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कोविड-19 के ठोस, बायोमेडिकल और इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्टों का निष्पादन

मिनामाता कन्वेंशन कुछ निश्चित चिकित्सीय उपकरणों जैसे पारे वाले थर्मोमीटर तथा रक्तचाप नापने के यंत्रों के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से हटाने की प्रक्रिया को नियमित करना करना चाहता था।
medical waste

कोविड-19 के परिणामस्वरूप  ठोस और जैव-चिकित्सा (बायो-मेडिकल) अपशिष्ट/कचरे एक विशाल भंडार पैदा हो गया है।  चाहे ग्लोब्स हों, सर्जिकल मास्क, पीपीई कीट्स, एक बार इस्तेमाल होने वाला बदलने वाला टेबल क्लॉथ हो अथवा  हाथ धोने वाला सैनिटाइजर। इसके अलावा, इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्टों का बनाता हुआ ढेर है जो आए दिन लोगों के अपने बच्चों, व अपनी  पढ़ाई-लिखाई अथवा नौकरी-रोजगारों में उपयोग करने के लिए गैजेट्स खरीदने से बनते हैं। प्रदूषण पैदा करने वाले इन उपस्करों-सामग्री के समुचित प्रबंधन का अभाव नागरिकों की सेहत पर बहुत ही नकारात्मक असर डाल सकता है।   इन्हीं सब पहलुओं पर प्रस्तुत है, रितिका मकेश का यह आलेख। 

कोरोना वायरस के इस नया प्रसार ने विश्व के ज्यादातर हिस्सों में सामान्य जनजीवन को पंगु बना दिया है।  इसने लोगों की जीवन-शैलियों पर बहुत ही बुरा प्रभाव डाला है और देशों की अर्थव्यवस्थाओं में  भारी गिरावट ला दी है।  हालांकि इससे निबटने के लिए शासन द्वारा लगाए गए लॉकडाउन और शटडाउन के चलते हजारों लोगों की नौकरियां चली गई हैं और लाखों लोगों के रोजगार ठप हो गए हैं। इन्हीं वजहों से, अधिकतर देशों में पर्यटन से होने वाली आमदनी पर कड़ी चोट पहुंची है। इन लॉकडाउन्स का केवल एक ही फायदा हुआ है कि वातावरण में कार्बन के उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैसों का बनना घट गया है।

बहुत सारे देशों में वायु की गुणवत्तास्वच्छ पेयजलवनों की कटाई में कमी और पशु-पक्षियों के अभयारण्यों-विहारों में  इजाफा हुआ है।  ठीक इसी तरह, घर-बारों में रोजाना के स्तर पर बनने वाले ठोस और जैव-चिकित्सा के अपशिष्ट मानव जीवन के समक्ष  नई-नई चुनौतियां पेश कर रहे हैं। 

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अपशिष्ट प्रबंधन क्या है?

 यह ठोस अपशिष्टों के उत्सर्जन की स्थितियों, उसके प्रकारों के निरूपण, न्यूनीकरण, संग्रहण, पृथक्करण, रख-रखाव और निस्तारण से संबंधित सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण और विमर्श के बारे में बताता है। इसमें अपशिष्ट-निष्पादन के आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में बनाई जाने वाली नीति तथा सूचनाओं का प्रचार-प्रसार भी शामिल है। 

निम्नलिखित  आधार पर अपशिष्टों का वर्गीकरण किया जाता है: उत्पादन के स्रोत( घर बारकृषि क्षेत्र, जैव चिकित्सा तथा उद्योग) और प्राकृतिक क्षेत्र ( नुकसानदेह और गैरनुकसानदेह)। अपशिष्ट प्रबंधन किसी भी नगर निगम  द्वारा मुहैया कराया जाने वाला एक महत्वपूर्ण सेवा माना जाता है। शहर, नगर और महानगरों के बजट का अकेला बड़ा हिस्सा इसी काम पर खर्च किया जाता है। यह विशाल कार्य है, इसलिए कि अपशिष्टों का संग्रहण उस व्यापक भूभाग के आर्थिक, पर्यावरणीय और अन्य सामाजिक आयामों को ध्यान में रखते हुए उत्कृष्ट तरीके से किया जाना है।

