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‘सरकार जी’ का संदेश- रोको, टोको और समझाओ

देश की जनता को समझाने का सारा काम अभी तक प्रधानमंत्री जी ने स्वयं ही सम्हाला हुआ था। पर लगता है अब प्रधानमंत्री जी के पास नया काम, दुश्मन से उसका नाम लिए बिना लड़ने का, आ गया है। अतः समझाने का काम उन्होंने "लोकल" लेवल पर छोड़ दिया है।
Satire
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : Hindustantimes

इस सप्ताह भी प्रधानमंत्री जी ने देश को संबोधित किया। वैसे प्रधानमंत्री जी देश को कई बार संबोधित करते हैं। रेडियो पर 'मन की बात' तो साठ से अधिक बार कर चुके हैं। इसलिए उसका कोई खास महत्व रह नहीं गया है। पहले तो रेडियो पर आने वाली 'मन की बात' समाचार पत्रों में हेडलाइन बनाती भी थी लेकिन अब सिर्फ एक कॉलम की खबर बन कर रह जाती है। वह भी कभी कभी तो बीच के पृष्ठों पर।

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तो अब प्रधानमंत्री जी ने सोचा है कि टीवी पर देश को संबोधित किया जाये। प्रधानमंत्री जी टीवी पर संबोधित सिर्फ खास मौकों पर करते हैं इसलिए लोग इंतजार भी करते हैं और हेडलाइन भी बनती है। भले ही कुछ भी बोला हो, या कुछ नहीं भी बोला हो, टीवी चौबीसों घंटे वही दिखाता रहता है। अखबारों में भी अगले दिन वही प्रमुख समाचार होता है। वैसे भी प्रधानमंत्री जी टीवी पर प्रमुख घोषणाएं ही करते रहे हैं। शुरुआती रुझान बताते हैं कि जब भी प्रधानमंत्री जी द्वारा लोगों को टीवी पर संबोधित करने की पूर्व घोषणा होती है, लोगों की रूह कांप उठती है, न जाने क्या घोषणा कर दी जाये।

टीवी पर सबसे पहली बार प्रधानमंत्री जी द्वारा आठ नवंबर 2016 की रात आठ बजे जनता को संबोधित कर नोटबंदी की घोषणा की गई, रात बारह बजे से नोट बंद। उस घोषणा ने लोगों का दिन का चैन और रात की नींद उड़ा दी। अगला ऐसा टीवी संबोधन जिससे लोग बेचैन हो उठे, भी रात को आठ बजे ही किया गया। 24 मार्च, इसी वर्ष फिर रात को आठ बजे ही लॉकडाउन यानी कि तालाबंदी की घोषणा की गई। रात बारह बजे से, कोरोना के वायरस पर विजय पाने के लिए इक्कीस दिन की संपूर्ण तालाबंदी। लोग तो घबरा ही गए, वायरस भी घबरा गया होगा।

अभी इसी सप्ताह प्रधानमंत्री जी ने फिर से लोगों को टेलीविजन पर संबोधित किया। यह कोरोना काल में किया गया छठा संबोधन था। लेकिन पूरे कोरोना काल में रात आठ बजे चौबीस मार्च को किये गए एकमात्र संबोधन के अलावा कोई भी संबोधन ऐसा नहीं निकला जिसमें कहने, सुनने या करने लायक कुछ हो, सिवाय थाली-ताली, दिया-बाती की नौटंकी के। लोगबाग अब समझ चुके हैं कि ऐसा संबोधन जो उनकी जिन्दगी दुश्वार कर सके, रात को आठ बजे ही किया जाता है। बाकी सारे संबोधन जो किसी और समय किये जाते हैं, बेकार हैं।

इस मंगलवार, तीस जून को दोपहर बाद, चार बजे किया गया टीवी संबोधन भी बेकार की बातों से भरा हुआ था। वही आत्मनिर्भरता, वही वोकल फॉर लोकल जैसी पुरानी बातों से भरा हुआ था। ये बातें प्रधानमंत्री जी पिछली सभी मीटिंग्स में बोल रहे हैं। हम भले ही सुन सुन कर थक चुके हों पर प्रधानमंत्री जी बोल बोल कर नहीं थके हैं। हाँ, एक बात अवश्य ही नई थी। "रोको, टोको और समझाओ"।

वैसे तो प्रधानमंत्री जी ने गरीबों के लिए बनाई गई प्रधानमंत्री अन्न वितरण योजना को भी तीस जून से छठ पूजा तक के लिए बढा़ दिया। उन्होंने इस बीच में पड़ने वाले सभी त्योहारों का नाम लेकर जिक्र किया। छठ मईया की पूजा का तो शायद छह बार नाम लिया गया। शायद छठ मईया का छह बार नाम लेना कोई जादू टोटका हो, जिससे बिहार चुनाव जीता जा सके। साथ ही उन्होंने यह भी माना कि देश में अस्सी करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें इस मुफ्त के अनाज की आवश्यकता है। सरकार सिर्फ पाँच किलो अनाज और एक किलोग्राम चना देगी। नून-तेल और आग के इंतजाम के लिए जनता को आत्मनिर्भर बनना होगा। 

देश की जनता को समझाने का सारा काम अभी तक प्रधानमंत्री जी ने स्वयं ही सम्हाला हुआ था। नोटबंदी के समय भी जनता को समझाया था कि इसके अनेकों लाभ होंगे। लॉकडाउन व अन्य टोटकों से कोरोना पर विजय प्राप्त करने की बात भी उन्होंने ही जनता को समझाई थी। इससे पहले भी सर्जिकल स्ट्राइक के लाभ भी जनता को प्रधानमंत्री जी ने ही समझाये थे। पर लगता है अब प्रधानमंत्री जी के पास नया काम, दुश्मन से उसका नाम लिए बिना लड़ने का, आ गया है। अतः समझाने का काम उन्होंने "लोकल" लेवल पर छोड़ दिया है।

इस सारे संबोधन में सरकार जी ने जो सबसे इंटरैस्टिंग बात कही वह यही थी, "रोको, टोको और समझाओ"। और अपनी व्यस्तता के कारण इसकी जिम्मेदारी उन्होंने सौंपी लोकल अफसरों को। मतलब प्रधानमंत्री जी स्वयं बने "लोकल के लिए वोकल"। वैसे तो लोकली रोकने, लोकली टोकने और लोकली समझाने की सारी जिम्मेदारी हमेशा से ही लोकल पुलिस की ही होती है। लोकल पुलिस उस जिम्मेदारी को, प्रधानमंत्री जी द्वारा सौंपे जाने से बहुत पहले से ही बहुत ही जिम्मेदारी से निभा रही है। शायद तब से ही जब से पुलिस बनी है। 

उसी जिम्मेदारी को निभाते हुए ही तूतिकोरिन पुलिस ने पी जयराज और उसके बेटे जे बेनिक्स को रोकते टोकते हुए अल्टीमेटली समझा दिया। वहां हुआ यह कि पुलिस अनलॉक 1.0 के दौरान बाजार में रोकने और टोकने गई। जयराज की दुकान खुली थी। पुलिस के रोकने, टोकने के ढंग पर शायद जयराज ने भी कुछ रोका टोका होगा। तो पुलिस जयराज को समझाने थाने ले गई। पीछे पीछे जयराज का पुत्र बेनिक्स भी मामला समझने थाने पहुंचा। पुलिस उसे भी समझाने में लग गई। पुलिस ने जयराज और उसके पुत्र बेनिक्स को इतना अधिक समझा दिया है कि अब उनको कोई भी कुछ भी नहीं समझा सकता है। 

अभी हाल में ही, कोरोना काल में ही, लॉकडाउन के दौरान अपने घर वापस लौट रहे मजदूरों और अन्य को, रोका, टोका और फिर अपने ढंग से समझाया। कहीं दौड़ा दौड़ा कर लाठियों से पीट कर समझाया तो कहीं मात्र उठक बैठक लगवा कर समझा दिया। कहीं मुर्गा बना कर समझा दिया तो कहीं मेंढक की तरह कुदवा कर समझाया। पर पुलिस ने सबको समझाया जरूर, भले ही अपनी समझ से समझाया।

पुलिस द्वारा समझाये जाने के कई तरीके हैं। किसी को ऑन द स्पॉट समझा दिया जाता है तो किसी को थाने ले जाकर समझाते हैं। किसी को एंकाउंटर कर समझाते हैं तो किसी को कुछ ले दे कर ही समझा दिया जाता है। पर पुलिस समझाती हर एक को है। कई बार तो शिकायत दर्ज कराने आये व्यक्ति को ही पुलिस समझाने में लग जाती है, पीड़ित को ही अपराधी घोषित कर उसके विरुद्ध ही एफआईआर दर्ज कर दी जाती है। पहले समझाना कुछ हद तक संप्रदाय निरपेक्ष होता था पर अब समझने समझाने में संप्रदाय की भूमिका बढ़ती जा रही है। पुलिस समझाने की इस प्रक्रिया में एक संप्रदाय विशेष को समझाने का ध्यान विशेष रूप से रखती है।

प्रधानमंत्री जी अपने गृहमंत्री जी से कहें कि यदि अनलॉक 2.0 में  यह रोकने, टोकने और समझाने के काम को आम पुलिस की बजाय ट्रैफिक पुलिस करे तो हिंसा जरा कम होगी। ट्रैफिक पुलिस को ले दे कर समझाने का काम करने में अधिक महारत हासिल है। ट्रैफिक पुलिस के कर्मचारी आपको हर चौराहे पर यह रोकने, टोकने और समझाने का काम करते हुए दिख जायेंगे पर मजाल है कि जरा सी भी हिंसा होती हो। तब सारा समझने समझाने का कार्य अहिंसक ढंग से, क्षत्रिय धर्म का पालन करने की बजाय वैश्य धर्म का पालन करते हुए ही, गांधीवादी तरीक़े से हो जायेगा।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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