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तालिबान के बहाने इस्लाम को बदनाम करने की तुच्छ राजनीति!

भारत में कुछ राजनीतिक पार्टियां इस जुगत में हैं कि तालिबान के सहारे इस्लाम को खूब बदनाम किया जाए। जितना इस्लाम बदनाम होगा भारतीय समाज में ध्रुवीकरण की दीवार उतनी मजबूत बनेगी और चुनावी राजनीति में उसका फायदा उतना ही धारदार मिलेगा।
तालिबान के बहाने इस्लाम को बदनाम करने की तुच्छ राजनीति!
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' फ़ोटो साभार: द प्रिंट

इस्लाम को लेकर कई तरह की धारणाएं और अफवाहें पूरी दुनिया में किसी रोग की तरह पसरी हुई हैं। जिनका एक ही मकसद होता है कि इस्लाम और कट्टरता को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया जाए। इस्लाम और आतंकवाद को एक-दूसरे का सहयोगी बता दिया जाए। भारत में साल 2014 के बाद से तो मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए देश में कई तरह की फैक्ट्री खुल चुकी है। टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर इस्लाम को दुश्मन के तौर पर पेश करने का धंधा चलता रहता है। जब से तालिबान खबरों के फलक पर आया है तब से तो खुलकर मुस्लिमों के प्रति जहर फैलाया जा रहा है। शहर के चौक-चौराहे से लेकर गांव देहात के जमावड़े, हर जगह तालिबान का मुद्दा इसी निष्कर्ष पर पहुंच रहा है कि मुस्लिम बहुत कट्टर होते हैं।

वहीं कुछ राजनीतिक पार्टियां इस जुगत में हैं कि तालिबान के सहारे इस्लाम को खूब बदनाम किया जाए। जितना इस्लाम बदनाम होगा भारतीय समाज में ध्रुवीकरण की दीवार उतनी मजबूत बनेगी और चुनावी राजनीति में फायदा उतना ही धारदार मिलेगा।

किसी किताब, खबर और विश्लेषण और विद्वता को किनारे कर केवल अपनी नजर से देखा जाए तो भी यह साफ-साफ दिखेगा कि तालिबान के डर से भागने वाले लोग इस्लाम के ही हैं। अगर इस्लाम वैसा होता जैसा तालिबान अपनाता है तो लोग वहां से क्यों भागते? अगर इस्लाम वैसा होता जैसा तालिबान की मान्यताएं हैं तो तालिबान को शासन करने के लिए बंदूक की क्या जरूरत थी? बंदूक है इसका मतलब है विरोध है। अगर अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ विरोध हो रहा है तो वह विरोध भी इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग ही कर रहे हैं।

साफ शब्दों में कहा जाए तो यह कि केवल तालिबान को सामने रखकर इस्लाम धर्म को बदनाम करना किसी भी पार्टी, व्यक्ति या संगठन की केवल बेईमानी को दर्शाता है और कुछ नहीं।

अगर इस्लाम धर्म को थोड़ा ढंग से समझने की कोशिश करें तो बात यह है कि इस्लाम दुनिया में दूसरा सबसे ज्यादा फैला हुआ धर्म है, जिसमें आस्था रखने वाले लोगों की तादाद 200 करोड़ से ज्यादा है.( इससे ज्यादा संख्या बस ईसाइयों की है, जिनकी कुल आबादी मुसलमानों से 20 प्रतिशत ज्यादा है. इस्लाम की इतनी बड़ी आबादी किसी एक भूगोल में मौजूद नहीं है बल्कि कई मुल्कों में फैली हुई है। इसलिए कई तरह की धार्मिक व्याख्याओं का होना स्वाभाविक है।