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ठोस अपशिष्ट प्रबंधन  पूरी तरह से स्थानीय सरकार के  अधीन है।  अगर अपशिष्ट का का समुचित तरीके से प्रबंधन नहीं किया गयातो स्वास्थ्य की देखभाल, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और परिवहन सेवाओं के प्रावधान पर भी बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं।

इस खतरनाक प्रदूषण फैलाने वाले अपशिष्ट के प्रबंधन में कमी का भयानक नकारात्मक प्रभाव नागरिकों की सेहत पर पड़ता है क्योंकि इसके चलते उनके चारों ओर एक बीमार वातावरण बन जाता है।

स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था

 जब एक बड़ी संख्या में लोग बीमार पड़ जाते हैं तो उसका सीधा दुष्प्रभाव किसी राज्य अथवा देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है और धन का बड़ा अनुपात अपने लोगों की सेहत की देखभाल में खर्च करना पड़ता है-यह कीमत, अगर तथ्यात्मक रूप से कहें तो, अपशिष्टों के समुचित प्रबंधन और उसके निस्तारण के काम पर होने वाले कुल व्यय से कहीं ज्यादा बड़ी होती है। 

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भारत में,संविधान के अनुच्छेद 21 में न्यायिक विकास के जरिए जीवन के अधिकार-क्षेत्र को व्यापक करते हुए उसमें मनुष्य के गरिमापूर्ण और सभ्य जीवन के अधिकार को भी शामिल किया गया है। इसके अंतर्गत, राज्य की तरफ से अच्छी सेहत और प्रदूषणमुक्त पर्यावरण-सुविधाएं प्रदान करना भी शामिल हैं। 

इसे सुभाष कुमार  बनाम बिहार राज्य (1991) और वीरेंद्र गौड़ बनाम हरियाणा राज्य (1994) मामलों में भी  दोहराया गया था।  भारतीय दंड संहिता (1860) के अध्याय XIV में, “सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, सुविधाएं, शालीनता और नैतिकताओं को प्रभावित करने वाली वारदातोंको ले कर है, जिसमें ठोस अपशिष्टों या कचरे को सार्वजनिक अव्यवस्था फैलाने की एक वजह मानी गई है और ऐसा करने वालों के लिए समुचित दंड का विधान किया गया है। इसमें आपराधिक प्रक्रिया संहिता (1973) की धारा 133 से जोड़ दी गई है, जो सार्वजनिक अव्यवस्था को दूर करने की बात करती है। इसने नगरपालिकाओं द्वारा अपशिष्टों के समयबद्ध प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 

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रतलाम के नगर निगम बनाम वर्दीचंद (1980) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नगर निगम अपने अधिकार क्षेत्र की समुचित साफ-सफाई को संभव करने वाले कदम उठाने के लिए बाध्य है।  डॉक्टर बीएल बढ़रा बनाम भारत संघ (1996) मामले में सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया कि दिल्ली के निवासी कोएक साफ-सुथरे नगर में जीवन जीने का सांविधिक अधिकार हैऔर अपने इस उत्तरदायित्व से कोई भी सांविधिक प्राधिकरण धन की कमी का बहाना बना कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता।

देश के प्रमुख शहरों-नई दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और बेंगलुरु में ठोस कचरा निष्पादन प्रबंधन को ले कर अलमित्र. एच. पटेल और Anr बनाम भारत संघ (2000) मामले में एक अपील दायर की गई थी। इस बारे में, बाद में जारी दिशा-निर्देश को ले कर यह मामला मील का एक पत्थर साबित हुआजिसके परिणामस्वरूप  नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन और परिचालन)  के नियम-2000 की अधिसूचना जारी की गई। 

