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दो-बच्चों की नीति राजनीतिक रूप से प्रेरित, असली मक़सद मतदाताओं का ध्रुवीकरण

दरअसल दक्षिणपंथ की ओर से इस नीति की वकालत करने वालों का निहित संदेश यही है कि हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमानों के ज़्यादा बच्चे हैं और सरकार ने दो से ज़्यादा बच्चों वाले परिवारों को दंडित करके साहस दिखाया है।
दो-बच्चों की नीति राजनीतिक रूप से प्रेरित, असली मक़सद मतदाताओं का ध्रुवीकरण
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

हाल ही में ऐसी ख़बरें सामने आयी हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार दो से ज़्यादा बच्चों वाले परिवारों को बहुत सारी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने से रोकने वाले क़ानून के मसौदे पर काम कर रही है।

हालांकि,इस प्रस्तावित क़ानून में गहरे तौर पर कई समस्यायें है क्योंकि यह क़दम न सिर्फ़ संवैधानिक और क़ानूनी रूप से संदिग्ध है, बल्कि यह समाज में पूर्वाग्रह और कट्टरता को और भी गहरा करेगा।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क़रीबी लोगों ने ख़ुलासा किया है कि उनका इरादा 2022 की पहली तिमाही में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले "जनसंख्या नियंत्रण" के विषय पर गरमागरम बहस छेड़ना है।

राज्य भर के लोगों के बीच इस विवादास्पद योजना पर बहस और चर्चा से राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ऐसे समय में तेज़ी से बढ़ेगा, जब राजनीतिक बयानबाजी अपने शबाब पर होगी।

दरअसल,आदित्यनाथ का इस विचार के साथ खिलवाड़ करने का मक़सद लोगों के बीच विभाजन पैदा करने वाले इस मुद्दे पर भावनाओं को भड़काना है, जो इस बात का संकेत है कि कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से पैदा हुए संकट से निपटने में पूरी तरह से नाकाम होने की वजह से उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता और उनकी सरकार की लोकप्रियता, दोनों में भारी गिरावट आयी है।

आगामी चुनावों में योगी की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए सुशासन संभवत: कोई विश्वसनीय मुद्दा नहीं बनने जा रहा है, वह शायद एक सख़्त और अल्पसंख्यक को परेशान करने वाले हिंदुत्व नेता की अपनी छवि के आसपास पार्टी के अभियान को आकार देने की कोशिश करें।

दो-बच्चों का मानदंड उस उद्देश्य को पूरा नहीं करता है जिससे कि जनसंख्या को नियंत्रित करने की नीति को बल मिले, राष्ट्रीय आर्थिक संकट को हल करने में भी इससे मदद नहीं मिलती, या परिवारों को दो या दो से कम बच्चे तक सीमित करने की लिए प्रेरित करने में भी इस नीति की नगण्य भूमिका है।

लेकिन, जनसंख्या नियंत्रण को राष्टभक्ति के साथ जोड़ा जाता रहा है और इसकी सबसे बड़ी मिसाल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का 2019 के स्वतंत्रता दिवस का वह भाषण है,जिसमें उन्होंने मज़बूती के साथ कहा था कि परिवार को छोटा रखना एक राष्ट्रवादी कार्य है।

सरकार की कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच बानने के लिए एक ज़रूरी शर्त के रूप में दो-बच्चे वाला यह मानदंड, वही सिद्धांत है जो हमेशा से उन राजनीतिक ताकतों का सिद्धांत रहा है। यह हिंदुत्व के नारे के ज़रिये लोगों का समर्थन हासिल करनी की कोशिश करती रही है, यानी मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के जुनून को बढ़ाकर एक विशेष तबके से समर्थन हासिल करने की कोशिश।

इसका निहित संदेश तो यही है कि हिंदुओं से मुसलमानों के बच्चों की संख्या ज़्यादा है और सरकार ने दो से ज़्यादा बच्चों वाले परिवारों को दंडित करके साहस दिखाया है।