अब्दुल अजीम अहमद ब्रिटेन के कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। इस्लाम धर्म के स्कॉलर हैं। युद्ध, जलवायु परिवर्तन और वैश्वीकरण से गढ़ी जा रही दुनिया से जुड़े ब्यौरे के लिए समर्पित वेबसाइट इनफॉर्म्ड कमेंट पर अब्दुल अज़ीम लिखते हैं कि दुनिया की एक चौथाई आबादी इस्लाम धर्म को मानने वाले लोगों से जुड़ी हुई है। सब एक ही तरह के नहीं है। अलग-अलग धार्मिक कर्मकांड के द्वारा ये लोग इस्लाम में अपनी आस्था रखते हैं। दुनिया का इतिहास बताता है कि क्रिश्चियन लोगों ने भी गॉड के नाम पर बहुत लड़ाइयां लड़ी हैं। हम जब क्रिश्चियन लोगों के बारे में सोचते हैं तो अमेरिका और यूरोप के कुछ देश ख्याल में आते हैं। अफ्रीका और सहारा के इलाके में रहने वाले हमारे क्रिश्चियन ख्याल में नहीं आते। जहां पर वह बहुत अधिक दयनीय स्थिति में रह रहे हैं। अफ्रीका में 'the lord's resistance army' नाम से क्रिश्चियन धर्म से जुड़ा भी एक आतंकवादी संगठन है। लेकिन इसके बारे में कोई नहीं जानता। इस आतंकवादी संगठन को आधार बनाकर पूरे क्रिश्चियन धर्म को खारिज करने का प्रचलन कहीं नहीं है।

साल 2014 में ट्यूनीशिया की संविधान सभा ने संविधान बनाया। जिसमें औरतों और मर्दों को बराबर हक दिया गया। इतिहासकार बारबरा मेटकॉफ़ चिन्हित करती हैं कि इस्लाम की देवबंद धारा से तालिबान का रिश्ता बताया जाता है। लेकिन इस्लाम की देवबंद धारा का जो मतलब भारत में है वह पाकिस्तान में नहीं है और ठीक वैसा ही अफगानिस्तान में नहीं है। तीनों अलग-अलग हैं। अभी यह केवल इस्लाम की एक धारा में मौजूद अलगाव है तो पूरे इस्लाम में कितना अलगाव होगा इसका अंदाजा भी लगाया जा सकता है। भारत में इस्लाम की देवबंद धारा ने जिन्ना की मुस्लिम लीग का विरोध किया। कहा कि पहले राष्ट्र आता है और उसके बाद क़ौम आती है (वतन से क़ौम)। पाकिस्तान में देवबंद की धारा शिया और अहमदिया समुदाय के विरोध में खड़ी हुईं तो अफगानिस्तान की देवबंद की धारा ने सलाफी इस्लाम को अपनाया, जो अपनी मान्यताओं में बहुत अधिक कट्टर है।

अफगानिस्तान की तकरीबन 84 फ़ीसदी आबादी सुन्नी इस्लाम को मानती है। इसका बहुत बड़ा हिस्सा तालिबान की मान्यताओं पर भरोसा नहीं करता। मिस्र और तुर्की सुन्नी बाहुल्य देश हैं। इन्होंने भी तालिबान की मान्यताओं को खारिज कर रखा है। जिस पख्तून आंदोलन से तालिबान की उपज मानी जाती है उस पख्तून समुदाय का भी बहुत बड़ा हिस्सा तालिबान की मान्यताओं को नहीं मानता।

भारत में आम लोगों के बीच यह धारणा बहुत गहरे तौर पर जमी हुई है कि इस्लाम के पवित्र ग्रंथ कुरान से हिंसा की सीख मिलती है। इस्लाम के खातिर कत्ल करने की इजाजत दी जाती है। इस आधार पर इस्लाम से इतर दूसरे धर्म के लोग इस्लाम को बहुत ही बुरी नजर से देखते हैं। राजनीतिक विश्लेषक जैनब सिकंदर द प्रिंट अपने बहुत पुराने लेख में लिखती हैं कि क्या मोहम्मद पैगंबर ने अलकायदा का गठन किया? अगर मोहम्मद पैगंबर आज होते तो क्या करते? कोई पागल आदमी कुरान की जो भी व्याख्या करता है उसके कारण की जाने वाली करतूतों के लिए न तो पूरा मुस्लिम समुदाय जिम्मेदार है और न वह मजहब जिम्मेदार है जिसका पालन हम करते हैं. अगर कोई सनकी आशिक ‘मोहब्बत की खातिर’ कत्ल कर देता है तब आप यह नहीं कहते कि मोहब्बत ‘संकट’ में है।

