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लॉकडाउन के दौरान भी भारत को लगातार सता रहा है टेस्टिंग का सवाल

संक्रमण पहचानने के लिए बड़ी मात्रा में टेस्ट किए बिना लॉकडाउन का मुख्य उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। आधिकारिक आंकड़े जोर देकर दावा करते हैं कि भारत पर्याप्त मात्रा में टेस्ट कर रहा है, लेकिन इन पर करीब़ से नज़र डालने पर अलग ही भयावह तस्वीर सामने आती है।
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कोरोना वायरस को रोकने के लिए भारत की नई योजना में मुख्य रणनीति 'सक्रिय मामलों की खोज, बड़ी संख्या में टेस्टिंग, तुरंत मरीज़ और पॉजिटिव लोगों के आईसोलेशन की व्यवस्था और उसके संपर्कों को क्वारंटाइन' करने पर आधारित है।

WHO के डॉयरेक्टर जनरल टेड्रोस घेब्रेयेसस ने एक महीने पहले दुनिया भर के सामने इस बात को ज्यादा नाटकीय ढंग से रखा था, उन्होंने कहा, 'आप किसी आग से अंधे होकर नहीं लड़ सकते। अगर हम यह नहीं जानते कि कौन सा व्यक्ति संक्रमित है, तो इस महामारी को नहीं रोक सकते। हमारा सभी देशों के लिए एक ही संदेश है- ज़्यादा से ज़्यादा टेस्ट करें। हर संदिग्ध का टेस्ट करें।'

स्वतंत्र विश्लेषक लगातार लॉकडाउन के दौरान संक्रमितों की खोज, टेस्ट और आइसोलेशन पर जोर देते रहे हैं। ताकि जब नियमों में ढील दी जाए, तो उन्हें एक बड़ी आबादी को संक्रमित करने से रोका जा सके। आखिर लॉकडॉउन से संक्रमित लोग घरों के भीतर ही तो रहे हैं, चूंकि लॉकडॉउन को अनंत काल के लिए तो लगाया नहीं जा सकता, इसलिए संक्रमण को धीमा करने के इसके मुख्य उद्देश्य के लिए टेस्टिंग और संक्रमितों या उन्हें संपर्कों की खोजबीन जरूरी है।

अमेरिका स्थित सेंटर फॉर डिसीज़ डॉयनेमिक्स इकनॉमिक्स एंड पॉलिसी ने भारत को लेकर अपनी रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा था, 'एक राष्ट्रीय लॉकडॉउन प्रभावी नहीं होगा और इससे गंभीर आर्थिक नुकसान हो सकता है, जिसमें भुखमरी भी शामिल है। इससे संक्रमण के अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचने के वक़्त में आबादी की प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम हो जाएगी।'

CDDEP ने अपने सुझाव में कहा कि लॉकडाउन के साथ-साथ बड़ी संख्या में टेस्टिंग और संक्रमित व्यक्ति, उसके संपर्कों की खोज करनी चाहिए। लॉकडॉउन वहीं करना चाहिए, जहां ज़्यादा जरूरी हो।

Rediff.com से बात करते हुए जन स्वास्थ्य अभियान के को-कंवेनर और लेखक, जनस्वास्थ्य चिकित्सक डॉ अभय शुक्ला ने हाल में कहा, 'किसी को यह बात अच्छे से समझना चाहिए कि लॉकडॉउन बहुत कड़ा और बड़े दायरे पर लागू किया जाने वाला कदम है। यह कम समय के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन यह व्यक्ति आधारित बड़े स्तर की टेस्टिंग का विकल्प नहीं है।'

द टेलीग्राफ के साथ एक इंटरव्यू में वॉ़यरोलॉजिस्ट और WHO के पूर्व सलाहकार डॉ ठेक्केकारा जैकब जॉन ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'लॉकडाउन से आप संक्रमण के कुछ क्लस्टर्स को बनने से रोक सकते हैं, यह क्लस्टर्स कितने लोगों के हो सकते हैं, एक-दो या पांच और दस लोगों के, जिन परिवारों से यह लोग हैं, उन्हीं के बीच हो सकते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के लिए इन्हें 21 दिन के लॉकडॉउन के दौरान ही पहचान लेना मुश्किल होता है।'

