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केंद्र की लापरवाही से सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहा ख़ूबसूरत सूबा मणिपुर

केंद्र और राज्य सरकार ने मणिपुर के हालात संभालने में जितनी देरी की उससे हिंसा ने एक नया रूप ले लिया है। कुकी और मैतेई समुदाय के बीच दशकों के प्रयास से जो भरोसा बना था, वह ख़त्म हो गया है।
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सुदूर पूर्वोत्तर राज्यों की आवाज़ नई दिल्ली आते कितनी कमज़ोर हो जाती है, इसकी ताज़ा मिसाल इस समय मणिपुर बना हुआ है। आमतौर पर पूर्वोत्तर के राज्यों की तरफ दिल्ली यानी केंद्र सरकार और कथित मुख्यधारा के मीडिया खासकर हिंदी मीडिया का ध्यान तभी जाता है, जब वहां कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा आती है या फिर वहां चुनाव हो रहे होते हैं या फिर केंद्र में सत्तारूढ़ दल को वहां के किसी राज्य में जोड़-तोड़ के ज़रिए अपनी सरकार बनानी होती है। इसके अलावा उन राज्यों के दैनिक जनजीवन में क्या कुछ होता है और वहां लोगों को किन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है, इससे न तो केंद्र की सरकार को कोई सरोकार होता है और न ही मीडिया को। यह तथ्य एक बार नहीं बल्कि कई बार साबित हुआ है और इस समय मणिपुर के दर्दनाक हालात से यह एक बार फिर साबित हुआ है।

लंबे समय तक उग्रवाद और अलगाववाद की लपटों में बुरी तरह झुलसता रहा पूर्वोत्तर का छोटा सा लेकिन ख़ूबसूरत सूबा मणिपुर इस समय अपने सबसे मुश्किल भरे दौर से गुज़र रहा है। इस बार संकट अलगाववादी उग्रवाद का नहीं बल्कि स्थानीय दो समुदायों के बीच अपनी पहचान और वर्चस्व को लेकर हिंसक टकराव का है। राज्य के कुकी और मैतेई समुदायों के बीच पिछले क़रीब दो महीने से जारी सांप्रदायिक हिंसा में अब तक 125 से भी ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं। हिंसा और अराजकता का आलम यह है कि विधायकों और मंत्रियों के घरों तक में लोगों ने आग लगा दी और सुरक्षा बल असहाय बने रहे।

मणिपुर में हिंसा की शुरुआत तीन मई को हुई थी। तब से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक में चुनावी रैलियां कीं, चुनाव प्रचार के दौरान ही उन्होंने धार्मिक पर्यटन भी किया। फिर भीषण रेल हादसा होने पर ओडिशा का दौरा भी किया। अपनी सरकार के दूसरे कार्यकाल के चार साल पूरे होने का जश्न मनाते हुए उन्होंने राजस्थान के अजमेर में रैली भी कर ली। उसके बाद अंतरराष्ट्रीय महफिलों में अपनी हाजिरी दर्ज कराने के लिए विदेशों के दौरे भी कर आए। विदेश यात्रा के दौरान बगैर किसी सरकारी प्रयोजन के उन्होंने ऑस्ट्रेलिया जाकर वहां भी भारतीयों की रैली को संबोधित किया। वहां से लौट कर कुछ दिन देश में बिताने के बाद अमेरिका और मिस्र की यात्रा भी उन्होंने कर ली। इन विदेश यात्राओं से निबट कर मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार की शुरुआत करने भी पहुंच गए।

लेकिन इस सबके दौरान न तो वे मणिपुर जाने का वक्त निकाल पाए और न ही उन्होंने मणिपुर की स्थिति पर कोई बयान दिया। इस दौरान उन्होंने दो बार 'मन की बात' भी की लेकिन उसमें भी मणिपुर का कहीं ज़िक्र नहीं था। यही नहीं, मणिपुर के हालात पर चर्चा करने के लिए वहां के विधायकों के तीन प्रतिनिधिमंडल भी दिल्ली में कई दिनों तक डेरा डाले रहे लेकिन प्रधानमंत्री उनसे भी नहीं मिले। उनकी इस बेरुखी के चलते मणिपुर की सड़कों पर उनके लापता होने के पोस्टर तक लग गए। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को भी हिंसा शुरू होने के क़रीब एक महीने बाद याद आया कि मणिपुर भी भारत का ही हिस्सा है। उन्होंने वहां का दौरा किया लेकिन नतीजा शून्य रहा।