क़ुरान की कई आयतों में से एक खास आयत है जिसे इस्लाम को एक हिंसक धर्म बताने के लिए उदधृत किया जाता है. इसके दूसरे सूरे (अध्याय) की 191वीं आयात में अल्लाह कहते हैं- ‘और जहां कहीं उनसे सामना हो, उनका कत्ल कर दो और उनको वहां से निकाल दो जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला है. इसलिए की फितना (उत्पीड़न) कत्ल से बढ़कर बुरा है. लेकिन मस्जिद अल-हरम (काबा) के पास तुम उनसे मत लड़ो, जब तक कि वे तुमसे वहां न लड़ें. अगर वे लड़ें तो उनका कत्ल कर दो, ऐसे काफिरों की यही सज़ा है।

कोई भी यह समझने को तैयार नहीं है, बताए जाने पर भी नहीं कि यह आयत तब आई थी जब कुरेश कबीले ने हज पर गए मुसलमानों पर हमला किया और उनका कत्ल किया था जबकि उन्होंने पैगंबर से यह करार किया था कि वे हज यात्रियों पर हमला नहीं करेंगे।

क़ुरान 23 सालों में टुकड़ों-टुकड़ों में पैगंबर मोहम्मद पर अवतरित हुआ था. इसलिए इसकी आयतें तत्कालीन हालात के मुताबिक हैं. हर सूरा बताता है कि वह किस जगह पर पैगंबर मोहम्मद पर अवतरित हुआ था. क़ुरान एक रेखा में नहीं संकलित किया गया है. किसी हालात का जिक्र शुरू के किसी सूरे में मिल सकता है, तो उसका जिक्र बहुत आगे के किसी सूरे में भी मिल सकता है, क्योंकि पवित्र क़ुरान कहानियों का ग्रंथ नहीं है. यह उपदेशों और नैतिक शिष्टाचारों का ग्रंथ है।

कोई भी आगे की आयतों को उदधृत नहीं करता क्योंकि तब उसका इस्लाम विरोध काफूर हो जाएगा. दूसरे सूरे की आयत 193 में अल्लाह कहते हैं ‘’‘और उनसे तब तक लड़ते रहे जब तक कोई और जुल्म न हो और धर्म ईश्वर के लिए हो, लेकिन अगर वे संघर्ष करते हैं, तो अपराधियों के अलावा किसी भी आक्रामकता की अनुमति नहीं है।

इसमें और गीता में कृष्ण अर्जुन को जो उपदेश देते है उसमें क्या फर्क है? कृष्ण धर्म की यह परिभाषा देते हैं ‘अथ चैत्वमिमं धर्म्यमं संग्राममं न करिष्यसि। ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि’ (हे अर्जुन, अगर तुम धर्म के लिए युद्ध नहीं करोगे तो अपनी कीर्ति, अपने गौरव को खो दोगे). हिंदुओं को इसका संदर्भ निश्चित ही मालूम होगा।

यह तो केवल एक उदाहरण है। जो यह बताता है कि हिंसा की सीख केवल मुस्लिम धर्म नहीं देता बल्कि दूसरे धर्म भी देते हैं। ऐसे तमाम उदाहरणों से सभी धार्मिक ग्राथों में पटे पड़े है।

ईश्वर दर्शन के जानकार कहते हैं कि धार्मिक ग्रंथों में घनघोर किस्म की आस्था रखने वाले लोगों को सबसे गहरी बात यह समझनी चाहिए कि कुरान, बाइबिल, गीता, तोरा जैसे कोई भी धार्मिक ग्रन्थ का समय आज के समय से बिल्कुल अलग था। इसलिए हूबहू धार्मिक ग्रंथ के शब्दों को अपना लेना किसी भी धार्मिक अनुयाई के लिए अपने धर्म के गहरे अर्थों के साथ अन्याय करना होगा।

