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आदिपुरुष फ़िल्म का मूल एजेंडा हिंसा ही है जो कि आज सत्ता का मूल स्वर है

वर्तमान सत्ता ने जिस तरह का समाज बना दिया है उसी अर्थ में फ़िल्म की शब्दावली है।
Adipurush
फ़ोटो साभार: BookMyShow

फ़िल्म 'आदिपुरुष' में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है उससे बहुत से लोग आहत हैं और लगातार सोशल मीडिया पर उसकी बहस दिख रही है। फ़िल्म में दिखाये जाने वाले राम ,सीता, हनुमान, लक्ष्मण आदि के चरित्रों की वेष-भूषा, भाव-भंगिमा आदि को लेकर भी लोग असहमति की बातें कर रहे हैं। इसमें मनोज मुन्तशिर शुक्ला के लिखे संवादों को लेकर सबसे ज्यादा विवाद है। लोगों का कहना है कि फ़िल्म के संवाद बेहद स्तरहीन भाषा में लिखे गये हैं और उनसे रामचरित मानस की गरिमा को ठेस पहुँच रही है। लोगों को आदिपुरुष फ़िल्म की भाषा सड़कछाप गुंडों की भाषा लग रही है।

आमतौर पर लोग इस फ़िल्म को एक प्रोपोगेंडा फ़िल्म मान रहे हैं कि फ़िल्म को ज्यादा से ज्यादा चर्चित होने के लिए ऐसा प्रयोग किया गया है। उनका मानना है कि ’आदिपुरुष’ फिल्म रामकथा की हास्यास्पद पैरोडी है, लेकिन बात इतनी भर नहीं है। कश्मीर फाइल्स से लेकर द केरला स्टोरी फिल्में एक सोची समझी गयी प्रायोजित नीति के तहत बनायी गयी हैं जिनका उद्देश्य सांप्रदायिक तनाव को फैलाना है। यह फ़िल्म आदिपुरुष उसी का हिस्सा है। इस फ़िल्म को राज्य की हिंदुत्ववादी नीति के एक एजेंडे के रूप में बनाया गया है लेकिन भारतीय जनमानस में राम की सौम्य छवि अभी इतनी धुंधली नहीं हो पाई थी और इनके गढ़े राम को वहाँ खारिज कर दिया गया। जबकि उन्होंने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे पर अपनी तरह से काम किया।

वर्तमान सत्ता ने जिस तरह का समाज बना दिया है उसी अर्थ में फ़िल्म की शब्दावली है।फ़िल्म के एक दृश्य में हनुमान कहते हैं ’जो हमारी बहनों को हाथ लगाएगा, उसकी लंका लगा देंगे!’ आप हैरान होकर तुलसी और बाल्मीकि रामायण में इस संवाद को ढूढेंगे पर वह कहाँ मिलेगा! आपको ये संवाद इंटरनेट पर कई वीडियो में मिलेगा। याद कीजिए आये दिन कितने हिंदू संगठनों के नेता यही धमकी भरी भाषा बोलते हैं।

पहले भी हमारे सिनेमा जगत में रूढ़ियों का हमेशा बहुत ज्यादा महिमामंडन हुआ है। प्रगतिशील विचारों पर कम ही फिल्में बनाई गई हैं क्योंकि भारतीय जनमानस का मन कहीं न कहीं रूढ़ियों में रमता है। आदिपुरुष फ़िल्म का निर्माण तो पूर्णतः राजनीतिक उद्देश्य से हुआ दिखता है लेकिन अब तक हो रहे प्रयोगों में ये प्रयोग सफल न हो सका उल्टे उनके अपने लोग ही नाराज होने लगे। बाद में ये तय हुआ कि फ़िल्म के कुछ दृश्य हटा दिए जायेगें, कुछ संवाद बदल दिए जाएंगे। एकबारगी फ़िल्म बनाने की मंशा देखकर राजनीतिक एजेंडा ही दिखता है लेकिन भीतरी सतह में तो यहाँ भी पूँजी आदि का मसला ही बड़ा एजेंडा होगा।