बहरहाल मणिपुर की हिंसा के बुनियादी कारणों पर बात करने से पहले अगर हिंसा के अलग-अलग पहलुओं को देखें तो बहुत चिंताजनक तस्वीर उभरती है। मणिपुर हिंसा कैसे शुरू हुई, किस तरह से यह पूरे प्रदेश में फैल गई, कैसे इतने लंबे समय तक हिंसा जारी है और इस दौरान कितनी बर्बरता हुई, इसकी कहानियां बेहद परेशान करने वाली हैं। हाल के सालों में किसी भी राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन में ऐसी बर्बरता देखने को नहीं मिली, जैसी मणिपुर में मिली है।

हिंसा की शुरुआत मणिपुर हाई कोर्ट एक आदेश से हुई, जिसमें अदालत ने राज्य के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के प्रस्ताव पर विचार करने को कहा। हाई कोर्ट के इस आदेश के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ दशकों से वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हिंदुत्ववादी संगठनों की जारी कोशिशों ने मैतेई अस्मिता को काफी हद तक हिंदुत्व की पहचान देने के साथ ही चर्च विरोधी गतिविधियां भी खूब चलाई हैं। इसलिए हाई कोर्ट के आदेश को इन्हीं कोशिशों का विस्तार मानते हुए कुकी समुदाय ने उसका विरोध करते हुए आदिवासी एकजुटता मोर्चा की एक रैली निकाली। तीन मई को निकाली गई इस रैली से ही टकराव शुरू हुआ, जो भीषण हिंसक संघर्ष में बदल गया। पहले दो दिन की हिंसा में ही 54 लोग मारे गए। उसके बाद आनन-फानन में सेना और अर्धसैनिक बलों को नियुक्त किया गया, लेकिन हालात बेकाबू बने रहे और हिंसा की लपटें तेज़ होती गईं।

सवाल है कि क्या यह हिंसा स्वयंस्फूर्त थी? अभी तक ऐसा ही माना जा रहा है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। दोनों मुख्य जातीय समूहों कुकी और मैतेई के बीच जातीय टकराव का पुराना इतिहास रहा है। दोनों समुदाय एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं। कुकी इस बात से परेशान रहते हैं कि मैतेई समुदाय को राजनीतिक रूप से ज़्यादा महत्व मिलता है क्योंकि उनके चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या ज़्यादा होती है। दोनों समुदाय हमेशा लड़ने के लिए तैयार रहते हैं। हाई कोर्ट के फ़ैसले से दोनों समुदायों के बीच की फॉल्टलाइन ज़ाहिर हुई और बरसों से दबा आक्रोश बाहर आ गया।

राज्य में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की आबादी 53 फ़ीसदी है जो इम्फाल घाटी में रहती है। इसमें अधिकांश हिंदू हैं, कुछ ईसाई और मुसलमान भी हैं। राज्य में मुसलमानों की कुल आबादी आठ फ़ीसदी है। राज्य की दूसरी दो प्रमुख जनजातियां कुकी और नगा है जिनकी आबादी क्रमश: 16 और 24 प्रतिशत है। इसके अलावा जोमी जनजातियां है। ये सारी जनजातियां पहाड़ों में रहती हैं। इनका बड़ा हिस्सा ईसाई है। अगर धर्म को आधार बनाएं तो राज्य में हिंदू और ईसाइयों की आबादी 41-41 फ़ीसदी है। राज्य की सिर्फ़ दस फ़ीसदी ज़मीन घाटी में है। बाक़ी हिस्सा पहाड़ी है।

मुख्यत: घाटी में बसे मैतेई समुदाय को पहाड़ी इलाकों में ज़मीन खरीदने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार सिर्फ़ जनजातियों को है। मैतेई समुदाय ख़ुद को अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने की मांग करता रहा है ताकि ज़मीन खरीदने के साथ उन्हें जनजातियों को मिलने वाली दूसरी सुविधाएं मिल सके। कुछ और भी बातें है जो इस आशंका को मजबूती देती है कि मणिपुर की हिंसा पूर्वोत्तर के बाक़ी राज्यों को भी अपनी गिरफ़्त में ले सकती है।

इस सांप्रदायिक संघर्ष की आग ईसाई आबादी वाले मेघालय, मिजोरम, नगालैंड को तो प्रभावित कर ही सकती है, साथ ही असम तथा त्रिपुरा में पहले से चल रहे सांप्रदायिक और भाषाई संघर्ष को भी हवा दे सकती है। हिंदुत्व से प्रभावित मैतेई संगठन जिस तरह चर्च और ईसाई धर्मावलंबियों को अलगाववादी और म्यांमार से आया बताते हैं, वह नैरेटिव मुस्लिम अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ असम में भी है।