अपशिष्टों के विभिन्न प्रकार

 दूसरी ओर, जैव चिकित्सा (बायोमेडिकल) अपशिष्टों के अंतर्गत वे खराब जैवीय या गैर जैवीय अपशिष्ट आते हैं, जो दुबारा उपयोग में नहीं लाये जा सकते। उनका उत्सर्जन रोजाना के स्तर पर मनुष्य प्रजाति एवं जानवरों के रोगों के लक्षण तय करने, उनके इलाज तथा उनके प्रतिरक्षण में होता रहता है। इसके साथ ही, इन अपशिष्टों का उत्सर्जन शोध-अनुसंधान की गतिविधियों को संचालित करने, और जैविक (बॉयोलॉजिकल)  उत्पादनों एवं परीक्षणों के चलते भी होता है, और जिनकी श्रेणियां जैव चिकित्सा कचरा प्रबंधन (बीडब्ल्यूएम) के नियम, 2016 की अनुसूची में दर्ज की गई हैं, वे सब के सब बायोमेडिकल कचरे या अपशिष्ट के दायरे में आती हैं।

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इस बीडब्ल्यूएम में अंतर्निहित जैव चिकित्सा अपशिष्टों को लेकर तीन अंतरराष्ट्रीय समझौते और कन्वेंशन हुए हैं।  यह विशेष रूप से बीडब्ल्यूएम, पर्यावरण संरक्षण  और इसके सतत विकास में अंतर्निहित हैं।   इसीलिए अपशिष्ट प्रबंधन नीतियों को बनाते समय इन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।  ये तीन अंतरराष्ट्रीय समझौते हैं-नुकसानदेह अपशिष्ट पर बेसल कन्वेंशन, सतत जैविक प्रदूषकों (परसिस्टेंट ऑर्गेनिक पोल्यूटेंट्स/POPs) पर स्टॉकहोम कन्वेंशन एवं पारे पर हुए मिनामाता कन्वेंशन।

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मिले-जुले रूप में इन तीनों के व्यापक लक्ष्य अपशिष्टों के उत्सर्जन, उनके प्रबंधन और उनका निस्तारण-निष्पादन है। खास कर अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों और क्लिनिकों में मरीजों की देखभाल से निसृत होने वाले खतरनाक नैदानिक अपशिष्टों के मानव जाति और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से संरक्षा करना है। वहीं दूसरी ओर, POPs, जीवनधारी अंगों  के मोटे उत्तकों (टिशू) में जमा होता है और नुकसान का कारण होता है। इस कन्वेंशन ने सतत जैविक प्रदूषकों के बेहतर निष्पादन के लिए एक स्पष्ट मार्गदर्शिका बनाई थी। इसमें प्रदूषकों में कमी लाने, उनका पृथक्करण, संसाधन की वसूली और पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग), प्रशिक्षण और अपशिष्टों के समुचित संग्रहण एवं उनके परिवहन के विषय शामिल हैं।

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मिनामाता कन्वेंशन कुछ निश्चित चिकित्सीय उपकरणों जैसे थर्मोमीटर तथा रक्तचाप नापने के यंत्रों में पारे के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से दूर करने के लिए एक नियमन बनाना चाहता था। इन्हीं कन्वेंशन में तय की गई संहिता पर भारत में, जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन नियम-2016 बनाया गया था। इन नियमों की हद को बढ़ाते हुए  इसमें टीकाकरण और अन्य चिकित्सा शिविरों को शामिल कर लिया गया है। इसका लक्ष्य स्वास्थ्य कामगारों को प्रशिक्षण देकर यह भी सुनिश्चित करना है कि स्रोत के स्तर पर अपशिष्टों का समुचित पृथक्करण सुनिश्चित किया जाए तथा प्रदूषकों के उत्सर्जन को घटाने के लिए कचरा जलाने वाले (इन्सिनरेटर) उच्च मानक के उपकरण का सुझाव देना है।