संघ परिवार लंबे समय से यह कहता रहा है कि मुसलमानों की एक 'साज़िश' है कि वे हिंदुओं को अपने ही देश में धार्मिक अल्पसंख्यक बना दे। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि इस्लाम परिवार नियोजन का विरोध करता है और इसलिए, आधुनिक गर्भनिरोधक उपायों के ख़िलाफ़ है।

जनसंख्या नियमन अधिनियम लंबे समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा सूची में है।

पूरे मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने और बुरी छवि गढ़ने के लिए कथित तौर पर 'तेज़ी से बढ़ते' परिवार, तथाकथित लव जिहाद, गोमांस की खपत (भारत के अधिकांश हिस्सों में भैंस), निचली जाति के हिंदुओं का इस्लाम में जबरन या धोखे से धर्मांतरण, देश के भीतर आतंक को भड़काने और निश्चित रूप से किसी और देश के प्रति वफ़ादारी जैसे आरोप हिंदू दक्षिणपंथ के राजनीतिक सिद्धांत का लंबे समय से हथियार रहे हैं।

सरकारी सेवाओं और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए दो बच्चों के इस मानदंड के अनिवार्यता के सिद्धांत को छोड़कर इस सूची की अन्य बातों का इस्तेमाल बिना किसी सरकारी मंज़ूरी के लंबे समय से ख़ास तौर पर 2014 से भाजपा शासित राज्यों में किया गया है।

अन्य सभी आरोपों की तरह अनर्गल मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि के धागे को तथ्यों और जानकारियो को तोड़-मरोड़कर कुशल तरीक़े से बयानो के ज़रिये पिरोया गया है।

विद्वानों ने लंबे समय से चलाये जा रहे संघ परिवार के इस भ्रामक अभियान की जांच की है और मज़बूती के साथ तर्क दिया है कि मुसलमानों को एक अखंड समूह के रूप में नहीं देखा जा सकता, उनकी विकास दर कई हिंदू और आदिवासी समुदायों के बराबर है। 

इसके अलावा, मुसलमानों के बीच ऐसे समुदाय भी हैं, जिनमें तुलनात्मक रूप से बेहतर शिक्षा है और जो अपने कार्यकलापों और पसंदगी में कहीं ज़्यादा वैज्ञानिक हैं,उनमें प्रजनन की दर हिंदुओं के उन समुदायों से मेल खाती है,जो इसी तरह से शिक्षित और वैज्ञानिक नज़रिया रखते हैं।

असम में दो बच्चों की नीति

ऐसा नहीं कि आदित्यनाथ भाजपा के ऐसे एकलौते मुख्यमंत्री हों,जिन्होंने इस संभावित आग भड़काने वाले रास्ते पर क़दम रख दिया हो; असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने कई दिन पहले राज्य के मुस्लिम निवासियों से ग़रीबी के दुष्चक्र और पुरानी सामाजिक समस्याओं से निजात पाने के लिए एक 'सभ्य परिवार नियोजन नीति' अपनाने का आग्रह किया था।

उन्हें  ऐसा लगता है कि ग़रीबी से सामना सिर्फ़ मुसलमान का है और ऐसा महज़ बड़े परिवार होने के चलते है, न कि सरकारी नीतियों से पैदा होने वाली आर्थिक ग़ैर-बरारबी का यह नतीजा है।

पिछले हफ़्ते सरमा ने औपचारिक रूप से यह ऐलान किया था कि उनकी सरकार राज्य की ओर से वित्त पोषित विशिष्ट योजनाओं के तहत लाभ पाने के लिए धीरे-धीरे दो बच्चों वाली इस नीति को लागू करेगी,इस मुद्दे पर चूंकि केंद्रीय क़ानून का अभाव है,इसलिए केंद्र की तरफ़ से चलायी जा रही योजनाओं को इस मानदंड से बाहर रखा जायेगा। यहां इस बात का ज़िक़्र ज़रूरी है कि सरमा ख़ुद ही पांच भाई-बहन हैं।

