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किसान जानता है कि फसल पकना तो शुरुआत है, मंडी में दाम मिलने तक उसका काम पूरा नहीं होता

मोदी जी ने तो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में किसानों से घर वापस जाने के लिए कहा परन्तु किसान जानता है कि खेत में फसल पकना तो शुरुआत है लेकिन जब तक फसल का मंडी में उचित मूल्य नहीं मिल जाता तब तक काम पूरा नहीं होता।
farmers celebrating
तीन कृषि क़ानून वापस होने की खुशी मनाते किसान। तस्वीर ‘किसान एकता मोर्चा’ के ट्विटर हैंडल से साभार

शुक्रवार, 19 नवंबर की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब तीन कृषि कानून वापस लेने की घोषणा की तो आंदोलकारी किसानों के चेहरे विश्वास और ख़ुशी से चमक उठे।  पिछले एक वर्ष से अनगिनत विपदाओं, भीषण सर्दी, गर्मी और अब फिर सर्दी के चक्र से मुकाबले और मीडिया व सोशल मीडिया में दुष्प्रचार की पीड़ा, अपने अनेक साथियों को खोने का गम, सब कमतर लगने लगे, इस जीत की ख़ुशी में। और जीत केवल किसानों के लिए नहीं बल्कि देश की जनता के लिए।  उनकी खाद्य सुरक्षा को बचाने की, जम्हूरियत को बचाने की। 

इस आंदोलन की गंभीर समीक्षा बाद में होगी फिलहाल आज सब तरफ चर्चा है परन्तु किसानो को याद है 26 नवंबर 2020 का दिन जब भाजपा की सरकारें दावा कर रहीं थी कि वह किसानों को दिल्ली तक नहीं पहुँचने देंगी, पुलिस लाठियां, पानी और आंसू गैस के  गोले किसानों पर दाग रही थी।

26 जनवरी की रात जब बहुत से बुद्धिजीवी और टीवी चेनलों के एंकर किसान आन्दोलन के समाप्ति की भविष्यवाणी कर रहे थे, राकेश टिकैत के आंसुओं पर ठहाके लगा रहे थे।  लेकिन यह सब किसानों के हौसलों को नहीं डिगा पाया।  इतना लम्बा संघर्ष- आज़ाद भारत में पहले कभी न देखा गया।  हर बीतते दिन के साथ किसानों के हौसलें मज़बूत होते गए। और आज किसान आन्दोलन इतिहास में दर्ज हो गया केवल लम्बा चलने वाला आन्दोलन ही नहीं बल्कि एक तानाशाह सरकार को झुकाने के लिए। 

परिपक्व किसान आन्दोलन

किसान संगठनो ने बड़ी ही सावधानीपूर्वक इस निर्णय को लिया है। इतनी बड़ी जीत कि खुमारी और शेखी बघारने से बचते हुए किसान आन्दोलन के परिपक्व नेतृत्व ने तय किया है कि जब तक इन तीनों कानूनों के संसद में वापस (रिपील) करने के प्रक्रिया पूरी नहीं कर ली जाती तब तक आगे का कोई निर्णय नहीं हो सकता। मोदी जी ने तो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में किसानों से घर वापस जाने के लिए कहा परन्तु किसान जानता है कि खेत में फसल पकना तो शुरुआत है लेकिन जब तक फसल का मंडी में उचित मूल्य नहीं मिल जाता तब तक काम पूरा नहीं होता। इसलिए कानून वापसी की घोषणा तो किसानों के आन्दोलन के फसल का पकना है, किसानों को तब तक पहरेदारी करनी होगी जब तक कि संसद में इसे वापस नहीं ले लिया जाता।

मैं न मानूं हरिदास!

