस सवाल के जवाब में कहते हैं टी.बी. बढ़ने का सबसे बड़ा और जरूरी कारण तो है बीमारी के प्रति लोगों में जागरुकता की भारी कमी का होना और यह जागरुकता तब आती है जब रोग मजबूती से शरीर को अपने जकड़न में ले लेता है। चूंकि टी.बी. की बीमारी एक से दूसरे में फैलती है तो इस कारण भी लोग इसे छुपाने की कोशिश करते हैं और नतीजा यह सामने आता है कि जो बीमारी अभी तक एक शरीर में थी वह दस शरीर तक पहुंच जाती है।

डॉ. एस.पी.सिंह

डॉ.सिंह के मुताबिक ज्यादातर ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में रहने वाले श्रमिक और गरीब तबके के भीतर यह बीमारी अपनी जड़े जमाये हुये है, आर्थिक अभाव से जूझता एक मजदूर यदि किसी दिन मजदूरी पर न जाये तो उसके लिए रोटी का संकट पैदा हो जाता है और यही मजबूरी उसको अपनी बीमारी के प्रति जागरुक होने नहीं देती, दूसरा बीमारी बढ़ने का कारण है झोला छाप डॉक्टरों से इलाज करवाना जिससे रोग तो ठीक नहीं होता उल्टे कभी-कभी ऐसे स्टेज में पहुंच जाता है जहां इलाज बेहद मुश्किल हो जाता है। वे कहते हैं पहले मरीज टी.बी. के शुरुआती लक्षणों को गंभीरता से नहीं लेता उसे सामान्य फ्लू मानकर नजरअंदाज करता है या फ्लू के मुताबिक दवा का सेवन करने लगता है जो घातक साबित होता है क्योंकि तब तक बीमारी फेफडो तक पहुंच जाती है, लेकिन समस्या केवल यहीं तक नहीं सबसे बड़ा मसला तो मरीज का बीच में ही इलाज छोड़ देना है। उनके मुताबिक कुछ महीने दवा खाने के बाद जब मरीज थोड़ा ठीक महसूस करने लगता है तो वह दवाओं का कोर्स बीच में छोड़ देता है। उसे लगता है कि उसके साथ अब सब कुछ ठीक है लेकिन मरीज यह नहीं समझ पाता कि टी.बी. अभी भी उसके शरीर में मौजूद है जो फिर एक जटिल रूप में आ सकती है और यही कारण है कि पुनः मरीजों की संख्या बढ़ने लगती है।

डॉ.सिंह कहते हैं, केवल दवाओं का ही सेवन काफी नहीं है। दवाओं के साथ भरपूर पौष्टिक आहार भी बेहद जरूरी है जो गरीब वर्ग के लिए ले पाना मुश्किल होता है और इस कारण भी उनकी बीमारी समय रहते ठीक नहीं हो पाती इसके साथ ही कई ऐसे मरीज होते हैं, खासकर गरीब, श्रमिक तबके में, जो शराब के बेहद आदि होते हैं और दवा के साथ-साथ शराब का सेवन भी करने लगते हैं जो उनके लिए बेहद खतरनाक साबित होता है और इस वजह से कई बार देखा गया है कि ठीक होने वाले मरीजों में टी.बी. दोबारा घर कर लेती है जिसे रिलैप्स टी.बी. कहा जाता है और यह अत्यधिक शराब पीने, धूम्रपान करने वालों के अलावा मधुमेह रोग से पीड़ित लोगों में ज्यादा होता है इसलिए भी काबू के बावजूद फिर एकाएक टी.बी. मरीजों की संख्या पुनः बढ़ने लगती है।

समय समय पर सरकारी कार्यक्रम चलाने और टी.बी. के मरीजों की बड़े पैमाने पर खोज के बावजूद आख़िर प्रदेश क्यों नहीं टी.बी. मुक्त हो पा रहा है, इस सवाल के जवाब में डॉ.सिंह कहते हैं, हां बेशक यह एक चिंता का विषय है और यह भी कि तामाम प्रयासों के बावजूद आज भी उत्तर प्रदेश टी.बी. के मरीजों के मामले में पहले स्थान पर है लेकिन डॉ.सिंह के मुताबिक टी.बी. मरीजों की ज्यादा से ज्यादा संख्या का सामने आना एक संतोषजनक बात भी है और वो इसलिए कि जितनी बड़ी संख्या में मरीज सामने आएंगे तो उनका इलाज करके उतनी जल्दी प्रदेश को टी.बी. मुक्त बनाने की ओर बढ़ा जा सकेगा इसलिए एक बड़ी कोशिश है कि अधिक से अधिक टी.बी. मरीजों को चिन्हित कर उनका इलाज शुरू किया जा सके। तो क्या उत्तर प्रदेश 2025 तक पूरी तरह टी.बी. मुक्त प्रदेश बन पायेगा, डॉ.सिंह इसमें संशय ज़ाहिर करते हुए कहते हैं हम एक सबसे बड़ी जनसंख्या वाले प्रदेश में रहते हैं जहां आज भी सबसे अधिक टी.बी. के मरीज हैं तो हमारे सामने एक बड़ी चुनौती है, यह कहना तो मुश्किल है कि लक्ष्य के तहत हम पूरी तरह से टी.बी. मुक्त प्रदेश बन जायेंगे हां बढ़ते मामलों पर लगाम जरूर लगा सकेंगे।