असम में पंचायत चुनाव लड़ने के इच्छुक लोगों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता और साफ़ सुथरे शौचालय होने  के मानदंडों के अलावे कुछ क्षेत्रों में दो-बच्चों का यह मानदंड पहले से ही मौजूद है।

इस आशय का संशोधन राज्य के पंचायत अधिनियम 2018 में भी किया गया था। असम सरकार पहले से ही उन लोगों को सरकारी नौकरी से हटाने का फ़ैसला किया हुआ है, जिनके दो से ज़्यादा बच्चे हैं।

असम में हाल ही में हुए राज्य चुनावों में भाजपा ने उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन इसलिए किया है,क्योंकि कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट के बीच के गठबंधन से भाजपा के पक्ष में निर्णायक नाकारात्मक ध्रुवीकरण हुआ था।

सरमा का लक्ष्य अपने पीछे हिंदू वोटों को और मज़बूत करने की कोशिशों में अडिग रहते हुए एआईयूडीएफ को सामने रखकर और ज़्यादा फ़ायदा उठाना है। इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरनाक संकेत छुपा हुआ है, मगर विडंबना है कि भाजपा का यह एक 'प्यारा' लक्ष्य है।

असम अकेला ऐसा राज्य नहीं है, जहां दो से ज़्यादा बच्चों वाले लोगों को सेवाओं और ज़रूरी अधिकारों को पाने से रोका जा रहा है। राजस्थान, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, कर्नाटक और ओडिशा ऐसे ही राज्य हैं, जहां कुछ विशिष्ट स्थितियों,ख़ासकर चुनाव लड़ने में इसी तरह की रोक है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में भी इस मानदंड के लिहाज़ से लोगों को सरकारी नौकरी हासिल करने पर रोक लगी हुई है।

राज्यों में मौजूदा क़ानून

इसके अलावा, ऐसे कई मौक़े आये हैं, जब इस मुद्दे पर सांसदों की तरफ़ से निजी विधेयक संसद में पेश किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक़ इस तरह के 35 कोशिशें हुई हैं। न्यायपालिका के ज़रिये भी कार्यपालिका को इस मामले पर क़ानून बनाने का निर्देश देने का प्रयास किया गया है।

सांसदों की तरफ़ से दो-बच्चों के इस मानदंड का पालन करने वाले जोड़ों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ इस मानदंड का पालन नहीं करने वाले जोड़ों को हतोत्साहित करने के लिए भी ऐसी अलग-अलग कई स्वतंत्र पहल की गयी है, जिसका समर्थन पार्टियों की तरफ़ से नहीं रहा है।

दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका के रूप में की गयी एक क़ानूनी पहल की एक अन्य कोशिश इसलिए ख़ारिज कर दी गयी थी, क्योंकि अदालत ने कहा था कि उसके पास किसी विशिष्ट मामले पर क़ानून पारित करने के लिए संसद या राज्य विधायिका को निर्देश देने की कोई शक्ति नहीं है।

दो से ज़्यादा बच्चों वाले लोगों को हतोत्साहित करने वाली इस नीति को लागू करने की मांग करने वालों को क़ानूनी और संवैधानिक आधार तीन स्रोतों से मिलता है।

पहला आधार सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 20-ए है, जिसे आपातकाल के दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन के ज़रिये डाला गया था।

उस समय इंदिरा गांधी की जनसंख्या नियंत्रण नीति के पीछी की धारणा का आधार विचारधारा नहीं था,बल्कि वह ऐसा मानती थीं कि इस नीति से छोटे परिवारों और देश की अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने में मदद मिलेगी।

जनसंख्या नियंत्रण को अमल में लाने वालों को प्रोत्साहित करने के मक़सद से क़ानून बनाने वाले कई राज्यों ने समवर्ती सूची की इसी प्रविष्टि का इस्तेमाल किया है।