किसानों ने एक साल चली इस जंग में सरकार और भाजपा को मजबूर कर दिया इन कानूनों की वापसी की घोषणा करने के लिए परन्तु अभी भी प्रधानमंत्री की भाषा में बदलाव नहीं आया है। कानून वापसी की घोषणा करते हुए भी उन्होंने कहा कि कानून तो अच्छे हैं परन्तु किसानों को समझ नहीं आए और केवल कुछ किसान ही इनका विरोध कर रहें है। गुरुपर्व का दिन चुनना भी उनके इसी प्रचार का हिस्सा हो सकता है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री अभी एक साल पहले के अपने एजेंडे से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। किसानों के आन्दोलन ने प्रमाणित कर दिया है कि न तो यह कृषि कानून सही थे और न ही यह कुछ किसानों का आन्दोलन है। पिछले एक वर्ष में स्वामीनाथन फार्मूले से कहीं कम MSP को घोषणा,कृषि उत्पादों की लगातार कम होती सरकारी खरीद, उर्वरको की कमी और बढ़ते दाम, खाद्य वस्तुयों की कीमतों में बेहताशा वृद्धि ने साबित कर दिया कि किसानों के सवाल जायज हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी अभी भी वही राग गा रहें हैं। उनको समझना होगा कि अब इस भ्रामक प्रचार का कोई फायदा नहीं है और ईमानदारी से लोकतंत्र में जनता के आन्दोलन को स्वीकार करते हुए यह घोषणा करनी चाहिए थी।

…लेकिन शर्म तो इनको आती नहीं!

इस घोषणा की जानकारी ही भाजपा के कार्यकर्ता के फेसबुक पोस्ट से मिली जिसमें उन्होंने मोदी जी के इस निर्णय को उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए मास्टर स्ट्रोक करार दिया था। यह परिचायक है भाजपा IT सेल के प्रचार का। अभी भी भाजपा प्रचार कर रही है कि यह किसान आन्दोलन के कारण नहीं हुआ है बल्कि उनके युग पुरुष की किसान आन्दोलन को मात देने की नायाब चाल है। यह प्रचार अपने आप में ही 700 से ज्यादा किसान शहीदों का अपमान है। और भी कई बुद्धिजीवी हैं जो इस जीत का श्रेय किसान आन्दोलन से छीनना चाहते हैं। मसलन एक बड़ा प्रचार है कि यह निर्णय तो आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र लिया गया है। हालाँकि इस बात में कुछ सच्चाई है परन्तु चुनाव तो इससे पहले भी हुए और आगे भी होंगे। अगर किसान आन्दोलन न होता तो भाजपा को राजनितिक ख़तरा न दीखता और वह ऐसा निर्णय लेने के लिए मजबूर न होती।

नवउदारवादी नीतियों पर लगाम

शुरू से ही किसान आन्दोलन की समझ साफ़ थी कि यह तीनों कृषि कानून नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के अगले चरण के सुधार हैं जिससे कृषि में कॉर्पोरेट हिस्सेदारी बढ़ाई जा सके और खेती भी बाज़ार के हवाले कर दी जाए। सरकार और कॉर्पोरेट घरानों की सांठगाठ से यह किसानों में और भी साफ़ होता जा रहा था। इसलिए किसानों ने भी सीधे कॉर्पोरेट से भी लड़ाई ली और अडानी और अम्बानी का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। किसान आन्दोलन का असर इतना प्रभावशाली था कि गाँव गाँव में मोदी-शाह-अडानी अम्बानी की सरकार का नारा गूंजने लगा। जो बात कई दशको की मेहनत के प्रगतिशील ताकतें जनता को नहीं समझा पा रहीं थी किसान आन्दोलन ने पिछले एक साल में शासक वर्ग को बेनकाब कर दिया कि कैसे कॉर्पोरेट घरानों के इशारों पर सरकारें निर्णय लेती है। यह सभी समझ रहे थे कि यह कॉर्पोरेट हित ही है जो सरकार को किसानों से सकारात्मक बातचीत करने से रोक रहे है। दरअसल सब समझ रहे थे कि अगर यह कृषि कानून लागू नहीं होते तो कॉर्पोरेट परस्त बाकी नीतियां भी रूक जाएंगी। इसलिए असल में तीनो कृषि कानूनों का वापस होना नवउदारवादी नीतियों पर लगाम लगना है और एक नीतिगत जीत है ।

