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चुनाव ख़त्म; पेट्रोल डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़े, जश्न नहीं मनाइएगा!

137 दिनों के बाद पेट्रोल-डीजल के दाम 80 पैसे प्रति लीटर बढ़ गए हैं। घरेलू गैस सिलेंडर की कीमत में भी 50 रुपए का इज़ाफ़ा हुआ है।
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बस चुनाव खत्म होने का इंतज़ार था। अगर चुनाव नहीं हो रहे होते तो पेट्रोल और डीजल की क़ीमतों की उछाल की मार से जनता को कोई नहीं बचा पाता। पांच राज्यों का चुनाव खत्म हो गया है।137 दिनों के बाद पेट्रोल-डीजल के दाम मंगलवार को 80 पैसे प्रति लीटर बढ़ गए हैं। इतना ही नहीं, घरेलू गैस सिलेंडर की कीमत में भी 50 रुपए का इजाफा हुआ है।

दिल्ली में अब 14.2 किलो का बिना सब्सिडी वाला सिलेंडर 949.50 रुपए में मिलेगा। वहीं, पेट्रोल की कीमत 96.21 रुपए प्रति लीटर और डीजल 87.47 प्रति लीटर हो गई है। अगर देश के दूसरे इलाकों पर गौर करें तो मुंबई में पेट्रोल 110.82, डीजल 95.00, कोलकाता में पेट्रोल 105.51, डीजल 90.62 और चेन्नई में पेट्रोल 102.16 और डीजल 92.19 रुपए प्रति लीटर हो गया है। दिल्ली में 5 किलो वाला LPG सिलेंडर 349 रुपए, 10 किलो वाला 669 रुपए और 19 किलो वाला कमर्शियल सिलेंडर 2003.50 रुपए में मिलेगा।

कीमतों में होने वाले इन सारे इजाफे का दोष रूस और यूक्रेन के बीच चल रही लड़ाई पर डाल दिया जाएगा। एक हद तक यह सही भी है। जब ऐसे देश युद्ध के भागीदार होते हैं जो संसाधनों की दुनिया में बहुत अधिक ताक़तवर हैं तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है। रूस और यूक्रेन की लड़ाई में रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों से पूरी दुनिया पर यही ख़तरा मंडरा रहा है। रूस के क्षेत्रफल को देखिये। क्षेत्रफल यानी एरिया के लिहाज़ से रूस दुनिया का सबसे बड़ा देश है। भारत के क्षेत्रफल से पांच गुना बड़ा है। अमेरिका और चीन से दो गुना बड़ा देश है। इंग्लैंड से 70 गुना बड़ा देश है। लेकिन रूस की आबादी उत्तर प्रदेश की आबादी से भी कम यानी महज़ 14 करोड़ है। इतनी कम आबादी और इतने बड़े क्षेत्रफल से यह बात साफ हो जाती है कि रूस के संसाधनों का इस्तेमाल रूस से ज़्यादा दुनिया के दूसरे मुल्क करते हैं। रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है और तीसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस उत्पादक देश।

रूस से हर रोज़ तकरीबन 50 लाख बैरल तेल का निर्यात होता है। इसमें से तकरीबन 42% खरीद एशिया की होती है। रूस और यूक्रेन की लड़ाई का असर यह हुआ है कि जब से लड़ाई शुरू हुई है तब से कच्चे तेल की कीमत में कई तरह की उठापटक हुई है। कीमतों में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है। कच्चे तेल की कीमत बढ़कर 110 डॉलर प्रति बैरल के आस पास पहुंच गयी है। रूस और यूक्रेन के बीच की लड़ाई जितने लम्बे समय तक मौजूद रहेगी तब तक कच्चे तेल की कीमतें बढ़ती रहेंगी। भारत अपनी जरूरतों का तकरीबन 84 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। आर्थिक जानकारों का कहना है कि अगर चुनाव न होते और कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर पेट्रोल डीजल की कीमत बढ़ती तो अब तक इनकी कीमत में मौजूदा कीमत से 25 से 35 रूपये प्रति लीटर का इजाफा हो चुका होता। रसोई गैस की क़ीमतों में 400 रूपये का इजाफा हो गया होता।

सरकार से यही सवाल है कि वह क्या करेगी? अगर वह चुनाव के लिहाज से कीमतों को बढ़ने से रोक सकती है तो चुनाव न होने पर क्या करेगी? क्या लोककल्याण की भावना केवल वोटबेंक तक सीमित है? क्या सरकार का मतलब केवल यही होता है कि वोटबैंक के लिहाज से काम किया जाए?