पूरा मणिपुर किस तरह से कुकी और मैतेई मे बंटा है, वह कई तरह से दिख रहा है। कुकी समुदाय के आम लोग ही नहीं, बल्कि विधायक तक, राजधानी इंफाल छोड़ कर पहाड़ों में चले गए। उन्होंने केंद्र सरकार के सामने मणिपुर से अलग होने की मांग तक रख दी है। क़रीब मई महीने से चल रही हिंसा के बीच अब राज्य में कोई मणिपुरी या भारतीय नहीं है बल्कि सब कुकी है या मैतेई हैं। यह विभाजन पुलिस, सुरक्षा बलों, सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों और कारोबारियों में भी दिख रहा है।

एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि इतने दिनों से जारी हिंसा के दौरान सुरक्षाकर्मियों से तीन हज़ार हथियार छीन लिए गए हैं। अब पूरे राज्य में सर्च ऑपरेशन चलाया जा रहा है ताकि हथियार वापस हासिल किए जा सके। कहीं-कहीं से कुछ हथियार बरामद हुए है लेकिन ज़्यादातर हथियार अब भी उपद्रवियों के पास हैं और यह एक बड़ा कारण है, जिससे हिंसा नहीं थम रही है। पहाड़ों, जंगलों मे हथियारबंद उपद्रवी हैं और 50 हज़ार से ज़्यादा लोग राहत शिविरों में हैं।

गृह मंत्री अमित शाह के दौरे के बाद से ही राज्य की सरकार और सुरक्षा बलों की ओर से दावा किया जा सकता है कि मोटे तौर पर शांति बहाल हो गई है, लेकिन सरकारी इमारतों और लोगों के घरों पर हमले, तोड़-फोड़, आगज़नी आदि की घटनाएं पहले की तरह जारी है। केंद्र और राज्य सरकार ने मणिपुर के हालात संभालने में जितनी देरी की उससे हिंसा ने एक नया रूप ले लिया है। कुकी और मैतेई समुदाय के बीच दशकों के प्रयास से जो भरोसा बना था वह ख़त्म हो गया है। दशकों पुराने घाव हरे हो गए हैं। पिछले दो महीने के दौरान दोनों के बीच ऐसी खाई बन गई है, जिसे पाट पाना निकट भविष्य में आसान नहीं है।

बहरहाल मणिपुर संकट में कुछ नए आयाम भी जुड़ गए हैं, जिनकी ओर सुरक्षा बलों ने ध्यान दिलाया है। शांति बनाए रखने और उग्रवादियों पर काबू पाने के लिए तैनात सेना व अर्धसैनिक बलों को उग्रवादियों के साथ-साथ जन प्रतिरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। इसके वीडियो सुरक्षा बलों ने जारी किए हैं। ये वीडियो हाल की दो घटनाओं के है। एक घटना पूर्वी इंफाल की है, जहां इथम गांव में खुफिया सूचना के आधार पर सुरक्षा बलों ने कार्रवाई करके प्रतिबंधित संगठन कांगलेई यावोल कन्ना लुप यानी केवाईकेएल के 12 उग्रवादियों को पकड़ा था। इनके पकड़े जाने की सूचना के बाद क़रीब डेढ़ हज़ार लोग इकट्ठा हो गए, जिनमे ज़्यादातर महिलाएं थीं। उन्होंने पकड़े गए उग्रवादियों के आसपास घेरा बना लिया और मजबूरी में सुरक्षा बलों को उन्हें छोड़ना पड़ा। दूसरी घटना भी इथम गांव की ही है, जहां बड़ी संख्या में महिलाओं ने घेरा बनाया हुआ था और भारी मशीन से सड़क की खुदाई हो रही थी ताकि असम राइफल्स और दूसरे सुरक्षा बलों को उस इलाक़े में घुसने से रोका जा सके।

मणिपुर के लिए यह नया घटनाक्रम है। गौरतलब है कि पिछले कुछ बरसों से उग्रवादियों को आम लोगों का समर्थन मिलना बंद हो गया था। उनका आधार सिमट कर बहुत छोटा हो गया था और ज़्यादातर उग्रवादी संगठनों को मणिपुर के अंदर अपना बेस बनाने की जगह नहीं मिली थी। उनको मजबूरी में म्यांमार और बांग्लादेश की सीमा में अपना बेस बनाना पड़ा था। कई बार भारतीय सुरक्षा बलों ने म्यांमार की सीमा में घुस कर भी उग्रवादियों के शिविर नष्ट किए। सुरक्षा बलों के दबाव और आम लोगों के असहयोग की वजह से ज़्यादातर उग्रवादी संगठनों के उग्रवादी सरेंडर करके मुख्यधारा मे लौटने लगे थे। लेकिन तीन मई को शुरू हुई हिंसा ने उनको जीवनदान दे दिया है। उनके पास बड़ी संख्या में नए हथियार पहुंच गए है और आम लोगों का समर्थन भी मिलने लगा है। सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस के लिए इससे नई चुनौती पैदा हुई है, जिससे निबटने का रास्ता अभी नहीं दिख रहा है।

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