लैटेंट टी.बी. ज़्यादा चुनौतीपूर्ण

चिकित्सकों के मुताबिक आज के दौर में लैटेंट टी.बी. (गुप्त टी.बी., जिसके लक्षण छुपे रहते हैं) ज्यादा चुनौतीपूर्ण होती जा रही है क्योंकि इसमें लक्षण सामने नहीं आते। टी.बी. दो तरह की होती है, पहला, एक्टिव टी.बी. और दूसरा लैटेंट टी.बी.। एक्टिव टी.बी. में लक्षण सामने आ जाते हैं तो इसकी रोकथाम आसान हो जाती है लेकिन लेटेंट या गुप्त टी.बी. में लक्षण छुपे रहते हैं तो इसका त्वरित इलाज संभव नहीं हो पाता। डॉ.सिंह कहते हैं लैटेंट टी.बी. के जो मरीज मिलते हैं उनके पूरे परिवार की स्क्रीनिंग की जाती है। उनके मुताबिक लेटेंट टी.बी. मरीजों की पड़ताल बहुत जरूरी है ताकि समय रहते उनका इलाज हो सके और उनकी बीमारी एक्टिव टी.बी. में न बदल पाये। डॉ. सिंह कहते हैं, अगर लैटेंट टी.बी. में ही मरीज का इलाज शुरू हो जाये तो इतना तय है कि आगे आने वाले समय में एक्टिव टी.बी. के मामलों में काबू पाया जा सकता है।

निजी अस्पताल और डॉक्टर्स को भी सूचना देना अनिवार्य

केंद्र सरकार द्वारा 2025 तक टी.बी. उन्मूलन से संबंधित जारी संकल्पपत्र में निजी अस्पतालों और प्राइवेट डॉक्टरों को भी टी.बी. मरीजों की सूचना देने की जिम्मेवारी सौंपी गई है लेकिन उनके द्वारा सहयोग न करने की बात भी समय-समय पर सामने आती रही है। लखनऊ जिला क्षय रोग अधिकारी डॉ. कैलाश बाबू के मुताबिक लखनऊ में 1786 निजी डॉक्टर, नर्सिंग होम और पैथोलॉजी सेंटर में पंजीकृत हैं। इनमें महज 400 से कम डॉक्टर व पैथोलॉजी ही विभाग को टी.बी. मरीजों की जानकारी दे रहे हैं। बहुत से डॉक्टर तो साल में एक-दो मरीजों की जानकारी दे रहे हैं। इससे विभाग की सभी मरीजों को कवर करने की मंशा पूरी नहीं हो पा रही है। 2021 में पहली तिमाही में प्राइवेट सेंटर ने 2596 मरीज की जानकारी दी थी। जो 2022 में घटकर 1315 रह गए हैं। उन्होंने बताया कि किसी सरकारी कार्यक्रम में बाधा पहुंचाना गलत है। प्राइवेट डॉक्टरों को इस पर ध्यान देना होगा। केंंद्र सरकार के गजट टी.बी. नोटिफिकेशन के अंतर्गत प्रत्येक केमिस्ट एंव ड्रगिस्ट को भी शेड्यूल एच1 के तहत टी.बी. मरीज का ब्योरा रखना होगा। जिला टी.बी. केंद्र को बताना होगा। उन्होंने बताया कि यदि डॉक्टरों ने जल्द ही टी.बी. मरीजों की जानकारी देनी शुरू नहीं की तो कड़ी कार्रवाई की जाएगी। मरीजों की जानकारी न होने से उन्हें 500 रुपए प्रति माह के हिसाब से इंसेंटिव नहीं मिल पा रहा है। अब स्वास्थ्य विभाग ने मनमानी करने वाले डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई का फैसला किया है। करीब 20 से अधिक अस्पतालों को नोटिस भी जारी की गई है।