एक उदाहरण से समझिये। कच्चे तेल का दाम 1 दिसंबर 2021 को 68.87 डॉलर था। उस वक्त दिल्ली में पेट्रोल का दाम 95.41 रुपए प्रति लीटर था। 7 मार्च 2022 को कच्चे तेल का दाम 139.13 डॉलर पहुंच गया। इसका मतलब ये हुआ कि 102 दिन में अंतरराष्ट्रीय मार्केट में क्रूड के दाम 70.26 डॉलर तक बढ़ गए, लेकिन दिल्ली में पेट्रोल के दाम 95.41 पर ही टिके रहे। सरकार ने पेट्रोल डीजल और रसोई गैस की कीमतें नहीं बढ़ाई।अब जबकि कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरेल के आस पास आ चुकी है तो सरकार ने कीमतें बढ़ा दी। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार के पास पर्याप्त तरीके हैं कि वह कीमतें नियंत्रित रखें। कीमतों को इतना ना बढ़ने दें कि कम आमदनी पर जिंदगी गुजार रहे लोगो की कमर टूट जाए। कहने का मतलब यह है कि पेट्रोल डीजल की कीमतों में होने वाले इजाफे का पूरा दोष रूस यूक्रेन की लड़ाई को देना उचित नहीं। सरकार चाहें तो कीमत कम कर सकती है।

सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर पिछले छह सालों में एक्साइज ड्यूटी के तौर पर 250 प्रतिशत की बढोत्तरी की। सरकार ने एक्साइज ड्यूटी बढाकर बम्पर कमाई की है। साल 2014 -15 में पेट्रोलियम सेक्टर के एक्साइज ड्यूटी से सरकार ने तकरीबन 99 हजार करोड़ रूपये की कमाई की थी। पिछले 3 साल में पेट्रोलियम सेक्टर में एक्साइज ड्यूटी पर कमाई के जरिये होने वाली कमाई का लेखा जोखा पेश करते हुए निर्मला सीतारमण ने कहा कि पिछले तीन वर्षों के दौरान पेट्रोल (Petrol) और डीजल (Diesel) से साल 2018-19 में 2,10,282 करोड़ रुपये, साल 2019-20 में 2,19,750 करोड और साल 2020-21 में 3,71,908 करोड़ रूपये इकट्ठा हुए। यानी जब कच्चे तेल की कीमत कम थी तब सरकार ने पेट्रोल डीजल पर टैक्स लगाकर अपना खजाना भरने का काम किया। अब अगर कच्चे तेल को लेकर विपरीत हालत बन रहे हैं तो सरकार इसे भी नियंत्रित कर सकती है।

भारत सरकार के इकोनॉमिक एडवाइजरी कौंसिल के सदस्य नीलकंठ मिश्रा का कहना है कि महंगे होते कच्चे तेल और कच्चे तेल से जुड़े सामानों की वजह से अगले साल भर में भारत के आयात बिल में तकरीबन 7.7 लाख करोड़ रुपये का इजाफा होने वाला है। यह मनरेगा के बजट के दस सालों के बजट के बराबर है।

आर्थिक जानकारों का कहना है कि सरकार चाहे तो कच्चे तेल की वजह से बढ़े हुए ख़र्च का भार खुद सहन कर सकती है। चुनाव की वजह से सरकार अब तक कच्चे तेल की बढ़ी हुए कीमतों का भार सहती भी आयी है। अगर सरकार आम लोगों पर बढ़े हुए खर्च का भार नहीं डालेगी तो इससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा लेकिन प्रभात पटनायक जैसे आर्थिक जानकारों ने कई बार लिखा है कि राजकोषीय घाटे को ध्यान में रखते हुए सरकार को आम जनता पर बोझ नहीं बढ़ाना चाहिए। अगर कच्चे तेल की बढ़ी कीमत से बढ़ा खर्चा सरकार आम लोगों से वसूलती है तो हो सकता है कि अमीर आबादी तो इसे सहन कर ले मर कम आमदनी वालों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा। भारत की प्रति व्यक्ति प्रति माह औसत आमदनी महज 16000 है। वह भी तब जब भारत घनघोर आर्थिक असमानता वाला देश है। केवल 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की कुल आमदनी का 22 फीसदी हिस्सा है और 50 प्रतिशत गरीब आबादी के पास केवल 13 प्रतिशत। ऐसी स्थिति में अगर सरकार कच्चे तेल की कीमत का भार जनता पर डालती है तो उन्ही किसानों और मजदूरों पर सबसे अधिक बोझ पड़ेगा जिनके खाते में सरकार चंद पैसा डालकर वोट वसूलने की रणनीति अपना रही है।

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