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तिरछी नज़र: देशभक्ति हो या नफ़रत ख़तरे के निशान से ऊपर नहीं बहनी चाहिए

देशभक्ति जब ऊपर से ज्यादा मात्रा में बहाई जाती है तो वह भी ख़तरे के निशान को पार कर लेती है। फिर उसकी भी बाढ़ आ जाती है। नफ़रत तो थोड़ी सी भी हो तो भी बुरी है।‌ उसका तो होना ही ख़तरे के निशान को पार कर जाना है।
satire

दिल्ली में बाढ़ आई। सब बोले। आप बोली, भाजपा बोली, कांग्रेस भी बोली। मतलब सब बोले। आरोप लगाए। प्रत्यारोप लगाए। पर बोले जरूर। टीवी चैनल भी बोले। वीडियो दिखा कर बोले। ऑन द स्पाट रिपोर्टिंग कर बोले। बाढ़ में खड़े हो कर बोले। गड्ढों में जा कर बोले। अखबारों ने भी खूब छापा। शब्द भी छापे और फोटो भी छापे। मतलब जरूर छापा। आईटीओ की, राजघाट की, मजनू के टीले की, कश्मीरी गेट की, मतलब जहां जहां बाढ़ आई थी, सब जगहों की तस्वीरें समाचार पत्रों में छपती रहीं, समाचार बुलेटिनों में दिखाई जाती रहीं और लोग देखते रहे।

दिल्ली में बाढ़ आने का सामान्य सा लॉजिक है। वैसे तो यमुना में पानी होता ही नहीं है, लेकिन जब हो जाता है, जब ज्यादा बढ़ जाता है तो बाढ़ आ जाती है। पानी इसलिए ज्यादा बढ़ता है क्योंकि ऊपर से अधिक छोड़ा जाता है। जब कभी भी हथिनीकुंड बैराज से अधिक पानी छोड़ा जाता है तो दिल्ली में बाढ़ आ जाती है। यमुना में पानी खतरे के निशान से ऊपर बहने लगता है और बाढ़ आ जाती है। और हथिनीकुंड बैराज से अधिक पानी इसलिए छोड़ा जाता है कि ऊपर से ही पानी अधिक आता है। इसके अलावा भी कुछ अन्य कारण हैं जैसे ड्रेनज की व्यवस्था या सफाई न होना।

खैर...यह खतरे का निशान भी ना एक खतरनाक चीज है। जैसे ही कोई चीज इस खतरे के निशान से ऊपर बहने लगती है तो वह चीज खतरनाक हो जाती है। उस चीज से खतरा बढ़ जाता है। अच्छी चीज भी खतरे के निशान से ऊपर बहने लगे तो नुकसान करती है, नुकसान होता है। खतरे का निशान चीज ही ऐसी है, बनाया ही इसलिए जाता है कि चीज उससे ऊपर न बहे। खतरे के निशान से ऊपर बहने से खतरा है।

अब देखो, पानी चीज अच्छी है। जल है तो जीवन है। लेकिन वही जल जब खतरे के निशान से ऊपर बहने लगे तो बाढ़ आ जाती है। जान और माल का नुकसान होता है। लोगों का जीवन‌ दूभर हो जाता है। पूरे शहर में जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। जिन इलाकों में‌ बाढ़ आती है, वहां जो अव्यवस्था होती है, वह तो हफ्तों-महीनों की होती है पर दफ्तर, स्कूल और कालेज तो शहर के उन इलाकों के भी बंद हो जाते हैं जहां बाढ़ न आई हो। मतलब चीज खतरे के निशान से ऊपर बहे तो नुकसान सभी का है। जिनको सीधे सीधे नुकसान है, उनका भी और जिनको सीधे नुकसान नहीं है, उनका भी।

ऐसे ही एक और अच्छी चीज है, देशभक्ति। वैसे तो माना यह जाता है कि देशभक्ति अंदर से आने वाली चीज है पर आजकल ऊपर से भी बहाई जाती है। देशभक्ति जब ऊपर से ज्यादा मात्रा में बहाई जाती है तो वह भी खतरे के निशान को पार कर लेती है। फिर उसकी भी बाढ़ आ जाती है। वह भी उफान मारने लगती है। फिर जिन लोगों में उसकी बाढ़ आई होती है, वे अन्य लोगों को पकड़ कर जय श्री राम, वंदेमातरम् बुलवाने लगते हैं। बोल दिया तो ठीक, नहीं तो जान माल की हानि हो जाती है। मतलब चीज कैसी भी हो, अच्छी हो या बुरी, खतरे के निशान से ऊपर नहीं बहनी चाहिये।

नफरत तो थोड़ी सी भी हो तो भी बुरी है।‌ पर अब तो देश में यह बहुतायत में बहने लगी है। यह बुरी चीज है तो‌ उसका खतरे का निशान भी बहुत ही नीचा होता है। उसका तो होना ही खतरे के निशान को पार कर जाना है। पर वह देश में‌ है और अब अच्छी खासी है। बहुत सारे राज्यों में हैं। समझो पूरे देश में ही है।

अब मणिपुर की बात ही लो। वहां नफरत की बाढ़ आई हुई है। जब नफरत खतरे के निशान को पार कर गई तो बाढ़ आ गई। मणिपुर में यह नफरत की बाढ़ ढाई तीन महीने से आई हुई है। इस बाढ़ में न जाने कितने लोगों की जान गई है। न जाने कितनी महिलाओं की अस्मिता पर हमला हुआ है। और न जाने कितने बच्चे अनाथ बने हैं। लेकिन सब चुप हैं। मीडिया तो चुप है ही, अखबार भी चुप से ही हैं। और वे सब भी चुप हैं जो वैसे तो खूब बोलते हैं पर अब चुप हैं।

और तो और सरकार जी भी चुप रहे। सब बातों पर बोलने वाले, सब घटनाओं पर टिप्पणी करने वाले, बात बात पर ट्वीट करने वाले सरकार जी मणिपुर पर चुप रहे। चुप रहे, पूरे अठहत्तर दिन चुप रहे। न बोले और न ट्वीट किया। ऐसा नहीं है कि सरकार जी पहले कभी चुप नहीं रहे हैं। 2002 में चुप रहे, अडानी पर भी चुप रहे। और अब मणिपुर पर चुप हैं।

पर अब बोले हैं। मणिपुर पर बोले हैं। 79वें दिन बोले हैं। सरकार जी, अब जब मणिपुर में महिलाओं पर हुए अत्याचार की, उन्हें‌ वस्त्र विहीन‌ घुमाने की, उनके सामूहिक बलात्कार की वीडियो सार्वजनिक हो गई हैं, तब बोले हैं। पर अब बोले हैं तो ऐसा बोले हैं कि न ही बोलते तो ठीक रहता। सरकार जी मणिपुर को ध्यान में रखकर नहीं, छत्तीसगढ़ को, राजस्थान को ध्यान में रखकर बोले हैं। वहां चुनाव होने वाले हैं, यह ध्यान में रखकर बोले हैं।

खैर अब जब बोले हैं तो कुछ ढंग का ही बोल‌ देते। लेकिन सरकार जी सरकार जी हैं। उनकी भी मजबूरी है कि जब भी बोलेंगे, जब भी मुख खोलेंगे, चुनावी भाषा ही बोलेंगे। देश में क्या, विदेश में भी चुनावी भाषा ही बोलेंगे। कभी तो कुछ और भी बोल दिया करो, सरकार जी। पर क्या करें, उन्हें तो कुछ और बोलना आता ही नहीं है।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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