Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

संसद को योजनाबद्ध तरीक़े से बेमतलब बनाया है मोदी सरकार ने

सरकार संसद को अपने रसोईघर की तरह इस्तेमाल कर रही है, जहां वही पक रहा है जो सरकार चाहती है।
Modi
फाइल फ़ोटो। PTI

अब इस बात का किसी के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर देश के आम आदमी की कमाई का कितना पैसा खर्च होता है। वैसे अनुमान है कि संसद की कार्यवाही पर प्रति मिनट 2.5 लाख रुपये और हर सत्र पर करीब 150 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। सरकार यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है। संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले, यह जिम्मेदारी मूल रूप से सरकार की है, लेकिन उसके लिए यह जिम्मेदारी निभाना कुछ खास परिस्थिति में राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा होता है, लिहाजा वह खुद ही नहीं चाहती है कि संसद में सुचारू रूप से काम हो।

संसद की कार्यवाही सही तरीके से नहीं चले और किसी न किसी मसले को लेकर विवाद तथा शोर-शराबा चलता रहे, यह विपक्ष के लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए सुविधाजनक होता है। ऐसी स्थिति में सरकार कई मुश्किल सवालों के जवाब देने से बच जाती है, विपक्ष आम जन-जीवन से जुड़े मुद्दे नहीं उठा पाता है या नियमों की मनमानी व्याख्या कर उसे मुद्दे उठाने की अनुमति नहीं दी जाती है। पिछले कुछ सालों के दौरान तो यह भी पूरी तरह साफ हो गया है कि संसद के हर सत्र से पहले सरकार की ओर से ही यह इंतजाम कर लिया जाता है कि दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से न चले और शोर-शराबे में पूरा सत्र बीत जाए।

आमतौर पर हर सत्र से पहले कोई न कोई ऐसी घटना हो जाती है या ऐसी कोई खबर आ जाती है, जिसे लेकर न तो विपक्ष को बोलने दिया जाता है और न ही सरकार की ओर से कुछ कहा जाता है। हंगामा और नारेबाजी होती रहती है। जहां तक विधायी कामकाज का सवाल है, वह तो सरकार लोकसभा में अपने बहुमत के बूते और राज्यसभा में जोड़-तोड़ के सहारे पूरे कर लेती है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से महत्वपूर्ण विधेयक और यहां तक कि बजट भी बिना किसी बहस और मत-विभाजन के पारित कराया जा रहा है। राज्यसभा में तो अब सरकार ने विपक्ष के संख्याबल से निपटने और विधेयक पारित कराने के लिए एक नया रास्ता खोज लिया है। हर सत्र में सरकार की ओर से विपक्ष के कुछ सांसदों पर सदन की कार्यवाही को बाधित करने का आरोप लगा कर उन्हें एक सप्ताह अथवा पूरे सत्र के लिए निलंबित करने का प्रस्ताव पेश किया जाता है, जो हो-हल्ले में 'पारित’ हो जाता है और सभापति उन सांसदों को निलंबित करने का ऐलान कर देते हैं।

पिछले कई सत्रों से देखने को मिल रहा है कि किसी न किसी मसले पर संसद में गतिरोध पैदा होता है और उसके बाद लगातार टकराव चलता रहता है। ऐसा भी लगता है कि दोनों तरफ से गतिरोध दूर करने के प्रयास हो रहे हैं लेकिन यह दूर नहीं होता है। संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच टकराव पहले भी होता रहा है, लेकिन न तो इतने लंबे समय गतिरोध चलता था, न इतनी संख्या में सांसद निलंबित होते थे और न ही संसद भवन परिसर में इतना प्रदर्शन होता था। आखिर टकराव इतना क्यों बढ़ गया है और गतिरोध खत्म क्यों नहीं हो पाता है? संसदीय राजनीति को लंबे समय से देखते आ रहे लोग इस बात को समझ रहे हैं कि सरकार की कोई वास्तविक मंशा गतिरोध खत्म कराने की नहीं है। अगर संसद सुचारू रूप से नहीं चल रही है तो इसका मतलब है कि सरकार की कोई अलग मंशा है।