टी.बी. एक ऐसी बीमारी है जिसकी सूचना देना कानूनी रूप से अनिवार्य है। ऐसा न करना जुर्म है। सूचना न देने पर 6 महीने से 2 साल तक के कारावास की सजा निर्धारित है। बहुत लोग अभी भी बीमारी को छुपाए हुए हैं। दवाओं की खरीद संबंधी आंकड़ें बताते हैं कि टी.बी. के मरीजों की संख्या ज्ञात मरीजों की संख्या से कहीं अधिक है। इसका मतलब यह है कि अभी भी बड़ी संख्या में मरीज बिना सरकार को सूचना दिए चुपचाप इलाज करा रहे हैं।

कोरोना के कारण बढ़े टी.बी़ के मरीज़

विशेषज्ञों के मुताबिक कोरोना के बाद से लोग ज्यादा टी.बी. की चपेट में आ रहे हैं क्योंकि कोरोना ने लोगों की इम्युनिटी को कमजोर बना दिया है, जिसके कारण वे बेहद आसानी से टी.बी. का शिकार हो जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा मौतें टी.बी. से होती हैं। जानलेवा बीमारियों में से एक टी.बी. को माना गया है। मलेरिया और एड्स से ज्यादा मौते आज भी टी.बी. से हो रही हैं। डब्ल्यूएचओ के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में टी.बी. से हर दिन 4100 लोग अपनी जान गंवाते हैं। हर साल 1.22 करोड़ लोग इससे पीड़ित होते हैं। ये बीमारी शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर देती है। डब्ल्यूएचओ का भी मानना है कि कोरोना के बाद से टी.बी. के मरीजों की परेशानी बढ़ी है। संस्था की टी.बी. को लेकर जारी की गई रिपोर्ट बताती है कि कोरोना महामारी के पांच साल से कम उम्र के बच्चों को टी.बी. से बचाव के लिए जरूरी टीके नहीं लग पाए हैं। साथ ही कोरोना काल में टी.बी. के मरीजों की न तो खोज ही हो पाई है और न उनका उचित इलाज हो पाया। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक टी.बी. से हर साल बीमार पड़ने वाले अधिकांश मरीज केवल 30 देशों से हैं, जिनमें भारत, इंडोनेशिया, चीन, पाकिस्तान, फ़िलिपींस, तंजानिया, नाइजीरिया और केन्या सहित अन्य देश हैं।

भारत का इस सूची में शामिल होना सचमुच हमारे लिए चिंता का विषय है। दुनिया भर में जितने टी.बी. के मरीज हैं उसमें 26 प्रतिशत हिस्सा तो केवल भारत का है जिसमें उत्तर प्रदेश का एक काफी बड़ा हिस्सा शामिल है। उत्तर प्रदेश की ही बात करें, जहां सब राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा टी.बी. के मरीज हैं, तो आंकड़े परेशान करने वाले हैं। साल 2017 में पूरे देश में 17 लाख 34 हजार 905 टी.बी. मरीज मिले थे। इनमें से 17 फीसदी सिर्फ यूपी से थें। यानी 2 लाख 96 हजार 910। साल 2018 में यह संख्या बढ़ गई, तब देश में 21 लाख 1 हजार 82 मरीज मिले थे। इसके 20 फीसदी सिर्फ यूपी से थे। यूपी में 2018 में मरीजों की संख्या 4 लाख 11 हजार 6 थी।वर्ष 2019 में देश में चिन्हित मरीजों की संख्या 24 लाख 1 हजार 589 थी, जबकि यूपी में 4 लाख 87 हजार 653 मरीज मिले थे। साल 2020 में चिन्हित टी.बी. मरीजों की संख्या काफी गिर गई। पिछले साल देश में 18 लाख 11 हजार 105 मरीज मिले थे, जबकि यूपी में 3 लाख 68 हजार 112 मरीज मिले थे। यह संख्या इसलिए गिर गई, क्‍योंकि कोरोना के कारण नए टी.बी. मरीजों की खोज बहुत प्रभावित हुई थी।

तो कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की तस्वीर यह साफ बताती है कि टी.बी. को यदि समय रहते काबू नहीं किया गया तो निश्चित ही यह एक विकराल रूप ले सकती है। हम जानते हैं कि आज भी हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में अस्पताल और चिकित्सकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं तो ऐसे में वर्ष 2025 तक का लक्ष्य कितना साकार हो पायेगा, संदेह उठना लाज़िमी है।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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