लेकिन, सरमा और आदित्यनाथ की पहल सहित इन क़ानूनों को लागू करने की मंशा राजनीतिक रूप से प्रेरित है, न कि इंदिरा गांधी के उस नज़रिये से प्रेरित है,जिसके तहत उन्होंने संविधान में इस विशेष प्रविष्टि को जोड़ा था।

दूसरा आधार अटल बिहारी वाजपेयी शासन के दौरान न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के हिस्से के रूप में अनुच्छेद 47 ए को शामिल करने की सिफ़ारिश की थी।

यह सुझाव उन लोगों को जनसंख्या नियंत्रण को बढ़ावा देने और कराधान मामलों, शैक्षिक प्रवेश आदि में फ़ायदा पहुंचाने के उद्देश्य से दिया गया था, जिनके दो या उससे कम बच्चे हैं। कई आधिकारिक रिपोर्टों की तरह, इस प्रस्ताव की मौजूदगी इस योजना के पीछे के वैचारिक उद्देश्य को छुपा लेती है।

तीसरा आधार,पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त राज्यों की तरफ़ से बनाये गये कई राज्य क़ानूनों को मान्यता देना है। इसने क़ानूनों को क़ानूनी शुद्धता का एक लिबास पहना दिया है, यहां तक कि शीर्ष अदालत ने भी मंज़ूरी देकर और विवादित नहीं क़रार देकर ऐसा किया है, लेकिन यह तो "मौलिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अनुचित दबाव" है।

आदित्यनाथ की राजनीतिक संभावना और सरमा के हालिया क़दम को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को न सिर्फ़ मौजूदा राज्य क़ानूनों पर नये सिरे से विचार करने के लिए कहा जाना चाहिए। बल्कि 2003 में तीन-न्यायाधीशों की पीठ की तरफ़ से हरियाणा के क़ानून को चुनौती देने वाले अपने उस फ़ैसले पर भी विचार करना चाहिए, जिसें त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में दो से ज़्यादा बच्चों वाले उम्मीदवारों की उम्मीदवारी रद्द करने की बात है।

व्यक्तिगत पसंद और निजता से जुड़े मामलों को राज्य की तरफ़ से दरकिनार नहीं किया जा सकता है। लोकतांत्रिक क़ानूनी विशेषज्ञों के लिए यह मुनासिब वक़्त है कि वे उन तरीक़ो की जांच करें, जिनमें उपरोक्त तर्क का इस्तेमाल दो से अधिक बच्चों वाले लोगों को उन मूल अधिकारों से वंचित करने को लेकर किया जा रहा है, जो संविधान में निहित हैं।

सरमा और आदित्यनाथ के ये क़दम राजनीति से प्रेरित हैं। इनका आचार-व्यवहार भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व, ख़ासकर मोदी से ऊपर जाने के उद्देश्य से प्रेरित है क्योंकि हाल के महीनों में मोदी जहां आदित्यनाथ के साथ एक कड़वे संघर्ष में उलझे रहे हैं वहीं उन पर अपनी ख़ुद की पसंद सोनोवाल की जगह सरमा को असम का मुख्यमंत्री बनाने की अनुमति देने का दबाव डाला गया था।

हालांकि, जहां तक ध्रुवीकरण की राजनीति का सवाल है, तो मोदी ख़ुद मासूम तो नहीं हैं। फिलहाल, भाजपा के इन दो मुख्यमंत्रियों की तरफ़ से उठाये गये इन क़दमों में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, ख़ास तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका और कश्मीर-आधारित राजनीतिक दलों और संभवतः पाकिस्तान के साथ उनके राजनीतिक जुड़ाव के बरक्स उनके संतुलन बनाने वाले कार्यों को ख़तरे में डालने की क्षमता है। 

(लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी लिखी कई किताबों में 'द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट' और 'नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स' भी हैं। इनका ट्वीटर एकाउंट @NilanjanUdwin है।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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