जहाँ तक भाषा का सवाल है उसे ध्यान से समझने पर पता चलता है कि हिंदुत्ववाद और सांप्रदायिकता के सरोकार से बनी इस फ़िल्म का मूल उद्देश्य हिंसा ही है। कहा जाता है कि पूरे रामचरित मानस या बाल्मीकि रामायण में राम को बस एक बार क्रोध आया था लेकिन आज सत्ता जिस राम को स्थापित कर रही है वहाँ धनुष की प्रत्यंचा खींचे राम ही उनके आदर्श हैं। फ़िल्म आदिपुरुष बनाकर वे राम नाम का उन्माद युवाओं में हिंसक भाषा में भर देना चाहते हैं कुछ हद तक वे सफल भी हो जायेगें क्योंकि आज एक बहुत बड़ी भीड़ है जो हर हाल में हर हिंदूवादी एजेंडे में शामिल होती है। इस फ़िल्म को भी बड़ी संख्या में लोग देखेगें और आधुनिक भाषा में अपने आराध्य को युवाओं तक पहुँचाने का इसे महान कार्य कहेंगे। हिंसा ही उनका मुख्य उद्देश्य है इसलिए इस फ़िल्म में उन्होंने रामायण के सबसे हिंसक भाग को लेकर फ़िल्म का निर्माण किया जिसमें खूब हिंसा और रक्तपात हुआ है।

कोई भी कृति अगर हमारी मानवीय संवेदनाओं को सक्रिय न करके धार्मिक चेतना को सक्रिय करती है तो वो निश्चित ही जनपक्षधर नहीं हो सकती। जिस संदर्भ में वे आज धर्म को बरत रहे हैं रामायण कथा का भी कुछ यही हाल है। रामानंद सागर का रामायण धारावाहिक हो या आज रामकथा पर बनी आदिपुरुष फ़िल्म जाहिर सी बात है इनमें से किसी का काम समाज को जोड़ने का नहीं है बल्कि इनके जरिये धार्मिक चेतना में नया रंग भर दिया जाता है।

आप जब गाँव-समाज का अध्ययन करेंगे तो देखेगें कि ये जाने कैसे और कब से होने लगा कि समाज में हमेशा से ताकत को प्रमोट किया जाता है। जाने कब से ये चला आ रहा है। लोगों को हिंसा की, धमकी की, क्रूरता की भाषा को दुहराने में आनंद आने लगा।

मैं गाँव में रहती हूँ तो गाँव का जन जीवन बेहद करीब से देखती हूँ। तत्कालीन राजनीति में जो सब लगातार घट रहा है लोग वहाँ की हिंसक गतिविधियों से प्रभावित दिखते हैं। हिंसा का जोरशोर से बखान करते हैं। जैसे अपने देश की बात नहीं किसी दुश्मन देश से युद्ध चल रहा है। वो बार-बार हिन्दू होने के गर्व और विशेषण बोध से भर उठते हैं और फिर उनको ये मलाल रहता है कि इतनी महान जाति में पैदा होने पर भी पिछली सरकार की सेकुलर भावना के कारण उनको जातीय प्रिविलेज नहीं मिला बल्कि वो अल्पसंख्यक समुदाय को मिला। इसी प्रकार की तमाम निराधार बातें होती हैं। वे व्हाट्सएप से सूचना पढ़कर उसे इतिहास की तरह दुहराते हैं। पहले गाँव में दूर-दराज में भी किसी की मौत की खबर सुनकर बड़े बुजुर्ग लोग खाना नहीं खाते थे, फलाहार आदि करते थे। वे शोक करते थे मौत का। अब अजीब वातावरण बन गया है वही गाँव-जवार है, वही लोग हैं कि हत्या का जश्न मनाते हैं। किसी का घर टूटने पर मजे ले लेकर बताते हैं, खुश होते हैं।

