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तिरछी नज़र: ...गर पुलिस भी प्राइवेट हो जाये

आज-कल देश में इतनी ईमानदार सरकार है पर उसे अपने खर्च तक चलाने के लिए देश बेचना पड़ रहा है। सच ही है कि ईश्वर की लीला अपरम्पार है। भ्रष्ट सरकारें देश बना रही थीं और महा ईमानदार, देश की रखवाले चौकीदार की सरकार है कि देश को बेचे जा रही है। 
तिरछी नज़र: ...गर पुलिस भी प्राइवेट हो जाये
सिर्फ़ प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। फाइल। कार्टून साभार: नवभारत टाइम्स  

निजीकरण का दौर है और सरकार जी को निजीकरण का दौरा पड़ा हुआ है। सरकारी चीजों को निजी कंपनियों को बेचा जा रहा है। अभी भारतीय जीवन बीमा निगम और अन्य बीमा कंपनियों को, बैंकों को बेचने का काम शुरू होने वाला है। हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों को बेचने का काम तो पहले से ही हो रहा है। जब धीरे-धीरे सब कुछ बिक जायेगा, सरकार जी के पास बेचने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा, तब भी तो सरकार जी को अपने खर्च चलाने के लिए कुछ न कुछ तो बेचना ही पड़ेगा। आखिर सपूत इसी तरह तो अपने घर के खर्च चलाते हैं। 

एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब सरकार जी के पास अपना खर्च चलाने के लिए बेचने लायक कुछ भी नहीं बचेगा। तब तक हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन ही नहीं, बीमा कंपनियां और बैंक भी बिक चुके होंगे। तब तक सारी की सारी सरकारी कंपनियां और खेल के मैदान ही नहीं, इसरो और आण्विक संस्थान भी बिक चुके होंगे। हमारे उपग्रह भी निजी कंपनियां ही उड़ा रही होंगी और एटम बम के विस्फोट भी निजी कंपनियां ही कर रही होंगी। अखबारों में खबरें प्रकाशित होंगी कि कल अंबानी यान आसमान में सफलता पूर्वक उड़ गया और आज पोखरन में अडानी का एटम बम फुस्स हो गया।

जब सब कुछ बिक जायेगा तब भी सरकार जी को सरकार चलाने के लिए पैसे की जरूरत तो पड़ेगी ही। पर वह पैसा आयेगा कहाँ से? हे प्रभु! ये तेरी कैसी माया है। बेईमान, भ्रष्ट लोगों की सरकार तो देश भी चला रही थी और देश में नई नई चीजें भी बना रही थी, नये संसाधन लगा रही थी, नये संस्थान खोल रही थी। दूसरी ओर आज-कल देश में इतनी ईमानदार सरकार है पर उसे अपने खर्च तक चलाने के लिए देश बेचना पड़ रहा है। सच ही है कि ईश्वर की लीला अपरम्पार है। भ्रष्ट सरकारें देश बना रही थीं और महा ईमानदार, देश की रखवाले चौकीदार की सरकार है कि देश को बेचे जा रही है। 

तो जब सब कुछ, जिस जिस भी चीज की बिक्री का जिक्र इस बजट में है, और वह सब कुछ भी जिसकी बिक्री का इस बजट में जिक्र तक नहीं है, बिक जाये, और सरकार जी को फिर भी पैसे की कमी पड़ जाये, तो मेरा मत है कि सरकार जी पुलिस को बेच दें। पुलिस चौकी, थाना, जिला और प्रदेश की पुलिस, सभी को बेच दें। वैसे तो सभी को पता है कि ये सब थाने आदि पहले से ही बिकते रहे हैं पर तब 'ऑफिसियली' बिक सकेंगे। फिर बड़े कारोबारी काले धन से नहीं अपितु सफेद धन से पूरे प्रदेश की पुलिस खरीद सकते हैं और उसके बाद जिले और थाने अपनी फ्रेंचाइजी, यानी कि छोटे कारोबारियों को दे सकते हैं। सरकार जी को भी अपने खर्च चलाने के लिए ही नहीं, अपने दल के और मुख्यालय बनाने के लिए भी सफेद धन मिलेगा। साथ ही कारोबारियों को भी एक और नया व्यवसाय मिलेगा। 