कोरोना से लड़ने के दौर में दक्षिण कोरिया, ताईवान और हॉन्गकॉन्ग आदर्श बनकर उभरे हैं। यहां रोकथाम के लिए बड़े स्तर पर टेस्टिंग और संक्रमित, उसके संपर्कों की खोज की नीति अपनाई गई। (जैसा लेखक ने अपने पहले लेख में बताया है कि सबसे ज़्यादा सफलता बिना लॉकडॉउन के हासिल की गई है।)
 
क्या हम जरूरी टेस्टिंग कर रहे हैं?

कोरोना महामारी की पहचान के लिए दो तरह के टेस्ट होते हैं। RT PCR या रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन पोलीमेरेज़ चेन रिएक्शन के तहत एंटीजन (वायरस) का पता लगाया जाता है। वहीं दूसरी तरह की सीरियोलॉजिकल टेस्टिंग के तहत एंटीबॉडीज़ खोजे जाते हैं, जो वायरस के प्रतिरोध में मानव शरीर में बनते हैं।

भारत में अबतक RT-PCR टेस्ट का ही उपयोग किया गया है। अब यहां ज़्यादा एंटीबॉडी टेस्ट की क्षमताएं बढ़ाई जा रही हैं। यह टेस्टिंग सस्ती और तेज भी है। अब तक इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) ने 200 सरकारी लैब और 100 प्राइवेट लैबों को कोरोना जांच करने की अनुमति दी है।

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अब तक भारत में कुल मिलाकर 3,83,985 टेस्ट हुए हैं। इनमें से 17,615 मामलों में संक्रमण की पुष्टि हुई है। यह संक्रमण के लिहाज़ से कम संख्या है। हालांकि कई लोगों ने इसे अपर्याप्त बताया है। जब आप भारत की बड़ी आबादी को ध्यान में रखते हैं, तब पाते हैं कि भारत की टेस्ट रेट दुनिया में सबसे निचले आंकड़ों में शामिल है। यहां प्रति हजार लोगों पर 0.27 टेस्ट हो रहे हैं। अगर हम उन देशों की तुलना करें, जहां संक्रमण का हमारे स्तर का है, तो तुर्की (प्रति हजार लोगों पर 7.14 टेस्ट), साउथ अफ्रीका (1.84) और विएतनाम (2.1) हमसे कहीं ऊंची दर से टेस्ट कर रहे हैं।

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भारत की टेस्टिंग रेट 24 मार्च के बाद बढ़ी है, लेकिन तीन अप्रैल को अचानक पिछले दिन की टेस्ट संख्या 21,294 से गिरकर यह आंकड़ा 10,705 पर पहुंच गया था। इसे वापस अपने स्तर पर आने में दस दिन लग गए।

शुरुआती मार्च से ही स्वास्थ्य विशेषज्ञ सरकार से लगातार टेस्टिंग बढ़ाने की मांग कर रहे थे। पर लॉकडाउन में टेस्टिंग की बहुत ज़्यादा जरूरत होने के बावजूद भी इसकी दर में बहुत इज़ाफा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, जैसा ऊपर दिखाया टेस्टिंग एक प्वाइंट पर काफ़ी गिर गई थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ऐसा टेस्ट किट की कम आपूर्ति के चलते हुआ।

खुद से बनाई कमी

28 मार्च को कोविड-19 पर बनाई गई टास्क फोर्स के संयोजक गिरधर ज्ञानी ने द क्विंट को बताया कि सरकार के पास जरूरी संख्या में टेस्टिंग किट्स नहीं हैं। इसलिए टेस्टिंग कम संख्या में हो रही है। जब उनसे पूछा गया कि डॉक्टर कम लक्षण वाले लोगों का टेस्ट क्यों नहीं कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा, 'सरकार को डर है कि इन अपुष्ट मामलों की जांच में ही सारी किट्स खत्म हो जाएंगी। इसलिए वे जरूरी संख्या में कोविड-19 के टेस्ट नहीं कर रहे हैं।'
 
