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किसान आंदोलन देश की समस्या नहीं, समाधान है

चाहे वे किसानों के समर्थक हों या किसानों के विरोधी उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि किसानों की ट्रैक्टर परेड और गणतंत्र दिवस के पारंपरिक शासकीय आयोजन की तुलना करने की ग़लती न करें।
किसान आंदोलन
चित्र सौजन्य: किसान एकता मोर्चा

किसानों ने अहिंसक, शांतिपूर्ण ट्रैक्टर परेड के माध्यम से गणतंत्र दिवस मनाने का निर्णय लिया है। ट्रैक्टर देश के लाखों किसानों के कृषि कार्य का सहायक साधन है, यह इस बात का प्रतीक है कि देश का किसान हर नई टेक्नोलॉजी और हर वैज्ञानिक नवाचार के प्रति उदार सोच रखता है। किंतु जब ट्रैक्टर अहिंसक विरोध प्रदर्शन का प्रतीक चिह्न बनता है तब यह भी समझना आवश्यक है कि किसान ने नई तकनीक को अपनाया है लेकिन इसके साथ जबरन थोपे जाने वाले शोषणमूलक विकास के खतरों से वह पूरी तरह वाकिफ है। यह गाँधी के देश का किसान है। उसने ट्रैक्टर को आधुनिक युग के चरखे में तबदील कर दिया है।

किसानी सृजन का कार्य है, रचने का आनंद और सकारात्मकता उसके साथ जुड़े हुए हैं। इसीलिए जब देश का किसान प्रदर्शन कर रहा है तब उसके विरोध में भी सकारात्मक चिंतन हर बिंदु पर समाविष्ट दिखता है। इस विरोध प्रदर्शन में जाति-धर्म और संप्रदाय की सीमाएं टूटी हैं।

मध्यम वर्ग और निर्धन वर्ग के बीच षड्यंत्र पूर्वक जो शत्रुता एवं वैमनस्य पैदा किया गया था इस किसान आंदोलन ने उसे कम किया है और दोनों को यह समझ में आ गया है कि मुनाफे को केंद्र में रखने वाली विकास प्रक्रिया ही दोनों की साझा शत्रु है। यह विरोध प्रदर्शन समाज को एक सूत्र में बांध रहा है। ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुसलमान जैसे अनेक आरोपित विभेद ध्वस्त हो रहे हैं। राष्ट्रीय एकता का सच्चा स्वरूप सामने आ रहा है। यदि सरकार इस विरोध प्रदर्शन का दमन नहीं करती है, इसके विषय में दुष्प्रचार नहीं करती है तो सत्ता और जनता के बीच की दूरी भी मिट सकती है। किसानों ने अपने इस लंबे आंदोलन में हर बिंदु पर इस बात का ध्यान रखा है कि वे अपना विरोध, अपनी असहमति अपने ही देश की चुनी हुई सरकार के साथ साझा कर रहे हैं।

यदि सरकार तिरंगों से सजी इस ट्रैक्टर रैली में दिखाई देने वाले राष्ट्रभक्त अन्नदाताओं के विशाल जन सैलाब के देश प्रेम का सम्मान करती है तो यह सिद्ध हो जाएगा कि देश की आजादी के बाद देश की सत्ता ने विभाजन और दमनकारी ब्रिटिश सोच से छुटकारा पा लिया है और वह हिंदुस्तानियों की अपनी सरकार है। इस सरकार के निर्णयों से देश की जनता असहमत हो सकती है किंतु  सरकार और जनता दोनों  ही हमारे इस गौरवशाली गणतंत्र की रक्षा और विकास के प्रति प्रतिबद्ध हैं। 

अपने विस्तार और पवित्र स्वरूप के कारण यह किसान आंदोलन इतना विराट हो गया है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय किसी षड्यंत्रकारी ट्रोल समूह की घटिया साजिशें इसे लांछित-कलंकित करने की जहरीली कोशिशों में बुरी तरह नाकामयाब ही होंगी। सोशल मीडिया पर सक्रिय नफरतजीवियों को ऐसी कोशिशों से परहेज करना चाहिए और भारतीय गणतंत्र की आंतरिक शक्ति, उदारता और विशालता को प्रदर्शित करने वाले इस दृश्य का आनंद लेना चाहिए।

चाहे वे किसानों के समर्थक हों या किसानों के विरोधी उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि किसानों की ट्रेक्टर परेड और गणतंत्र दिवस के पारंपरिक शासकीय आयोजन की तुलना करने की गलती न करें। एक ओर राष्ट्र प्रेम के जज्बे से ओतप्रोत तिरंगे की आन-बान-शान के दीवाने ट्रैक्टरों पर सवार किसान होंगे तो दूसरी ओर देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने वाले टैंकों और युद्धक विमानों पर सवार देश के वीर सपूत होंगे। अगर इन दोनों दृश्यों को परस्पर विरोधी छवियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो यह उसी विभाजन और नफरत के नैरेटिव को बढ़ावा देना होगा जो किसान और जवान को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है। यह दोनों छवियां परस्पर पूरक हैं विरोधी नहीं। देश के किसान और जवान की राष्ट्र भक्ति में कोई अंतर नहीं है। बस दोनों के कार्य क्षेत्र अलग अलग हैं।

इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने बुनियादी समस्याओं को स्पर्श किया है, यही कारण है कि इसे राष्ट्रीय स्वरूप और व्यापकता मिली है। किंतु अभी भी यह कृषि से जुड़े लाखों लोगों  का प्रतिनिधि आंदोलन नहीं बन पाया है। देश के लाखों भूमिहीन कृषि मजदूर  जिन खेतों पर  पीढ़ियों से अपना खून पसीना एक कर अन्न उपजाते रहे हैं उन खेतों का मालिकाना हक उन्हें कैसे मिले यह हमें सोचना होगा। हमारी बहस का मुद्दा यह होना चाहिए कि देश की कृषि में केंद्रीय भूमिका निभाने वाली नारी शक्ति के योगदान को कैसे स्वीकृति और सम्मान मिले? क्या यह आंदोलन- छोटे छोटे कोऑपरेटिव समूह बनाम विशाल कॉरपोरेट कंपनियां- जैसा निर्णायक स्वरूप नहीं ले सकता? क्या यह विमर्श विकेन्द्रित समानता मूलक ग्राम प्रधान अर्थव्यवस्था बनाम केंद्रीकृत नगर प्रधान शोषणमूलक अर्थतंत्र के जरूरी प्रश्न पर केंद्रित नहीं किया जा सकता? हमें हमारी प्राथमिकताओं पर खुलकर चर्चा करनी होगी – हम कृषि को ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार एवं आजीविका प्रदान करने वाला बनाना चाहते हैं या कृषि से रोजगार खत्म करना चाहते हैं, यह हमें तय करना होगा। यदि गणतंत्र दिवस पर किसान नेता मानव केंद्रित विकास के मॉडल पर आधारित वैकल्पिक अर्थव्यवस्था को चर्चा में ला सकें तो देश का शोषित-वंचित-उपेक्षित तबका भी इस आंदोलन से जुड़ जाएगा। 

हम इस किसान आंदोलन को समस्या मानकर बड़ी भूल कर रहे हैं। यह आंदोलन समस्या नहीं है बल्कि समस्या के समाधान का एक भाग है। 

क्या इस गणतंत्र दिवस का उपयोग किसान नेता षड्यंत्र पूर्वक हाशिए पर धकेल दिए गए गाँधीवाद को पुनः चर्चा में लाने के लिए करेंगे क्योंकि शायद हमें समाधानकारक विकल्प वहीं से मिलेगा।  गाँधी जी द्वारा राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के विकेंद्रीकरण और मशीनों के नकार का आग्रह अनायास नहीं था। उनकी यह दृढ़ मान्यता थी कि लोकतंत्र मशीनों यानी कि प्रौद्योगिकी एवं उत्पादन के केंद्रीकृत विशाल संसाधनों यानी कि उद्योग का दास होता है। गांधी जी यह जानते थे कि लोकतंत्र पर अंततः कॉर्पोरेट घरानों और टेक्नोक्रेट्स का नियंत्रण स्थापित हो जाएगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था  बिग बिज़नेस हाउसेस के हितों की रक्षा के लिए समर्पित हो जाएगी। गांधी जी का आर्थिक और राजनीतिक दर्शन भी अहिंसा की ही बुनियाद पर टिका हुआ है। मुनाफे और धन पर अनुचित अधिकार जमाने की वृत्ति आर्थिक हिंसा को उत्पन्न करती है। जबकि धार्मिक-सांस्कृतिक तथा वैचारिक-राजनीतिक- सामरिक आधिपत्य हासिल करने की चाह राज्य की हिंसा को जन्म देती है। गांधी राज्य की संगठित शक्ति को भी हिंसा के स्रोत के रूप में परिभाषित करते थे। यही कारण था कि वे शक्तियों के विकेंद्रीकरण के हिमायती थे। व्यक्तिगत स्वातंत्र्य उनके लिए सर्वोपरि था।

 गांधीजी ने एक अवसर पर लिखा था- जब भारत स्वावलंबी और स्वाश्रयी बन जाएगा और इस तरह न तो खुद किसी की संपत्ति का लोभ करेगा और ना अपनी संपत्ति का शोषण होने देगा तब वह पश्चिम या पूर्व के किसी भी देश के लिए- उसकी शक्ति कितनी ही प्रबल क्यों न हो- लालच का विषय नहीं रह जाएगा और तब वह खर्चीले अस्त्र शस्त्रों का बोझ  उठाए बिना ही खुद को सुरक्षित अनुभव करेगा उसकी यह भीतरी स्वाश्रयी अर्थव्यवस्था बाहरी आक्रमण के खिलाफ सुदृढ़तम ढाल होगी।(यंग इंडिया 2 जुलाई 1931)। 

यह कथन हम सबने बार बार पढ़ा है और शायद हममें से बहुत से लोग उपहासपूर्वक मुस्कराए भी होंगे कि गाँधी जी कितने भोले हैं जो यह मानते हैं कि आर्थिक स्वावलंबन देश की रक्षा के लिए सैन्य शक्ति से भी ज्यादा जरूरी है। किंतु गाँधी जी ने नव उपनिवेशवाद के खतरों को बहुत पहले ही भांप लिया था। वे जानते थे कि अब सैन्य संघर्ष का युग बीत गया है। आने वाले समय में साम्राज्यवाद आर्थिक गुलामी का सहारा लेकर अपना राज्य फैलाएगा। जब हम हमारी सरकारों पर कृषि को बाजार के हवाले करने के विश्व व्यापार संगठन के दबाव को देखते हैं तो विश्व के ताकतवर देशों की यह साजिश बड़ी आसानी से समझ में आती है। 

यह किसान आंदोलन देश के गणतंत्र का विरोधी नहीं है। यह देश की आजादी को बरकरार रखने की एक जरूरी कोशिश है। देश के किसान और जवान मिलकर देश की स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश के किसान ‘तंत्र’ को ‘गण’ का महत्व बताने में लगे हैं। यह गणतंत्र दिवस इसीलिए ऐतिहासिक है। यह महज एक तारीख नहीं है बल्कि तारीख बनने का दिन है।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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