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महामारी के अपशिष्ट 

 एक वैश्विक समुदाय के सदस्य होने के नाते हमारे लिए इन नियमन के बारे में अधिक से अधिक अवगत होना महत्वपूर्ण है। इसलिए कि वैश्विक महामारी के परिणामस्वरूप ठोस और जैव-चिकित्सा के अपशिष्टों का अकल्पनीय रूप से उत्सर्जन हो रहा है। प्लास्टिक अपशिष्टों में अधिकांश वे हैं, जो ग्लोब्स, सर्जिकल मॉस्क, चिकित्साकर्मियों द्वारा पहने गये पीपीई कीट्स, अस्पतालों में इस्तेमाल की गईं चादरें अथवा रेस्टोरेंट्स में एक बार ही उपयोग में लाये जा सकने वाले टेबुल क्लाथ, हाथ धोने वाले द्रव्यों की खाली बोतलों से बनते हैं। 

सके साथ, इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्टों के उत्सर्जन में जल्द ही भारी वृद्धि देखने को मिलेगी क्योंकि काफी संख्या में लोग अपने बच्चों तथा स्वयं की शिक्षा, आजीविका और रोजगार के लिए रोजाना के स्तर पर गैजेट खरीदते हैं। 

हालांकि यह अच्छी बात है कि ऐसी सावधानी बरती जा रही है और प्रौद्योगिकी तक बड़ी संख्या में लोगों की पहुंच बढ़ी है, फिर भी विवाद की गुंजाइश बनी हुई है, जिसे अधिक परिपक्वता और सावधानी के साथ निष्पादन करना है, इसके पहले कि काफी देर हो जाए।

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पर्यावरण के उत्साही कार्यकर्ता और जानकार लगातार होने वाले लॉकडाउन से जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग पर नियंत्रण पर पड़े सकारात्मक प्रभावों को लेकर बेहद उत्साहित थे, लेकिन असल सवाल यहां उसके टिकाऊपन को लेकर है। दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि कोविड-19 किस तरह व्यक्ति के विशेषाधिकार की मात्रा पर निर्भर विभिन्न क्षेत्र के मसलों को सामने लाता है। दुर्भाग्यपूर्ण रूप से, समाज का सबसे असहाय और अरक्षित वर्ग एक नहीं बल्कि कई दुश्वारियों का सामना करता रहा है। 

 इन  परिप्रेक्ष्य में हमारा दीर्घकालीन लक्ष्य कारगर उपायों को अपनाकर अपशिष्टों के उत्सर्जन में हो रही वृद्धि को रोकना होना चाहिए, जिससे कि हमारी आर्थिक और सामाजिक दशा पर लॉकडाउन की तरह खराब असर न पड़े। स्वास्थ्य-देखभाल और शिक्षा तक सभी की बराबर पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस दिशा में व्यक्तियों और संस्थाओं को द्वारा उठाये जा रहे कदमों का नीतिगत समर्थन किया जाना चाहिए तथा एक मजबूत, गत्यात्मक और सक्षम आर्थिक ढांचा मुहैया कराने के जरिए अच्छी एवं स्वच्छ जलवायु की जन आकांक्षाओं को बढ़ावा देना चाहिए।

जब इस पृथ्वी ग्रह की बात आती है तो हमें यह स्वीकार करना अवश्य ही आना चाहिए कि जब  असली संकट आता है, सीमाएं, राजनीति और कुछ कलही नेता किसी भी व्यक्ति या चीजों को नहीं बचा पाएंगे। 

यह लेख मूल रूप से दि लीफ्लेट में प्रकाशित किया गया था।

(रीतिका मकेश दि लीफ्लेट में प्रशिक्षु हैं और सिम्बोसिस लॉ स्कूल में एलएलबी की अंतिम वर्ष की छात्रा हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Tackle Covid-19’s Solid, Biomedical and Electronic Waste.

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