असल में पिछले कुछ समय से पक्ष और विपक्ष के सांसदों के बीच अनौपचारिक बातचीत लगभग पूरी तरह से बंद हो गई है। पहले अनौपचारिक बातचीत का चैनल हमेशा खुला होता था। पक्ष और विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं के बीच अनौपचारिक बातचीत होती थी। सांसद सेंट्रल हॉल में एक दूसरे से सहज भाव से मिलते जुलते थे। अनौपचारिक चर्चाओं से कई गतिरोध दूर करने में आसानी होती थी। इसके अलावा संसदीय कार्य मंत्री ऐसे नेता को नियुक्त किया जाता था, जिसका विपक्षी पार्टियों के नेताओं से निजी तौर पर अच्छा संबंध हो। भाजपा की ओर से प्रमोद महाजन से लेकर वेंकैया नायडू और अनंत कुमार तक यह जिम्मेदारी निभा चुके हैं। ये सारे नेता लंबे समय तक दिल्ली की राजनीति करने वाले थे। अब प्रहलाद जोशी संसदीय कार्य मंत्री हैं, जिनका समूचा अनुभव कर्नाटक की राजनीति का है और वहां भी वे महत्वपूर्ण नेताओं में नहीं गिने जाते हैं। इस वजह से भी गतिरोध दूर करने का उपाय नहीं निकलता है।

पिछले कई सत्रों से यह भी देखने को मिला है कि सत्र निर्धारित समय से पहले समाप्त हुए हैं, भले एक दिन पहले ही समाप्त हुआ लेकिन सत्र पहले समाप्त हुआ है। संसद सत्र का एक फीचर यह भी हो गया है कि विपक्षी पार्टियां संसद के परिसर में प्रदर्शन करती हैं और सरकार बिना बहस के बिल पास करा लेती है। सवाल है कि ऐसा सहज रूप से हो रहा है या इसके पीछे कोई राजनीति है? दिवंगत हो चुके भाजपा नेता अरुण जेटली विपक्ष में रहते हुए अक्सर कहा करते थे कि संसद को बाधित करना भी संसदीय राजनीति का एक तरीका है।

हालांकि यह पता नहीं है कि अभी जिस राजनीति के तहत टकराव हो रहा है और हर बार गतिरोध बन रहा है वह विपक्ष की राजनीति का हिस्सा है या सरकार की राजनीति का? पिछले दो तीन सत्र देखे तो इस ट्रेंड का एक अंदाजा लगता है। मानसून सत्र शुरू होने से एक दिन पहले मणिपुर में दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाने और उनके साथ यौन हिंसा का वीडियो वायरल हुआ। यह बेहद दुखद और अमानवीय घटना थी, जो चार मई को घटित हुई थी और उसी दिन वीडियो बना था। यह अनायास नहीं था कि वीडियो 19 जुलाई को वायरल हुआ। संभव है कि ज्यादा व्यापक राजनीतिक असर की वजह से वह वीडियो संसद सत्र से पहले जारी किया गया हो। उसका असर साफ दिख रहा है। संसद सत्र की कार्यवाही चार दिन ठप रही और उसकी परिणति अविश्वास प्रस्ताव में हुई है।

इस साल बजट सत्र से ठीक पहले अडानी समूह को लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट आई थी। बजट सत्र 31 जनवरी से शुरू होने वाला था और 24 जनवरी को हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आई थी, जिसमें अडानी समूह की हजारों करोड़ रुपये की वित्तीय गड़बड़ियों की जानकारी दी गई थी। संसद सत्र शुरू होने के बाद विपक्ष ने राष्ट्रपति के अभिभाषण का इंतजार किया और उसके बाद हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर चर्चा की मांग की, जो नहीं मानी गई। दोनों सदनों में तीन-चार दिन तक खूब हंगामा हुआ और हंगामे के बीच सरकार विधायी कार्य निपटाती रही। बाद में राष्ट्रपति के अभिषाषण पर चर्चा में भाग लेते हुए राहुल गांधी ने अपना पूरा भाषण अडानी समूह पर केंद्रित रखा, जिसके कई अंशों को सदन की कार्यवाही से निकाल दिया गया। इसके बाद सत्र का समापन राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त करने और उस पर विवाद के साथ हुआ।


उससे पहले पिछले साल के शीतकालीन सत्र के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग में चीनी सैनिकों की घुसपैठ और भारतीय सेना के जवानों के साथ उनकी झड़प का वीडियो आया। पिछले साल शीतकालीन सत्र गुजरात चुनाव की वजह से थोड़ी देरी से सात दिसंबर को शुरू हुआ था और उसके बाद नौ दिसंबर को भारत-चीन के सैनिकों की हुई झड़प का एक वीडियो सामने आया। इस पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन में बयान भी दिया पर गतिरोध शुरू हो गया और इस वजह से 29 दिसंबर तक चलने वाला सत्र 23 दिसंबर को समाप्त हो गया। इसके पीछे जाएंगे तो हर सत्र से पहले इस तरह का कोई मुद्दा आने और टकराव पैदा होने का इतिहास मिलेगा।

