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लता के अंतिम संस्कार में शाहरुख़, शिवकुमार की अंत्येष्टि में ज़ाकिर की तस्वीरें, कुछ लोगों को क्यों चुभती हैं?

“बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख़, मशहूर गायिका लता मंगेशकर के अंत्येष्टि कार्यक्रम में श्रद्धांजलि देने गए हुए थे। ऐसे माहौल में जबकि सारी व्याख्याएँ व्यक्ति के धर्म के नज़रिए से की जा रही हैं, वैसे में चरमपंथियों को ये चीज़ नहीं पच सकती थी कि एक मुसलमान कैसे एक हिंदू को श्रद्धांजलि दे सकता है।”
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हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जिसमें रंगों, भाषाओं, इमारतों से लेकर कपड़ों का धर्म तय किया जा रहा है। वैसे में हर ऐसी तस्वीर- जिसमें दो धर्म सद्भाव और सहजीवी भाव से रहते हुए मिलते हैं, वे सब अपनी तरफ ध्यान खींचते है। आजकल देश में ताजमहल पर विवाद छिड़ा हुआ है। ताजमहल जैसी ऐतिहासिक इमारतों के अस्तित्व को धार्मिक एंगल के ज़रिए तय किया जा रहा है। अपनी सुंदरता के लिए विश्व प्रसिद्ध होने के बावजूद ताजमहल की उम्र अब इस बात पर टिकी है कि धर्म विशेष के चरमपंथी कब तक उस पर हथौड़ा नहीं चलाते हैं। ताजमहल की वास्तुकला और ऐतिहासिक महत्व अब मायने नहीं रखता, ये तथ्य भी अब मायने नहीं रखता कि वह यूनेस्को की “विश्व धरोहरों” में शामिल है। सिर्फ़ एक बात कुछ लोगों को खल रही है कि उसका निर्माण एक धर्म विशेष के शासक ने करवाया था। ताजमहल ऐसी एक अकेली इमारत नहीं है, अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद, दिल्ली का लाल-क़िला और क़ुतुबमीनार भी कुछ आँखों में खटक रही है। इनके पीछे भी वही कारण है कि शासक हिंदुस्तान के बहुसंख्यक समाज से नहीं थे जिन्होंने इनका निर्माण करवाया था।

इससे कुछ ही पहले पूरा देश हिजाब की बहसों में उलझा हुआ था, दुपट्टे से लेकर साड़ी का आग्रह करने वाले भारत में “हिजाब” पर आँखें लाल-पीली की जाने लगीं। हिजाब मुस्लिम महिलाओं से जुड़ा हुआ एक पहनावा है। स्कूलों में उस पहनावे पर प्रतिबंध लगाए गए। टीवी चैनलों पर बहसें हुईं,लड़कियों को स्कूलों के बाहर ही रोका जाने लगा। कर्नाटक के एक स्कूल से शुरू हुआ मामला पूरे देश का मामला बन गया। क्योंकि उसके लिए हिंदू-मुस्लिम परिस्थितियाँ पहले से मौजूद थीं। इसलिए जिस किसी भी तस्वीर या इवेंट में हिंदू-मुस्लिम आते हैं, सत्ता-धारी BJP-RSS की मशीनरी से धार्मिक एंगल देकर राजनीतिक स्टोव पर गर्म करती है, जिसके उत्पाद के रूप में हिंदू तुष्टिकरण का जन्म होता है, जिसका असली प्रोडक्ट वोट के रूप में चुनावों में सामने आता है, जिससे भाजपा के लिए संसद और विधानसभाओं की पगडंडियाँ सरल हो जाती हैं।