कानूनी मामलों के जानकार डॉक्टर फैजान मुस्तफा अपने वीडियो में कहते हैं कि तालिबान ने अपनी पहली पारी में जिस तरह से इस्लाम की व्याख्या की वह बहुत अधिक कट्टर, कठोर, रूढ़िवादी और पिछड़ेपन से भरपूर थी। लोगों के बीच इस तरह के नियम कानून लागू करने की वजह से उनकी वैधता खत्म हो गई। हमें समझना चाहिए कि कुरान अवतरण पर आधारित पवित्र किताब है। इसमें नियम कानून का जिक्र बहुत छोटे से हिस्से में किया गया है। इसके 200-300 साल बाद तकरीबन 10वीं शताब्दी में फिकह के तौर पर इस्लामिक कानून बनते हैं। इन इस्लामिक कानूनों का आधार कुरान है, लेकिन इसे बनाया इंसानों ने है, इस्लाम के विद्वानों ने है। तर्क वितर्क से जुड़े जितने औजार होते हैं उनका इस्तेमाल कर इस्लामिक कानून बना है। जैसे कि आपसी चर्चा, प्रक्रियाओं का पालन करते हुए किसी अनुमान तक पहुंचना, ऐसा नियम बनाना जिसमें सब की भलाई निहित हो। इसीलिए इस्लाम में अनुबंध यानी करार की बात की जाती है। शादी के वक्त औरत और मर्द के बीच करार होगा जिसमें वह अपने से जुड़ी हर बात शामिल कर सकते हैं। क्या ऐसा करार का तत्व तालिबान अपने नियम कानून में अपनाता है? क्या सबकी सहमति और सब की भलाई का तत्व तालिबान अपने नियम कानून में अपनाता है? अगर वह नहीं अपनाता है तो क्यों ना यह कहा जाए कि वह इस्लामी कानून के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ है?

इस्लामिक कानूनों में समय-समय पर बदलाव हुए हैं। अलग-अलग व्याख्या की गई हैं। इसलिए इसमें विविधता बहुत है। यही इसकी खूबसूरती है। इस्लाम सुधार से जितने बड़े काम हुए हैं वह इंसानों के हस्तक्षेप की वजह से ही हुए हैं। उसमें ऐसा भी है कि इस्लाम दूसरे जगह की सीख से भी अपने कानून को बदल सकता है। इसलिए अगर कानून में कठोरता है वह समय के हिसाब से नहीं है तो इस्लामिक कानून के मूलभूत सिद्धांत के विपरीत है। अगर तालिबान अपनी वैधता चाहता है तो उसे मौजूदा समय के मानवाधिकारों को इस्लामिक ढांचे के अंदर शामिल करना पड़ेगा। इस्लाम का मकसद रहमत है, जहमत और तकलीफ देना नहीं।

तालिबान का विरोध करना बिल्कुल जायज है। दुनिया भर के लोगों ने तालिबान का विरोध किया है। भारत के संविधान का अंत:करण भी यही कहता है कि तालिबान जैसे संगठनों का विरोध किया जाए। लेकिन तालिबान के बहाने इस्लाम धर्म को बदनाम करना समाज में जहर फैलाने जैसा है। मीडिया का काम जन शिक्षण का होता है। अफगानिस्तान जैसे जटिल मुद्दे पर मीडिया की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस मुद्दे का रेशा-रेशा खोलकर आम लोगों को समझाए। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही है। भारत की मीडिया तालिबान के बहाने इस्लाम को बदनाम करते हुए जहर घोलने का काम कर रही है। सवाल सरकार से होना चाहिए, जिम्मेदारी दुनिया भर के संप्रभु सरकारों पर लादनी चाहिए लेकिन यह सब कुछ छोड़ कर चुनावी राजनीति के लिहाज से तालिबान के बहाने भारत में सांप्रदायिकता की खेती की जा रही है।

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