सात अप्रैल को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, 'हमें तीन अप्रैल को 5000 टेस्ट किट मिली थीं। इसलिए हमारी टेस्टिंग किट कम हैं। हम 21 मार्च से लगातार PPEs की मांग केंद्र से कर रहे हैं। लेकिन वहां से मदद मिलने में बहुत देर हो रही है।'

दस अप्रैल को केरल के स्वास्थ्यमंत्री के के शैलजा ने टाइम्स को बताया, 'यहां टेस्टिंग किट्स, आरएनए एक्सट्रैक्शन किट और रीजेंट्स की कमी है।'

केरल के स्वास्थ्यमंत्री द्वारा टेस्टिंग किट्स की कमी बताने से एक हफ़्ते पहले ICMR ने राज्यों को एक एडवाइज़री जारी करते हुए कहा था कि हमें जल्द ही पूरी जरूरत के हिसाब से RT-PCR किट्स उपलब्ध हो जाएंगी। एडवाइज़री में आगे कहा गया कि एंटीबॉडी रैपिड टेस्ट किट्स की आपूर्ति भी जल्द होने की संभावना है। इसके केवल एक चीन के आपूर्तिकर्ता को छोड़कर सभी 29 आपूर्तिकर्ताओं की सूची भी दी गई।

दो हफ़्ते बाद भी ICMR अपने 70 लाख किटों वाले मेगा ऑर्डर का इंतजार कर रहा है। देश के 170 हॉटस्पॉट में टेस्टिंग के लिए बेहद जरूरी इस ऑर्डर की पांच डेडलाइन निकल चुकी हैं। 16 अप्रैल को ICMR ने बताया कि एक पांच लाख टेस्ट किट वाला छोटा ऑर्डर आ चुका है, जो फिलहाल की मांग पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

उस ऑर्डर ने ICMR को बचाव की सुरक्षा दे दी। लेकिन उस वक़्त को वापस नहीं पाया जा सकता, जो ऑर्डर के टलने के चलते बर्बाद होता रहा। ICMR की चार अप्रैल को जारी की गई एडवाइज़री में भी RT-PCR टेस्ट की कमी का उल्लेख है। जबकि उस दौरान बहुत कम मात्रा में टेस्ट किए जा रहे थे। इससे पता चलता है कि बिना जरूरी आपूर्तियों के देश को लॉकडाउन में बंद कर दिया गया है।

वैश्विक दौड़, देशी पाखंड

3 अप्रैल को ब्लूमबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि कैसे ऑर्डर देने में सबसे बाद में आने के चलते भारत वैश्विक बाज़ार में पिछड़ गया। रिपोर्ट में आगे बताया गया कि किटों की कमी के चलते ICMR की लैब महज़ 36 फ़ीसदी क्षमता पर ही चल पा रही हैं। जबकि 49 मान्यता प्राप्त प्राइवेट लैबों में हर दिन की सिर्फ 8 जांच ही हो रही हैं।

इसके बाद के वक़्त में भी वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से जुड़ी चीजों की आपूर्ति के लिए दौड़ तेज ही हुई है। नतीज़ा यह हुआ कि राज्यों के स्वास्थ्य विभाग के पास टेस्ट किट की बहुत कमी हो गई, जबकि उन्हें किटों को विदेशों से हासिल करने की अनुमति भी हाल ही में मिली थी। जैसे हाल में, तमिलनाडु के मुख्य सचिव के षणामुगम ने आरोप लगाया कि चीन ने तमिलनाडु के हिस्से की किट अमेरिका भेज दीं।

अंतरराष्ट्रीय ऑर्डर तो ICMR के हाथ में हैं नहीं, लेकिन संस्था का घरेलू स्तर पर रिकॉर्ड बेहद चौंकाने वाला है। भारत में कोरोना का पहला मामला आने के लगभग दो महीने बाद घरेलू टेस्टिंग किट्स को ICMR द्वारा अनुमति दी गई।