मान लो सरकार जी ने एक दिन पुलिस का भी निजीकरण कर दिया, यानी कि थाने भी ऑफिसियली बिक गये। तब थाने में हर चीज़ के रेट फिक्स हो जायेंगे। वैसे तो रेट अभी भी हैं पर वे रेट न तो फिक्स हैं और न ही ईमानदारी के हैं। वे रेट अभी बेईमानी के हैं। तब इस ईमानदार सरकार के कार्यकाल में वे रेट भी ईमानदारी के हो जायेंगे। उदाहरण के लिए एफआईआर दर्ज कराने के रेट। जैसे चेन झपटने और मोबाइल छीनने की शिकायत दर्ज कराने के रेट दो हजार रुपये, चोरी की शिकायत के लिए पांच हजार रुपये। रेप की शिकायत दर्ज करानी हो तो दस हजार रुपये दीजिए और हत्या का मामला दर्ज कराने के लिए बीस हजार रुपये। मोबाइल या चेन झपटने और चोरी की शिकायत की फीस नुकसान की कीमत का दस या बीस प्रतिशत भी हो सकती है। इसी तरह सभी सेवाओं की फीस निश्चित हो सकती है। जैसे शिकायत दर्ज करने का शुल्क होगा वैसे ही एफआईआर दर्ज न करने का भी शुल्क हो सकता है। जैसे अगर कोई शिकायत दर्ज करने का शुल्क दस हजार है तो शिकायत दर्ज न करने का शुल्क एक लाख रुपये हो सकता है। ऐसा अब भी होता है पर निजीकरण के बाद कानूनन हो जायेगा।

पुलिस के निजीकरण से सरकार को लाभ ही लाभ होगा। जैसे सरकारी उपक्रमों के निजीकरण से सरकार उनके कर्मचारियों को वेतन और पेंशन देने से बचती है उसी प्रकार पुलिस के निजीकरण से भी सरकार पुलिस वालों को तनख्वाह और पेंशन देने से मुक्ति पायेगी। इससे बचने वाले पैसे से सरकार अपना खर्च चला सकेगी और सांसदों, विधायकों और मंत्रियों को वेतन, भत्ते और पेंशन दे सकेगी। 

निजीकरण से, जैसे सबकी कार्यकुशलता बढ़ती है, उसी तरह से पुलिस वालों की कार्यकुशलता भी बढ़ेगी। पुलिस वालों के, थानों के लक्ष्य निर्धारित हो जायेंगे। सभी पुलिस चौकियों और को अपने लिए निर्धारित लक्ष्य पूरे करने होंगे। जिन थानों में लक्ष्य से कम अपराध होंगे और जिनका कलेक्शन कम होगा, उन थानों को घाटे में चल रहा मान कर बंद कर दिया जायेगा। निजी कंपनियां घाटे के थानों को बर्दाश्त क्यों करेंगी। 

पुलिस के निजीकरण के बाद जो पुलिस को अधिक फीस देगा, पुलिस उसी का काम करेगी। यदि अपराधी भी फीस देगा तो उसका काम भी अधिक मुस्तैदी से किया जायेगा। मतलब पुलिस अधिक कार्यकुशल हो जायेगी। अगर सरकार भी किसानों को रास्ते में ही रोकना चाहेगी तो उसे भी पुलिस को भुगतान करना ही पड़ेगा। और अगर सरकार ने निर्धारित भुगतान नहीं किया या फिर किसानों ने अधिक भुगतान कर दिया तो पुलिस किसानों को सम्मान सहित संसद तक छोड़ कर आयेगी। 

खैर पुलिस के निजीकरण से मिले पैसे से सरकार जी का काम एक या दो वर्ष तो चल जायेगा पर उसके बाद। उसके बाद सरकार जी को किसी और चीज को बेचना ही पड़ेगा। सरकार जी तब न्यायालय या सेना को बेच सकते हैं। सेना को बेचने के बाद यदि चीन आक्रमण करेगा तो निजी हो चुकी भारतीय सेना के कोर्पोरेट मालिक लड़ने से मना कर सकते हैं। कह सकते हैं कि चीन हमें अधिक पैसा दे रहा है, हम तो चीन की ओर से लड़ेंगे। आखिर कारोबारियों को कारोबार ही तो करना है। 

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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