बीते दिनों एक तस्वीर की खूब चर्चा हुई थी, वह थी शाहरुख़ की। बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख़, मशहूर गायिका लता मंगेशकर के अंत्येष्टि कार्यक्रम में श्रद्धांजलि देने गए। ऐसे माहौल में जबकि सारी व्याख्याएँ व्यक्ति के धर्म के नज़रिए से की जा रही हैं, वैसे में चरमपंथियों को ये चीज़ नहीं पच सकती थी कि एक मुसलमान कैसे एक हिंदू को श्रद्धांजलि दे सकता है। फिर उन्हें एक ऐसी भ्रामक तस्वीर मिल गई जिसे प्रचारित किया गया कि कैसे शाहरुख़ ने लता जी का अपमान किया।



देखते ही देखते हर जगह उस तस्वीर को ये कहते हुए शेयर किया गया कि शाहरुख़ ने लता जी के शव पर थूका है। वैसे इस सामान्य सी शंका को इस बात से ही दूर किया जा सकता था कि कोई ऐसे नाज़ुक माहौल में श्रद्धांजलि देने गया है वह ऐसा काम, वो भी सार्वजनिक तौर पर क्यों ही करेगा। उसमें भी शाहरुख़ जिसके बालों से लेकर हाथों की क्रिया-प्रक्रियाओं को कैमरे में क़ैद करने के लिए दर्जनों कैमरे हों। शाहरुख़ के बहाने मुसलमानों के प्रति आम हिंदू जनता में भ्रम फैलाया गया कि मुसलमान तो ऐसे ही होते हैं। कुछ लोग इस डिबेट को कथित “थूक-जिहाद” तक ले गए। मैं ऐसे ही इस डिबेट को सुदर्शन टीवी पर लाइव देख रहा था। एंकर सुरेश चव्हाणके उस 10 सेकंड की वीडियो क्लिप को रोक-रोक कर चलाए। फिर प्रश्न करे कि “क्या शाहरुख़ ने लता जी पर थूका?”



अब एंकर “क्या, क्यों, कैसे, किंतु, परंतु, यदि, यद्यपि, तथापि” जैसे शब्दों का सहारा लेकर जबरन ये शक पैदा करने की कोशिश करे कि सच में ही ऐसा किया गया है क्या? सबसे पहले सवाल उठता है कि जब उस मामले की सत्यता ही इतनी भ्रामक है तो लाइव शो चलाने की क्या ज़रूरत है। इस शो में दर्शकों से लाइव फ़ोन पर ही उत्तर लिए गए। शो देखने वाले मुसलमानों से लेकर शाहरुख़ तक बुरा-भला बोलने लगे। जब कुछ मुसलमान दर्शकों ने फ़ोन पर कहा कि ये इस्लाम में “फूंकने” की रिवाज है ना कि थूकने की। इस रिवाज में मृतक के लिए दुआ पढ़ी जाती है और अंत में फूंका जाता है। तब एंकर अपने मूल प्रश्न से हटकर (जो एक्सपोज़ हो चुका था) दूसरे प्रश्न पर आ गया कि “क्या हिंदू अंतिम संस्कार क्रिया में इस्लामी तरीक़े से दुआ पढ़ना सही है?” “क्या ये हिंदू रिवाजों का इस्लामीकरण करने की साज़िश है?”

कुल-जमा कहानी ये है कि वे तस्वीरें जिनपर नाज़ किया जाना था, वे भी धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक हो चुकी हिंदुस्तानी फ़िज़ाओं में विवाद में आ गईं। वैसे में हर ऐसी तस्वीर और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। जब धर्म के आधार पर ग़लत और भ्रामक व्याख्याएँ की जा रही हों, तब धर्म की तह में जाए बिना उसे एक्सपोज़ करना मुश्किल है। ऐसी हर तस्वीर फिर संजोने और संरक्षित करने की हो जाती है।

हाल ही में यानी 10 मई के दिन मशहूर संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा का निधन हो गया। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत में संतूर के उपयोग को एक अलग जगह दिलाई। शिवकुमार शर्मा गुर्दे की समस्याओं से भी पीड़ित थे। जिसके चलते मुंबई स्थित अपने आवास पर उन्होंने अंतिम साँस ली। 84 साल के शिवकुमार शर्मा को साल 1986 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। साल 1991 में पद्मश्री तथा साल 2001 में पद्म विभूषण से से नवाज़ा गया। अचानक आए कार्डीऐक अरेस्ट के चलते वे इस दुनिया से हमेशा के लिए विदाई ले गए।