घरेलू किटों पर कितनी ऊहा-पोह चालू थी, यह हमें 21 मार्च के उस नोटिफिकेशन से भी पता चलता है, जिसमें भारत में उत्पादित टेस्ट किटों को 'यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन' से अनुमति लेने की बात कही गई। इसके चलते निर्माताओं ने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए ICMR पर भारतीय कंपनियों के साथ भेदभाव करने के आरोप लगाए। एक निर्माता ने फैसले को मूर्खतापूर्ण, तो दूसरे ने पागलों की तरह उठाया गया कदम बताया। 23 अप्रैल को यह आदेश वापस ले लिया गया।

इस पूरे वाकिये में एक बात और दिलचस्प है। FDA खुद अमेरिकी डॉयग्नोस्टिक्स को आधिकारिक तौर से अनुमित देने का काम नहीं करता। बल्कि सिर्फ 'आपात उपयोग अनुमति' देता है, ताकि आपात मांग के दौरान आपूर्ति की प्रक्रिया को तेज किया जा सके।

यह पूरी घटना उस पृष्ठभूमि में हुई, जब गुजरात आधारित कंपनी CoSara डॉयग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड ने ICMR से घरेलू टेस्टिंग किट्स की अनुमति हासिल करने वाली पहली कंपनी होने का दावा किया। बाद में पता चला कि ना तो इस कंपनी, ना ही इसके पीछे काम करने वाली अमेरिकी कंपनी के पास डॉयग्नोस्टिक किट बनाने का पुरान दावा है। दोनों कंपनियों ने ज्वाइंट वेंचर बनाया था।

दोहरी आपदा

28 फरवरी को चीन में संक्रमण पर जारी हुई WHO की रिपोर्ट में पता चला कि ज़्यादातर संक्रमण के क्लस्टर परिवारों में बने थे। यह कुल संख्या के 80 फ़ीसदी क्लस्टर थे। यह प्रसिद्ध रिपोर्ट महामारी पर पहला आधिकारिक अध्ययन था, इसलिए दुनिया भर की सरकारों के लिए कोरोना से लड़ाई का स्त्रोत् बिंदु भी।

इसके बावजूद, एक महीने बाद जब भारत में लॉकडाउन लागू किया गया, तो ICMR यह तय नहीं कर पाया कि परिवारों के भीतर संदेहास्पद मामलों की जांच हो सके। विदेश से किट मंगाने में हुई देरी बड़ी गलती है, लेकिन घरेलू तौर पर इनके उत्पादन में हुई देरी और बड़ी गलती है। इससे घरेलू निर्माताओं में गुस्सा छा गया। वे लॉकडाउन के चलते भी आपात कोविड-19 टेस्ट किटों के उत्पादन में नाकाम रहे। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि एक महीना बीत जाने पर भी यह किट भारतीय लैबों में नहीं पहुंच पाई हैं।

बिना सोचे-विचारे भयावह तरीके से लागू किए गए लॉकडाउन से बड़ीं संख्या में लोगों की जान गई हैं। एक अनुमान के मुताबिक करीब़ 200 लोग अब तक लॉकडाउन के चलते मारे गए हैं। अब भी लॉकडाउन लाखों लोगों को भूखा रहने पर मजबूर और लंबे वक़्त के लिए आर्थिक संकट पैदा कर रहा है। इनमें से कुछ बहुत बड़ी गलतियों से बचा जा सकता था। जिन देशों में भी लॉकडऑउन लागू किया गया, वहां इस तरह की गलतियां नहीं की गईं, चाहे वो गरी़ब़ देश रहे हों या अमीर।

यह मानवजन्य आपदा थी। लेकिन भारत में इन चीजों के लिए कभी किसी को सजा नहीं हुई। नीति बनाने वाले इसे भी 'कोलेटरल डैमेज' कहकर खारिज कर दिया जाएगा। लेकिन जैसा टेस्टिंग के आंकड़े दिखाते हैं, यह लोग अपने मुख्य उद्देश्य को हासिल करने में भी नाकामयाब रहे हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

नोट-  भारत की टेस्टिंग किट्स के स्टॉक और उपयोग के कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अब तक इस आपूर्ति के बारे में जानने के लिए किए गए ईमेल का ICMR की तरफ से कोई जवाब नहीं आया है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दी गई लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

The Question of Testing Continues to Haunt India’s Lockdown

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