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कश्मीर की निडर आवाज़ संपत प्रकाश क्रुंडु को श्रद्धांजलि

कश्मीर को एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष नेता की बहुत याद आएगी, जो सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने के लगभग 26 साल बाद फिर से सुर्ख़ियों में आए और सोशल मीडिया के इस्तेमाल के ज़रिए जनता को जागरूक किया।
Sampat Prakash Krundu
5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक काले अध्याय की शुरुआत हुई थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत राज्य की विशेष स्थिति को निरस्त कर दिया गया था। राज्य का दर्जा घटाकर इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया था।

राजनीतिक दलों के नेताओं को जेल में डाल दिया गया या उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। इंटरनेट पर नाकेबंदी कर दी गई और सूचना लगभग पूरी तरह से बंद कर दी गई। ऐसा लग रहा था जैसे कश्मीरियों ने अपनी गरिमा और अस्तित्व की भावना के साथ-साथ अपनी आवाज़ भी खो दी है।

लेकिन इसके बाद के महीनों में, एक आवाज़ इस घने अंधेरे को चीरती हुई सामने आई। सोशल मीडिया पर घूमती यह निडर आवाज़ संपत प्रकाश क्रुंडू नाम के एक बुज़ुर्ग, सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की थी।

दरअसल, क्रांतिकारी नेता जीवन भर बहुत मुखर रहे, लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद उनका काम वरिष्ठ नागरिकों और सेवानिवृत्त लोगों की मदद करने तक ही सीमित रह गया था।

वह बुज़ुर्ग व्यक्ति 26 साल के बड़े अंतराल के बाद, 2018 के आसपास फिर से सुर्खियों में आ गए, जब उन्होने अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35-ए को रद्द करने के भारत सरकार के निर्णय का विरोध किया और प्रदर्शन में शामिल हुए। तब से, वे कश्मीर के आधुनिक इतिहास, ट्रेड यूनियन आंदोलन और ऐसी ही बहुत कुछ बातों के बारे में बोलते रहे हैं।

संपत प्रकाश को 1959-97 के बीच अपने सेवा करियर के दौरान कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें 26 साल से अधिक समय तक सरकारी सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था और कई बार जेल और हिरासत में रखा गया।

1 जुलाई, 2023 को श्रीनगर में संपत प्रकाश का निधन हो गया, जहां वे अपने बेटे लेनिन कुमार के साथ रह रहे थे। वे 84 वर्ष के थे।

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, वे हमेशा पत्रकारों और सोशल मीडिया के प्रभावशाली लोगों से घिरे रहते थे क्योंकि उनके पास अतीत की कहानियां बताने की एक अनूठी शैली थी, खासकर उस समय की जब कश्मीरी हिंदू और मुस्लिम कश्मीर में शांति से एक साथ रहते थे।

पहली पारी:

संपत प्रकाश का जन्म 19 जून, 1939 को श्रीनगर के क्रालयार, रैनावाड़ी इलाके में एक कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता नीलकांत क्रुंडु एक शिक्षक थे, जो मिशन हाई स्कूल, रैनावारी, श्रीनगर और फिर दयानंद एंग्लो-वैदिक (डीएवी) स्कूल, मगरमल बाग, श्रीनगर में पढ़ाते थे।

संपत प्रकाश ने, अपने पिता का अनुसरण करते हुए अपनी शुरुआती शिक्षा मिशन हाई स्कूल, रैनावारी में पूरी की और फिर मगरमल बाग में डीएवी स्कूल में चले गए। अपनी मैट्रिकुलेशन के बाद, वे श्री प्रताप कॉलेज, श्रीनगर (एस.पी. कॉलेज) में दाखिल हो गए थे, जहां उन्होंने 1959 में स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी।

एस.पी. कॉलेज में, संपत प्रोफेसर हृदयनाथ दुर्रानी के संपर्क में आये, जिन्होंने उन्हें मार्क्सवाद से परिचित कराया। दुर्रानी कट्टर वामपंथी थे और रैनावारी में संपत के पड़ोसी भी थे।

अपने कॉलेज के दिनों में, संपत ने छात्र राजनीति में सक्रिय भाग लेना शुरू कर दिया और वामपंथी विचारधारा से गहराई से प्रभावित हुए। स्नातक की पढ़ाई के तुरंत बाद वे राम पैरारा सराफ और किशन देव सेठी जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के संपर्क में आए।

संपत 1960 में सरकारी सेवा में शामिल हुए और उन्हें जम्मू में कस्टोडियन इवैक्यू प्रॉपर्टीज डिपार्टमेंट (सीईपीडी) के कार्यालय में एक निरीक्षक नियुक्त किया गया। यह एक नव निर्मित सरकारी संस्थान था जो 1947 में जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तान गए लोगों की संपत्तियों की देखभाल करता था।

संपत को विभाग की तरफ से जम्मू में वज़ारत रोड पर एक आवासीय क्वार्टर उपलब्ध कराया गया था। 1962 में संपत ने दूरा मोटा क्रुंडु से शादी की। वे सरकारी शिक्षिका थीं और उनकी सक्रियता और राजनीति के कारण तथा दशकों के कठिन काम के दौरान उनका समर्थन तंत्र बन गया था।

चूंकि संपत रूसी क्रांतिकारी नेता व्लादिमीर लेनिन की विचारधारा को बहुत सम्मान देते थे, इसलिए उन्होंने अपने एक बेटे का नाम लेनिन कुमार रखा। लेनिन जम्मू-कश्मीर सरकार में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर पद पर काम करते हैं।

कम वेतन पाने वाले कर्मचारियों की फेडरेशन

जम्मू में सीईपीडी में नियुक्त होने के बाद, संपत प्रकाश अक्सर राम पियारा सराफ और किशन देव सेठी से मिलने जाते थे, जो दोनों जम्मू में रहते थे।

सराफ और सेठी दोनों कट्टर वामपंथी थे जो 1951-57 तक जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के सदस्य थे। ये दोनों उस दौर के सबसे बड़े कश्मीरी नेता और नेशनल कॉन्फ्रेंस के संरक्षक शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के बेहद करीबी थे।

सराफ, जिनका जन्म 1924 में हुआ और मृत्यु 2009 में हुई थी, 1957 के बाद कई वर्षों तक जम्मू-कश्मीर विधान सभा के सदस्य भी रहे। 1928 में पैदा हुए सेठी का कुछ साल पहले 28 जनवरी 2021 को जम्मू में निधन हो गया था।

एक कश्मीरी हिंदू (पंडित) होने के नाते, कश्मीर पर उनके रुख और 1990 के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों के प्रवास के कारण हुई घटनाओं के लिए संपत प्रकाश की उनके समुदाय के कई लोगों ने आलोचना की थी।

सराफ और सेठी के सुझाव पर, संपत प्रकाश ने, एक अन्य साथी, मजीद खान के साथ, 1960 के दशक के मध्य में जम्मू-कश्मीर कम वेतन वाले कर्मचारी महासंघ की स्थापना की। इस समूह का नेतृत्व माजिद खान कर रहे थे और संपत इसके महासचिव थे।

यह फेडरेशन जम्मू-कश्मीर का पहला कर्मचारी संघ था। बाद में यह संगठन संपत प्रकाश और मजीद खान समूहों में विभाजित हो गया था। दोनों समूहों ने सरकारी कर्मचारियों के कम वेतन में बदलाव लाने के लिए कई वर्षों तक अथक प्रयास किया।

जेल भेजा गया और नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया

संपत प्रकाश को एक्टिविज़्म और राजनीति के कारण 1959-97 के बीच सरकारी सेवा के दौरान कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

उन्हें पहली बार 1967 में राज्य स्तर पर सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल में शामिल होने के लिए तत्कालीन जम्मू और कश्मीर निवारक निरोध अधिनियम, 1964 के तहत गिरफ्तार किया गया था। यह हड़ताल 17 दिनों तक चली थी।

25 अक्टूबर, 1967 को जम्मू प्रांत के सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों ने एक सामूहिक बैठक की, जिसमें मांग की गई कि उन्हें केंद्र सरकार की तर्ज़ पर महंगाई भत्ता दिया जाए।

उन्होंने संकल्प लिया कि यदि सरकार ने उनकी मांग नहीं मानी, तो कर्मचारी और शिक्षक 5 नवंबर, 1967 को 'धरना' (हड़ताल) पर चले जाएंगे। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजस्व मंत्री ने केंद्र सरकार कर्मचारी की लागू दरों से आधी दर पर महंगाई भत्ता देने का वादा किया।

18 नवंबर 1967 को कर्मचारियों ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर एक दिन की भूख हड़ताल की। इसके बाद 27 नवंबर, 1967 को एक बड़ा विरोध प्रदर्शन हुआ, जिसमें यह घोषणा की गई कि यदि मांगें पूरी नहीं हुईं, तो कर्मचारी 2 दिसंबर, 1967 से पेन-डाउन हड़ताल पर चले जायेंगे। सरकार उनकी मांग को पूरा करने में विफल रही और कर्मचारी 4-10 दिसंबर, 1967 तक हड़ताल पर चले गये।

शुरुआत में, यह एक पेन-डाउन हड़ताल थी जो बाद में एक सामान्य हड़ताल में बदल गई थी। 5-10 दिसंबर, 1967 तक जम्मू-कश्मीर में कम वेतन पाने वाले सरकारी कर्मचारियों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए, जिसका नेतृत्व संपत प्रकाश ने किया था।

11 दिसंबर, 1967 को जम्मू-कश्मीर में विभिन्न सरकारी संगठनों के कर्मचारी भी सरकारी कर्मचारियों के प्रति सहानुभूति में आम हड़ताल पर चले गये। बढ़ती आवाज़ को दबाने के लिए संपत प्रकाश को सरकारी सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।

बर्खास्तगी भी उनके कदमों को रोक नहीं पाई, और 12 दिसंबर, 1967 को उन्होंने कई विशाल रैलियों को संबोधित किया। सरकार इस क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनवादी की आवाज़ को दबा नहीं सकी और अंततः संपत को गिरफ्तार कर लिया गया। जम्मू में जिला मजिस्ट्रेट ने 16 मार्च, 1968 को अधिनियम 1964 की धारा 3 के तहत उनकी हिरासत का आदेश जारी किया और उसके बाद 18 मार्च, 1968 को संपत प्रकाश को पुलिस हिरासत में ले लिया गया था।

अपने भाषणों में, संपत हमेशा कहते थे कि कश्मीर में एक भी कश्मीरी हिंदू (पंडित) नहीं मारा गया, क्योंकि मुसलमान उनकी ढाल बन गए थे और हफ्तों तक उन्हें अपने घरों में रखा, जब उसे उत्तर-पश्चिम सीमांत के रूप में जाना जाता था लेकिन सितंबर 1947 के आसपास कश्मीर घाटी में कबाइलियों के प्रवेश करने के बाद इसे पीओके कहा जाने लगा।

वे करीब डेढ़ साल तक हिरासत में रहे। वे दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे। उन्हें 26 साल से अधिक समय तक सेवा से बर्खास्त कर दिया गया और इसके बाद कई बार जेल और हिरासत में रखा गया।

1990 के दशक के मध्य में संपत प्रकाश को बहाल करने के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस को व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप करना पड़ा जिसके बाद 1997 में संपत सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो गए थे।

एक मुखर और उत्साही नेता

संपत, एक अलग शैली में पवित्र कोशुर (कश्मीरी) भाषा बोलते थे। वे 1947-90 के बाद की ऐतिहासिक घटनाओं को, छोटे वीडियो क्लिप के ज़रिए समझाते थे जो पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया पर कश्मीरियों के बीच वायरल हो गए थे।

एक कश्मीरी हिंदू (पंडित) होने के नाते, कश्मीर पर उनके रुख और 1990 के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों के प्रवास के कारण हुई घटनाओं से नाराज़ होकर उनके समुदाय के कई लोगों ने उनकी आलोचना की थी।

उदाहरण के लिए, संपत ने खुले तौर पर द कश्मीर फाइल्स में कथा और तथ्यों के खिलाफ बात की और कहा कि कश्मीरी पंडितों को 1990 में साथी मुसलमानों ने कश्मीर से बाहर नहीं निकाला था।

वह ब्रिटिश भारत के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर रियासत के विभाजन के तुरंत बाद अगस्त-सितंबर, 1947 के बीच हुई घटनाओं पर प्रकाश डालते रहे, जिसमें भारतीय सांप्रदायिक झड़पों में पंजाब के पाकिस्तानी हिस्से और जम्मू सहित जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों में हिंदू, मुस्लिम और सिखों सहित हज़ारों लोग मारे गए थे।

अपने भाषणों में, संपत हमेशा कहते थे कि कश्मीर में एक भी कश्मीरी हिंदू (पंडित) नहीं मारा गया, क्योंकि मुसलमानों ने उन्हें बचाया और उन्हें हफ्तों तक अपने घरों में रखा, जब उस समय इसे उत्तर-पश्चिम सीमांत के रूप में जाना जाता था और साथ ही जिसे अब पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के नाम से जाना जाता है, तब जब कबाइली सितंबर 1947 के आसपास कश्मीर घाटी में प्रवेश कर गए थे।

सोशल मीडिया, पत्रकारों और कुछ स्थानीय समाचार चैनलों को दे गए अपने साक्षात्कार के बाद, संपत प्रकाश पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर में एक घरेलू आवाज़ बन गए थे। वे कश्मीरी लोगों से जुड़ सकते थे, उनके लिए बोल सकते थे और उनके दुखों तथा पिछले कई दशकों से उनके द्वारा झेले जा रहे राजनीतिक कष्टों को उजागर कर सकते थे।

संपत, जो अब हमारे बीच नहीं हैं, एक महान कथाकार थे। वे सरकारों और गैर-राज्य अभिनेताओं द्वारा कश्मीरियों पर ऐतिहासिक रूप से किए गए अत्याचारों की कहानियां सुनाते थे।

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, वे हमेशा पत्रकारों और सोशल मीडिया से घिरे रहते थे क्योंकि उनके पास अतीत की कहानियां बताने की एक अनूठी शैली थी, खासकर उस समय की जब कश्मीरी हिंदू और मुस्लिम कश्मीर में शांति से एक साथ रहते थे।

वह सहाबा गड्डा, अमा कोस्चुल, खोफ्तान फकीर और कुंत्रेह पंडाह जैसे गुंडा (गैंगस्टर) तत्वों और समूहों का नाम लेते और उन्हें शर्मसार करते थे, जिन्हें 1950-60 के दशक के दौरान राज्य द्वारा संरक्षण दिया गया था और जिन्होंने स्थानीय कश्मीरियों पर आतंक का राज कायम किया था।

निष्कर्ष

ट्रेड यूनियनों और सामाजिक आंदोलनों से जुड़े लोग कुछ दशकों तक सक्रियता से जुड़े रहते हैं, लेकिन एक समय ऐसा आता है जब वे छुट्टी ले लेते हैं। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी पारी पूरी करने के बाद दोबारा सुर्खियों में आते हैं।

संपत प्रकाश एक ऐसे अनोखे व्यक्ति हैं, जो 1960 के दशक से 1980 के दशक के अंत तक अपने ट्रेड यूनियनवाद के लिए जाने जाते थे, लेकिन 1990 के बाद उन्हें तब भुला दिया गया जब नई कर्मचारी यूनियन, जैसे कि जम्मू-कश्मीर टीचर्स फोरम, जम्मू-कश्मीर कर्मचारी संयुक्त कार्रवाई समिति, अस्त्तिव मे आए।

संपत ने अपनी सक्रियता की दूसरी पारी लगभग 2011-12 में शुरू की जब उन्होंने सैयद नसरुल्लाह, जो एक महान ट्रेड यूनियनवादी भी थे, के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर  पेंशनर्स वेलफेयर फोरम और सीनियर सिटीजन सिविल सोसाइटी की स्थापना की और 2008 तक जम्मू-कश्मीर न्यायिक कर्मचारी यूनियन का नेतृत्व किया।

संपत और नसरुल्लाह सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को संगठित करते रहे थे। इन मुलाकातों के दौरान मुझे कई बार संपत जी से बातचीत करने का मौका मिला।

संपत प्रकाश का दिल हमेशा कश्मीर में रहता था और वे कश्मीरी मुसलमानों के सबसे बड़े पैरोकार थे। उनका परिवार जम्मू में रहता था, लेकिन वे ज़्यादातर समय कश्मीर में ही रहते थे। वृद्धावस्था में भी वे कश्मीर में भ्रमण करते रहे।

उन्होंने कुछ साल पहले अपने बेटे का तबादला श्रीनगर करवा लिया था और तब से वे साथ रह रहे थे।

संपत प्रकाश ने कोई धन-संपत्ति अर्जित नहीं की। उनके पास श्रीनगर या जम्मू में अपना घर भी नहीं था।

उन्होंने अपने पीछे जो एकमात्र चीज छोड़ी है, वह उनकी विरासत है, जिसे कश्मीर में सभी लोग संजोकर रखते हैं। ये क्रांतिकारी नेता सदैव हमारे दिलों में रहेंगे।

Courtesy: TL

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

A tribute to Sampat Prakash Krundu: The fearless voice of Kashmir

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