उनकी अंतिम यात्रा में अमिताभ बच्चन-जया बच्चन से लेकर तमाम बड़े सेलिब्रिटीज श्रद्धांजलि देने पहुँचे। लेकिन एक तस्वीर जिसने सबका ध्यान खींचा वह थी मशहूर तबला वादक ज़ाकिर हुसैन की। अपने जीवन-काल में इधर पंडित शिवकुमार संतूर पर तान छेड़ते उधर ज़ाकिर हुसैन तबला बजाते, दोनों की जोड़ी में से एक हंस चला गया। शिवकुमार की अंतिम यात्रा में श्रद्धांजलि देने आए ज़ाकिर भावुक हो गए।

इसे लेकर UNDP (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम) से जुड़े विक्रम सिंह चौहान ने अपने निजी Facebook एकाउंट पर लिखा- हिंदुस्तान क्या है, असली हिंदुस्तान के लोग कैसे होते हैं तो उसके लिए इस तस्वीर और इसके पीछे की कहानी देखिए। संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा के निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को कंधा देते और अंतिम संस्कार के दौरान भावुक ये मशहूर तबला वादक जाकिर हुसैन हैं। जाकिर हुसैन और पंडित शिव कुमार शर्मा का एक दूसरे के साथ काफी जुड़ाव रहा। जहां पंडित शिव कुमार शर्मा संतूर से धुन छेड़ते थे, वहीं जाकिर हुसैन उनके साथ तबले पर संगत करते थे। हमें इसी हिंदुस्तान को और ऐसे महान प्रेम को ही बचाना है।“

वैसे ये बेहद सामान्य बातें हैं। दोस्त/साथी के जाने पर भावुक होना कोई खबर नहीं। हाल ही में जब भाजपा के MCD प्रशासन द्वारा दिल्ली के जहाँगीरपुरी में बुलडोज़र चलवाया गया, जिसमें कथित तौर पर मुसलमानों के घरों और दुकानों को टार्गेट करने के आरोप भी लगे, उसी समय दो दोस्तों की एक वीडियो भी वायरल हुई। दोनों दोस्त अलग मज़हबों के थे। लेकिन एक दोस्त अंशु कहता है- “मैं हिंदू हूँ, ये मुसलमान है। भाई की तरह रहते हैं हम दोनों। मेरे को दिक़्क़त होती है तो ये खड़ा होता है, इसको कोई दिक़्क़त होती है तो मैं खड़ा होता हूँ। पता नहीं आज RSS वालों ने कैसा कर रखा है। हमें बर्बाद ही करके रख दिया। मुझे पता होता मस्जिद तोड़ रहे हैं तो मैं तो वहाँ भी खड़ा होता। मस्जिद को तोड़ने नहीं देता मैं, अकेला ही निपट लेता मैं अकेला ही। मैं मस्जिद पर बुलडोज़र नहीं चलने देता, बहुत ग़लत हुआ है। हम भाई की तरह रहते हैं, आज तुम ऐसा कर रहे हो। हम कल भाई   बनके रह लेंगे?”

अंशु और उसके मुस्लिम दोस्त की इसी दोस्ती को सहजीविता कहते हैं, इसी बंधुत्व और भाईचारे को बढ़ाने की बात संविधान में कही गई है। लेकिन कुछ लोग इसी मेल-मिलाप की साझी संस्कृति को बढ़ने नहीं देना चाहते हैं। यही कारण है कि लता की अंतिम यात्रा में दुआ देते शाहरुख़ उन्हें खटक जाते हैं। इसलिए ज़ाकिर की तस्वीर सामान्य होते हुए भी अपनी ख़ुशबू बिखेर गई।

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