वैसे प्रधानमंत्री मोदी और उनके अन्य मंत्री विपक्षी दलों पर यह आरोप आमतौर पर संसद के हर सत्र के दौरान या उसके खत्म होने पर लगाते ही हैं। सत्र शुरू होने के पहले वे कहते हैं कि सरकार हर मुद्दे पर बहस के लिए तैयार है, लेकिन जब सत्र शुरू होता है तो सरकार की यह तैयारी बिल्कुल भी नहीं दिखती। विपक्ष महत्वपूर्ण मसलों पर बहस की मांग करता रहता है और सरकार उसकी अनदेखी करते हुए अपने बहुमत के दम पर शोर-शराबे के बीच विधेयक पारित कराती रहती है। इसी सबके बीच प्रधानमंत्री विपक्ष के व्यवहार को अलोकतांत्रिक बताते रहते हैं। जबकि हकीकत यह है कि संसद को अप्रसांगिक बनाने वाले जितने काम पिछले नौ साल के दौरान हुए हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए।

नौ साल पहले प्रधानमंत्री का पद संभालते वक्त जब नरेंद्र मोदी ने संसद के प्रति सम्मान जताते हुए उसकी सीढियों पर माथा टेका था और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर संविधान के आगे शीश झुकाया था तो उनकी खूब वाह-वाही हुई थी, लेकिन आम तौर पर उनका व्यवहार उनकी उस भावना के विपरीत ही रहा है। खुद प्रधानमंत्री संसद सत्र के दौरान ज्यादातर समय संसद से बाहर ही रहते हैं। लोकसभा और राज्यसभा में वे उसी दिन आते हैं जिस दिन उन्हें भाषण देना होता है। पिछले नौ साल के दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले उन्होंने संसद की मंजूरी के बगैर ही किए हैं। कई कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू करने में अनावश्यक जल्दबाजी की है और कई विधेयकों, यहां तक कि संविधान संशोधन विधेयकों को भी स्थापित संसदीय प्रक्रिया और मान्य परंपराओं को नजरअंदाज कर बिना बहस के पारित कराया है।

दरअसल संसद की गरिमा और सम्मान तो इस बात में है कि उसकी नियमित बैठकें हों। उन बैठकों में दोनों सदनों के नेता ज्यादा से ज्यादा समय मौजूद रहें, विधायी मामलों पर ज्यादा से ज्यादा चर्चा हो और आम सहमति बनाने के प्रयास हों। अगर आम सहमति नहीं बने तो ऐसे विषय संसदीय समितियों को भेजे जाएं और अगर राष्ट्रीय महत्व का कोई मुद्दा हो तो उस पर विचार के लिए दोनों सदनों की प्रवर समिति बने या संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए। इन समितियों की नियमित बैठक हों और इन बैठकों में सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विषय के विशेषज्ञों की राय सुनें और वस्तुनिष्ठ तरीके से अपनी राय बनाएं।

उल्लेखनीय है कि इन संसदीय समितियों का काम कोई फैसला करना नहीं होता है, बल्कि जिन मसलों पर संसद में ज्यादा विस्तार से चर्चा नहीं हो सकती, उन विषयों को या विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजा जाता है, जहां विषय के विशेषज्ञ उस मसले के बारे में समझाते हैं। उसके हर पहलू पर विचार किया जाता है। फिर उस आधार पर समिति एक रिपोर्ट तैयार करके संसद को देती है। अंतिम फैसला संसद को ही करना होता है। लेकिन मौजूदा सरकार ने इन संसदीय समितियों को लगभग अप्रासंगिक या गैर-जरूरी बना दिया है। अव्वल तो लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय की ओर से किसी न किसी बहाने समिति की बैठक ही नहीं होने दी जाती है। अगर किसी समिति की बैठक होती भी हैं तो उसके सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विचार नहीं करते हैं। सत्तापक्ष अपने बहुमत के दम पर संसद की स्थायी समितियों के काम में बाधा डालता है और रिपोर्ट मंजूर नहीं होने देता है।

साल 2020 के बाद से संसद में पेश किया गया कोई भी विधेयक संबंधित मंत्रालय की संसदीय समिति को नहीं भेजा गया था। इस साल भी अभी तक यही स्थिति है। वास्तव में संसद का, लोकतांत्रिक परंपराओं का, जनता का अपमान इस तरह से विधेयक पारित कराने से हो रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री विपक्ष पर तोहमत जड़ रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि सरकार संसद को अपने रसोईघर की तरह इस्तेमाल कर रही है, जहां वही पक रहा है जो सरकार चाहती है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest