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विदर्भ में 'बाघ संकट', कहां जाएं आदिवासी?

यह पता लगाना ज़रूरी है कि क्या इन घटनाओं के लिए बाघ ज़िम्मेदार है, आदमी ज़िम्मेदार है या फिर स्थिति की गंभीरता को न पहचान पाने के कारण इसका कोई विकल्प नहीं ढूंढ पाने के लिए नीति निर्धारक ज़िम्मेदार हैं।
विदर्भ में 'बाघ संकट', कहां जाएं आदिवासी?
चंद्रपुर जिले में बाघ। तस्वीर साभार: महाराष्ट्र राज्य वन-विभाग।

पिछले कुछ सालों में इंसानों पर बाघों के हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। देश की आबादी बढ़ रही है, लेकिन 'प्रोजेक्ट टाइगर' की वजह से बाघों की संख्या भी बढ़ रही है। इसलिए दोनों अपने अस्तित्व को बनाए रखने की कोशिशों में बार-बार आमने-सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र के चंद्रपुर, गढ़चिरौली, भंडारा जिले में 'सीटी-1' बाघ ने पिछले एक साल में करीब 13 लोगों की जान ले ली है। पिछले कुछ महीनों में विदर्भ में इंसानों पर बाघों के घातक हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?

विदर्भ के पहाड़ी जंगलों में रहने वाले आदिवासी आज भी वनों पर निर्भर हैं। जहां एक तरफ ग्रामीणों के जलाऊ लकड़ी के लिए तो दूसरी ओर विकास परियोजनाओं के जंगल की ओर बढ़ने से बाघों ने अपना आवास खो दिया है। नतीजतन, एक नए आवास की तलाश में बाघ जंगल से मानव आवास की ओर बढ़ता है, जबकि मनुष्य विभिन्न आवश्यकताओं के लिए अपने आवास में रहता है। इसलिए यह पता लगाना जरूरी है कि क्या इन घटनाओं के लिए बाघ जिम्मेदार है, आदमी जिम्मेदार है या फिर स्थिति की गंभीरता को न पहचान पाने के कारण इसका कोई विकल्प नहीं ढूंढ पाने के लिए नीति निर्धारक जिम्मेदार हैं।

वन्यजीव विशेषज्ञों के अनुसार इंसानों पर हमला करना बाघ की मानसिकता नहीं है, बल्कि कई मामलों में इसके पीछे असुरक्षा का कारण है। एक गर्भवती बाघिन किसी के भी संपर्क में आने और हमला करने से खतरा महसूस करती है। इसलिए शावकों के जन्म के बाद उन्हें उनकी सुरक्षा की चिंता सता रही होती है। गए दिनों यवतमाल जिले के पांढरकवडा तहसील की एक बाघिन 'अवनि' इस अवस्था से गुजर रही थी। इसके अलावा अन्य कारणों की तरफ गौर करें तो पर्यटन क्षेत्र का अंधाधुंध विस्तार, विकास परियोजनाओं का जाल, जलाऊ लकड़ी और तस्करी के लिए जंगलों का अतिक्रमण तथा असुरक्षा को देखते हुए बाघ मनुष्यों पर हमला कर रहे हैं।

डेमोग्राफ़िकल ट्रांसफॉर्मेशन किस हद तक ज़िम्मेदार?

पिछले एक दशक में भारत की कुल जनसंख्या वृद्धि का 57 प्रतिशत वन क्षेत्रों में रहा है। इसलिए इस 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन' के प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। वनों पर मनुष्यों की आबादी और निर्भरता दोनों बढ़ने का एक प्रमुख कारण है विकास का दबाव। जाहिर है कि जब वनों पर मनुष्यों की आबादी और निर्भरता बढ़ेगी तो वनों के बाघ आदि जानवरों द्वारा हमलों की घटनाएं भी बढ़ेंगी ही, क्योंकि बाघ के आवास में इस अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप के कारण वह जंगल से बाहर निकलने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इनमें से 99 फीसदी घटनाएं इसी जंगल में हुई हैं। इसलिए, यदि विकास को संतुलित अवधारणा से बाहर जाकर लागू कराया गया तो ऐसी घटनाओं को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा।

यह कहना गलत नहीं होगा कि बाघ अनुसंधान प्रणाली केवल बाघों के मार्ग खोजने के लिए काम कर रही है। जहां तक कैमरा ट्रैप और कॉलर आईडी की बात है तो यह शोध रुक गया है। हालांकि, मानव-बाघ संघर्ष पिछले कई वर्षों से सिरदर्द बना हुआ है, इसके बावजूद इसके पीछे के कारणों का पता लगाने के लिए अनुसंधान की कोई पहल होती नहीं दिखती, क्योंकि अब तक कई घटनाएं हो चुकी हैं, इसलिए स्थानीय वन्यजीव शोधकर्ताओं की मदद ली जा सकती थी।

आदिवासियों की खेती हो रही चौपट

पिछले दिनों एक फिल्म रिलीज हुई 'शेरदिल- द पीलीभीत सागा'। यह फिल्म मानव-बाघ संघर्ष पर एक विडंबनापूर्ण टिप्पणी करती है। पिछले दो दशकों में देश में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ी है। यह एक अच्छी बात है। अब इन बाघों का क्या किया जाए? यह हमारे सामने एक गंभीर सवाल है। इसका वैज्ञानिक और यथार्थवादी तरीके से उत्तर खोजने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन, ऐसा होता नहीं दिख रहा है। इसका खामियाजा आदिवासियों को भुगतना पड़ रहा है।

बाघ के कारण विदर्भ के पहाड़ी क्षेत्रों में आदिवासियों की धान की खेती चौपट हो जाती है। वे जोखिम उठाने से डरते हैं, इसलिए उनके लिए मवेशी रखना मुश्किल हो गया है। लेकिन, यह संकट सिर्फ विदर्भ तक सीमित नहीं है। हालांकि, विदर्भ में यह संकट गहराता जा रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक देश भर में हर साल बाघों के हमले में करीब 50 लोगों की मौत हो जाती है। इनमें से आधे तो महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल में चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिले से होते हैं।

इन आदिवासी अंचलों में लोगों की आजीविका बदल गई है। जंगल के पास खेती करना आदिवासियों का एक पीढ़ीगत व्यवसाय रहा है। इस क्षेत्र में बरसात अच्छी होती है तो मानसून में धान और सर्दियों में दलहन उगाने का क्रम रहा है। अब जब बाघ निकल रहे हैं तो कई लोगों ने जंगल के पास खेती करना छोड़ दिया है। हर कोई कहता है कि मानसून के दौरान बाघ कम सक्रिय होते हैं, इसलिए धान की कटाई की जा सकती है, लेकिन सर्दियों के दौरान खेतों को खाली छोड़ना पड़ता है। पिछले बीस वर्षों में मध्य भारत में ऐसे खाली खेतों या परती भूमि की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। वहीं, कुछ जानकार कहते हैं कि यदि परती भूमि को घास के चरागाहों में बदल दिया जाए और वन विभाग आदिवासियों को इसके लिए भुगतान करे तो संघर्षों के कारण होने वाले वारदातों को बहुत कम किया जा सकता है। इसके अलावा, बाघ को घूमने के लिए जगह मिल जाएगी।

बाघों के कारण स्कूल बंद

वनों में रहने वाले आदिवासियों की वार्षिक आय बहुत कम है। दूसरी तरफ, दलहन की खेती बंद हो गई है। इसलिए, वे दालों को खरीदने और खाने का जोखिम नहीं उठा पा रहे। नतीजतन, आदिवासी कुपोषण का सामना करते हैं। वहीं, इससे स्कूली शिक्षा में भी लगातार बाधा पड़ रही है। बाघ दिखाई देने पर आठ से दस दिनों के लिए स्कूल बंद कर दिए जाते हैं। चंद्रपुर जिले में ब्रह्मपुरी के पास शिवनी क्षेत्र के लोगों का कहना है कि ऐसा साल में पांच से छह बार होता है। बाघ ही नहीं तेंदुआ भी आदिवासियों पर कई तरह की पाबंदियां लगा चुका है। तेंदुए का पसंदीदा शिकार होता है कुत्ता। अब डर के मारे गांव में कुत्ते पालने बंद हो रहे हैं। कारण यह है कि कुत्ता पालने पर तेंदुआ उसका शिकार करने के लिए गांव में घुस सकता है। इससे गांव में दूसरी पाबंदिया भी लग जाती हैं जैसे कि सुबह घूमना बंद और शाम को अंधेरा होने से पहले बच्चों को घर के अंदर रखना।

इसी तरह, घरेलू पशुओं का शिकार करना बाघों और तेंदुओं का पसंदीदा शगल है। अगर वे गाय और बैल को मारते हैं तो सरकार आदिवासियों को मुआवजा देती है। लेकिन, ऐसी घटना हुई तो किसान की खेती का चक्र पूरी तरह से ठप हो जाता है। जब जोड़ी में से एक बैल को मार दिया जाता है और दूसरे बैल को खरीदना पड़ता है। कई बार नया जोड़ा पहले की तरह काम नहीं करता है। एक बैल को दूसरे के अनुकूल होने में छह महीने से एक साल तक का समय लग जाता है। इस दौरान किसान को काफी नुकसान झेलना पड़ता है। आमतौर पर इस तरह की समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है।

यदि बाघ किसी स्थान पर दिख गया तो तत्काल उपाय यह है कि लोगों को उनके घरों में बंद कर दिया जाए और उन्हें खेतों में न जाने के लिए कहा जाए। इससे तो आदिवासी का ही जीवन चक्र रुक जाता है। सवाल यह है कि दीर्घकालीन समाधानों पर कब विचार किया जाएगा? बाघ होने के कारण लोगों को हटाने का खेल कब तक चलेगा? उनकी आजीविका का क्या?

वन्यजीवों से कृषि को हुए नुकसान का आकलन करने की प्रक्रिया भी जटिल है। जो मुआवजा मिलता है वह नाकाफी होता है। मुआवजा नीति को बदलने की मांग कई सालों से की जा रही है, लेकिन इसकी बजाय बाघों की संख्या में बढ़ोतरी की बातें की जा रही हैं। पिछले दो दशकों में स्थानीय लोगों द्वारा बाघों के शिकार में भी कमी आई है। आज भी लोग बाघ को देखकर वन विभाग को सूचना देते हैं। वे स्वयं निर्णय नहीं करते हैं। इससे पता चलता है कि आदिवासी बाघ को दुश्मन नहीं मानते।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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