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उस घोषित आपातकाल से ज्यादा भयावह है यह अघोषित आपातकाल

लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह ज़रूरी नहीं। यह काम लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है, जो कि पिछले सात साल से लगातार हो रहा है और भयावह रूप में हो रहा है।
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आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का एक बेहद स्याह और शर्मनाक अध्याय....एक दु:स्वप्न...एक मनहूस कालखंड! पूरे 46 बरस हो गए जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर समूचे देश को कैदखाने में तब्दील कर दिया था। विपक्षी दलों के तमाम नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिए गए थे। सेंसरशिप लागू कर अखबारों की आजादी का गला घोंट दिया गया था। संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के रसोईघर में तब्दील हो चुकी थी, जिसमें वही पकता था, जो वे और उनके बेटे संजय गांधी चाहते थे। सरकार के मंत्रियों समेत सत्तारुढ़ दल के तमाम नेताओं की हैसियत मां-बेटे के अर्दलियों से ज्यादा नहीं रह गई थी। आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली थी।

आपातकाल के बाद पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी की सरकार ने और कुछ उल्लेखनीय काम किया हो या न किया हो लेकिन संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर दोबारा तानाशाही थोपे जाने की राह को उसने बहुत दुष्कर बना दिया था। ऐसा करना उस सरकार का प्राथमिक कर्तव्य था, जिसे उसने ईमानदारी से निभाया था। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं। यह काम लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है, जो कि पिछले सात साल से लगातार हो रहा है और भयावह रूप में हो रहा है।

आज अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और उनके चाल-चलन को व्यापक परिप्रेक्ष्य मे देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है। इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है, जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है, वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।

केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारूढ़ या सत्ता में भागीदार भारतीय जनता पार्टी के भीतर अटल-आडवाणी का दौर खत्म होने के बाद पिछले छह-सात वर्षों में ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई है।

नरेंद्र मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके उत्साही 'समर्थकों’ का प्रायोजित समूह उन्हें देखते ही मोदी-मोदी का शोर मचाता है और किसी रॉक स्टार की तर्ज पर मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं। ऐसे ही जलसों में भाषणों के दौरान उनके मुंह से निकलने वाली इतिहास और विज्ञान संबंधी अजीबोगरीब जानकारियों पर बजने वाली तालियों के वक्त उनकी अहंकारी मुस्कान हैरान करने वाली होती है।

आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चापलूसी और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए 'इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फडणवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। वैसे इस सिलसिले की शुरुआत करने वाले वेंकैया नायडू थे, जो फिलहाल देश के उप राष्ट्रपति हैं। कुछ दिनों पहले भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो देवकांत बरुआ ही नहीं, बल्कि अपनी पार्टी के बाकी नेताओं को भी मात देते हुए राजनीतिक निर्लज्जता और चापलूसी की नई मिसाल पेश की थी। उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी तो देवताओं के भी नेता हैं।

आज तो देश में लोकतंत्र का पहरुआ कहे जा सकने वाला एक भी ऐसा संस्थान नजर नहीं आता, जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारुढ़ दल से नहीं, बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है। यही नहीं, सरकार के मंत्री अदालतों को नसीहत दे रहे हैं कि उन्हें कैसे फैसले देना चाहिए। ज्यादातर मामलों में अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीश सत्तारूढ़ दल के नेताओं की सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री मोदी की चापलूसी भरी तारीफ कर रहे हैं। कुल मिलाकर व्यावहारिक तौर पर न्यायपालिका सरकार के प्रति प्रतिबद्ध हो चुकी है।

चुनाव आयोग की साख और विश्वसनीयता पूरी तरह चौपट हो चुकी है और वह एक तरह से चुनाव मंत्रालय में तब्दील हो गया है। किसी भी चुनाव का कार्यक्रम प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की सुविधा को ध्यान रख कर बनाया जाता है। चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोडा-मरोडा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले सात वर्षों के दौरान हम गोवा, मणिपुर, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय आदि कई राज्यों में देख चुके हैं। राज्यसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए सत्तारूढ़ दल की ओर से विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त का नजारा भी पिछले दिनों देश ने कई बार देखा है।

नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पड़ती है। सूचना का अधिकार कानून लगभग बेअसर बना दिया गया है। सीबीआई, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां विपक्षी नेताओं और सरकार से असहमत सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और बुद्धिजीवियों को परेशान करने का औजार बन गई हैं। इस काम में भी न्यायपालिका सरकार की परोक्ष रूप से सहायक बनी हुई है।

जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नही रह गई है। इसकी अहम वजह है- बड़े कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को पूरी तरह जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है।

सरकार की ओर से मीडिया को दो तरह से साधा जा रहा है- उसके मुंह में विज्ञापन ठूंस कर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिए उसकी गर्दन मरोडने का डर दिखाकर। इस सबके चलते सरकारी और गैर सरकारी मीडिया का भेद लगभग खत्म सा हो गया है। व्यावसायिक वजहों से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत, नैतिक तथा लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है।

पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार, सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किल चुनौतियों से जूझना पडता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना और सैन्य नेतृत्व द्वारा राजनीतिक बयानबाजी करना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है।

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीयकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। सारे अहम फैसले संसद तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते; सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री और उनके मुख्य सिपहसालार यानी गृह मंत्री अमित शाह की चलती है।

आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। संसद को लगभग अप्रासंगिक बना दिया गया है। जनहित से जुड़े मामलों में न्यायपालिका के यदा-कदा आने वाले आदेशों की भी सरकारों की ओर से खुलेआम अवहेलना हो रही है। असहमति की आवाजों को बेरहमी से चुप करा देने या फर्जी देशभक्ति के शोर में डूबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं।

आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है। आपातकाल मे इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडे पर तेजी से अमल किया जा रहा है। इस एजेंडा के तहत अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक औपचारिक तौर पर तो लोकतांत्रिक व्यवस्था चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है। लोगों के नागरिक अधिकार गुपचुप तरीके से कुतरे जा रहे हैं। पिछले सात सालों के दौरान इस सिलसिले में अभूतपूर्व तेजी आई है और कोरोना महामारी ने तो इस सिलसिले में 'कोढ़ में खाज’ का काम किया है। इस महामारी की आड़ में सरकार संसद और संविधान की अनदेखी कर लगातार मनमाने फैसले कर रही हैं और लोगों के बुनियादी अधिकारी छीन रही है। कोरोना संक्रमण के नियंत्रण के नाम पर लॉकडाउन, कोरोना कर्फ्यू और अन्य तरीकों से देश को पुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया गया है। लोगों की निजता और नागरिक आजादी का पूरी तरह अपहरण कर लिया गया है। अधिकांश मामलों में न्यायपालिका या तो मूकदर्शक बनी रहती है या हस्तक्षेप का थोड़ा-बहुत दिखावा कर सरकार के सुर में सुर मिलाने लगती है।

आपातकाल के दौरान केंद्र सहित लगभग सभी राज्यो में कांग्रेस का शासन था। इसके बावजूद उस समय के विपक्ष आज की तरह दीन-हीन नहीं था। विपक्षी दलों का जनता से जुड़ाव था और विपक्षी नेताओं की साख थी। इसलिए आपातकाल के दौरान सरकार ने तमाम विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं को आंतरिक सुरक्षा कानून के तरह जेलों में बंद कर दिया था। हालांकि इस समय भाजपा भी केंद्र के साथ ही देश के आधे से ज्यादा राज्यों में मे अकेले या सहयोगियो के साथ सत्ता पर काबिज है। उसकी इस स्थिति के बरअक्स देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की ताकत का लगातार क्षरण होता जा रहा है। वह कमजोर इच्छा शक्ति और नेतृत्व के संकट की शिकार है। लंबे समय तक सत्ता मे रहने के कारण उसमें संघर्ष के संस्कार कभी पनप ही नहीं पाए, लिहाजा सड़क से तो उसका नाता टूटा हुआ है ही, संसद मे भी वह प्रभावी विपक्ष की भूमिका नही निभा पा रही है। बाकी विपक्षी दलों की हालत भी कांग्रेस से बेहतर नहीं है। विपक्ष की यह दारुण स्थिति भी सरकार के निरंकुश बनने में सहायक बनी हुई है।

हालांकि अब उस तरह से देश पर आपातकाल थोपना बहुत आसान नहीं है। अब आतंरिक संकट बताकर नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के लिए संसद के अलावा दो तिहाई राज्यों की विधानसभाओं में भी दो तिहाई बहुमत होना आवश्यक है। फिर भी हमें भाजपा के वरिष्ठ नेता देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की उस आशंका को नहीं भुलना चाहिए जो उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल बाद आपातकाल की चालीसवीं सालगिरह के मौके पर व्यक्त की थी।

आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकती। बकौल आडवाणी, ''भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया का काफी ज्यादा विस्तार हो चुका है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है’’

आडवाणी का यह बयान यद्यपि छह वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता छह वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस की जा सकती है। आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी बुरे और भयावह दौर से गुजर रहा है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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