मैं गाँव में कुछ लड़कों को देखती हूँ, वो बात-बात पर कहते हैं अभी बाबा का बुलडोजर चल जायेगा या जातीय बोध से भरी हिंसक बातें कहने में जैसे उनको आनंद आ रहा है। आखिर ये प्रवित्ति इतनी तेजी से समाज में कैसी फैली। हालांकि ये समाज शुरू से सामन्ती रहा है। राजा का गुणगान करने वाला मन रहा इसका, फिर औपनिवेशिक युग में वो इसी परंपरा का अनुसरण करता रहा।

लोकतांत्रिक मूल्यों से बने देश में समाज की मनोदशा भीतर से लोकतांत्रिक न हो पायी वो ताकत की हिमायती पहले की तरह ही रह गई थी। उनमें मानवीय बोध तो रहा लेकिन मानवीय मूल्यों की कोई कसौटी नहीं बनी। वर्तमान सत्ता ने देश के जनमानस की इस कमजोरी को बहुत अच्छे से पकड़ा और अपने लाभ के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया। वे शुरू से गाँधी जैसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व को खलनायक की संज्ञा देते रहे। गाँधी मेल-मिलाप, भाईचारे का संदेश देते थे और यही भाईचारा और मेलमिलाप इस सत्ता की सबसे बड़ी दिक्कत थी। इसके रहते ये कभी अपनी पूर्ण ताकत में नहीं आ सकते थे तो उन्होंने सबसे पहले इसी को उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठाया। गाँधी की हत्या भर से गोडसे और सावरकर के इन हिमायतियों का पेट न भरा। वे लगातार गाँधी के विचारों की हत्या करते आ रहे हैं। आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी विध्वंस, मंदिर निर्माण सब उनके उसी नफरती ऐजेंडे का हिस्सा हैं। फिल्में पहले भी राज्य के एजेंडे से बनती रही लेकिन वो प्रगतिशीलता या मेलमिलाप जैसे मुद्दों पर बनीं। नफरत और हिंसा फैलाने के उद्देश्य से पहली बार कोई सत्ता फिल्में प्रमोट कर रही है। कुछ दिनों से लगातार क्रम से सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती फिल्में बन रही हैं। ये आदिपुरुष फ़िल्म भी उसी क्रम का हिस्सा थी, इसमें ठीक उसी भाषा का प्रयोग किया गया जिसे आजतक हिंदुत्ववादी नेता बोलते आ रहे हैं उसी भाषा का खूब सड़क छाप और टपोरी वर्जन बनाया गया और वे उसे रामकथा का मॉर्डन रूप बता रहे हैं। लोगों ने पहले तो स्वागत भी किया क्योंकि भाषा में जिस बल, ताकत और उखाड़ कर फेंकने की प्रवित्ति थी समाज में बहुत गहरे से भरी थी लेकिन राम और सीता की जो पारम्परिक छवि थी जो रामकथा की अबतक की भाषा थी उसका असर भी बड़ा गहरा था तो फ़िल्म में किया उनका प्रयोग सफल नहीं हुआ।

आज जो इस सत्ता का पूरा राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें ऐसी फिल्में बनना मात्र एक घटना है उसका महिमाण्डन भी कोई नयी बात नहीं है, इस पूरे परिदृश्य में जो परिघटना घटी वो बस यही कि उनके इस फार्मूले को आदिपुरुष फ़िल्म को खारिज कर दिया गया। बाकी तो आज जब देश का मुखिया, प्रदेश का मुखिया, देश का रक्षा भार सम्भालने वाला और जाने कितने छोटे-बड़े नेता आये दिन इसी हिंसा की बोली में बोल रहे हैं तो उनके सहयोग से बनी इस फ़िल्म की भाषा से अचरज कैसा। सड़क की हिंसायी भाषा जब सत्ता की भाषा बन जाती है और जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग उसी भाषा का प्रयोग कर देवता बन जाएं तो महान काव्यात्मक कृतियाँ भी इसी तरह की भाषा से विकृत हो जाती है। जब सत्ता प्रतिगामी विचार का अपने लाभ के लिए महिमामंडन करे और उसकी पुनर्स्थापना को विद्रूप रूप में परोसना चाहे तो कोई क्या कर सकता।

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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