700 से ज्यादा किसानो की मौत कि ज़िम्मेदारी

पिछले एक साल से किसान अपने आन्दोलन से भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री को समझाने की कोशिश कर रहे थे। 25 नवम्बर, 2020 को यही बात मन में लिए किसान अपने घरों से चले थे कि शायद राज्यों में आन्दोलन से दिल्ली में बैठी सरकार उनकी बात नहीं सुन पा रही है इसलिए उन्हें दिल्ली जाकर अपनी आवाज उठानी होगी। लेकिन वह दिल्ली कि सीमाओं पर ही रोक दिए गए। इस एक साल में किसानों ने न केवल कठोर विपदाएं सहीं बल्कि कईयों को अपनी जान गवानी पड़ी। किसानों के संघर्ष के पिछले एक साल के दौरान करीब 700 लोगों की जान गंवाने के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार जिम्मेदार हैं। प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार को अपनी असंवेदनशील और अड़ियल स्थिति के कारण सैकड़ों लोगों की जान गंवाने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और देश से माफी मांगनी चाहिए। अभी भी देश की जनता लखीमपुर की घटना जिसमे भाजपा के केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी का बेटा आशीष मिश्रा किसानों की हत्या के लिए जिम्मेदार है, पर प्रधानमंत्री से प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही है। अब तो मंत्री के बेटे की कारगुजारी सबके सामने आ गई है फिर भी वह अपने पद पर बने हुए है। अच्छा तो यही होता कि प्रधानमंत्री तत्काल उनको भी मंत्रालय से बर्खास्त करने की घोषणा करते।

मोदी सरकार को लगातार चुनौती देते किसान

हालाँकि पिछले एक साल में मीडिया द्वारा मोदी सरकार के हर निर्णय को अजेय पेश किया जाता रहा है। नोटबंदी, CAA, GST, जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना और लोकतंत्र कि हत्या कर केंद्र शासित प्रदेश में बदलना, लेबर कोड, नई शिक्षा नीति आदि  एक लम्बी फेहरिस्त है मोदी सरकार के जनविरोधी निर्णयों की लॉकडाउन के समय की अमानवीय तस्वीरें तो अभी सबके जेहन में ताजा है। इन कई निर्णयों के बाद जन आन्दोलन विकसित करने के प्रयास भी किये गए परन्तु मोदी जनता के एजेंडे को भटकने में सफल रहा, हालाँकि नई शिक्षा नीति और लेबर कोड को लेकर छात्र और मजदूर निर्णायक लड़ाई में है। लेकिन इससे पहले भी किसानों ने मोदी सरकार को पीछे धकेला था। पहले भी किसानों के नेतृत्व में एकजुट विरोध ने सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को स्थगित करने के लिए मजबूर किया था। प्रधानमंत्री की घोषणा कृषि को निगमित करने और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाने के प्रयास के खिलाफ एक बड़ी जीत है।

किसान मज़दूर एकता की जीत

इस ऐतिहासिक किसान आन्दोलन कि एक सबसे बड़ी खूबी किसानों और मजदूरों की  एकता रही है जो पहले दिन से आन्दोलन में दिखी है। अभी तक की सरकारें और शासक वर्ग मजदूरों और किसानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता आया है लेकिन इस किसान आन्दोलन के अनुभवों से भारत में इन दोनों मेहनतकश वर्गों जिसमें खेत मजदूर भी शामिल हैं, ने सीखा है कि उनकी लड़ाई में दुश्मन एक है और जीत के लिए दोनों को एक साथ आना पड़ेगा। इस आन्दोलन में भी केन्द्रीय मजदूर यूनियन के मंच और संयुक्त किसान आन्दोलन ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ काम किया और जीत हासिल की।

लड़ाई जारी है

हालांकि, इस ऐतिहासिक किसान संघर्ष की एक मूलभूत मांग, सभी किसानों की सभी फसलों को उत्पादन की व्यापक लागत (सी2+50%) के डेढ़ गुना पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने के लिए एक केंद्रीय अधिनियम- अभी पूरी नहीं की गई है। इस मांग को पूरा करने में विफलता ने कृषि संकट को बढ़ा दिया है और पिछले 25 वर्षों में 4 लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या का कारण बना है, जिनमें से लगभग 1 लाख किसानों को मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के पिछले 7 वर्षों में अपना जीवन समाप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अगर प्रधानमंत्री को लगता है कि उनकी घोषणा से किसानों का संघर्ष खत्म हो जाएगा, तो वे सरासर गलत हैं। संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक लाभकारी एमएसपी सुनिश्चित करने के लिए एक अधिनियम पारित नहीं हो जाता है, बिजली संशोधन विधेयक और श्रम संहिता वापस ले ली जाती है। यह तब तक जारी रहेगा जब तक लखीमपुर खीरी और करनाल के हत्यारों को न्याय के कटघरे में नहीं लाया जाता। यह जीत कई और एकजुट संघर्षों को बढ़ावा देगी और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रतिरोध का निर्माण करेगी ।

(लेखक अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

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