Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ईकेवाईसी सत्यापन के ज़रिये यूआईडीएआई ने 21 महीनों में कमाये 240 करोड़ रुपये: आरटीआई

इन रक़मों को आम तौर पर ग्राहक शुल्क के तहत रखा जाता है और यह इतनी छोटी रक़म होती है कि ज़्यादतर समय तो ये रक़म भुगतान करने वालों के ध्यान में भी नहीं आते। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि क्या आम लोगों को सेवा मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी ग्राहक सेवा में तो नहीं बदल गयी है ?
ईकेवाईसी सत्यापन के ज़रिये यूआईडीएआई ने 21 महीनों में कमाये 240 करोड़ रुपये: आरटीआई

क्या आपको मालूम है कि हर बार जब आप किसी डिजिटल सेवा या किसी अन्य सेवा के लिए ईकेवाईसी फ़ॉर्म भरते हैं, तो आप यूआईडीएआई को अपने आधार डेटा को तीसरे पक्ष के डेटाबेस के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ने के लिए 20 रुपये का भुगतान करते हैं ?

केवाईसी प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी किसी विशेष सेवा या सब्सिडी का लाभ उठाने के लिए अपना आधार नंबर या बायोमेट्रिक डेटा दर्ज करना होता है। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) इस बात की पुष्टि करने के लिए सेवा प्रदाता को 50 पैसे चार्ज करता है कि आधार संख्या सही ढंग से दर्ज की गयी है। 

इन रक़मों को आम तौर पर ग्राहक शुल्क के तहत रखा जाता है और यह इतनी छोटी रक़म होती है कि ज़्यादतर समय तो ये रक़म भुगतान करने वालों के ध्यान में भी नहीं आते। जब मई 2019 और मार्च 2021 के बीच 21 महीने की अवधि का बिल तैयार किया गया था, तो यूआईडीएआई ने कहा था कि उसने वस्तु और सेवा कर (GST) सहित इस शुल्क से 299.81 करोड़ रुपये अर्जित किये हैं। लगाये गये इस कर की राशि 45.73 करोड़ रुपये है, जिसका मतलब यह है कि यूआईडीएआई ने इन दो सेवाओं से ही 254.08 करोड़ रुपये अर्जित कर लिये हैं।

क़ानून की पढ़ाई कर रहे अनिकेत गौरव की तरफ़ से एक अप्रैल को दायर एक आरटीआई आवेदन के जवाब में यह जानकारी दी गयी है।

भुगतान की गयी आधार सेवाओं को क़ानूनी रूप दिये जाने का पता 6 मार्च, 2019 की गजट अधिसूचना से लगाया जा सकता है। इसमें लिखा है: "आधार सत्यापन सेवाओं से प्रत्येक ई-केवाईसी लेनदेन के लिए 20 रुपये (करों सहित) और अनुरोध करने वाली संस्थाओं से प्रत्येक हां / नहीं सत्यापन लेनदेन के लिए 0.50 रुपये (करों सहित) लिये जायेंगे।" ये शुल्क उन लाइसेंस शुल्क के अतिरिक्त लगाये जाते हैं, जो कंपनियों को पहले ही चुकानी होती हैं। इसके अलावा, इसमें यह भी कहा गया है कि इन शुल्कों का भुगतान करने में नाकाम रहने वाली कोई भी इकाई आधार सत्यापन सेवाओं का इस्तेमाल बंद कर देगी और इन सुविधाओं तक अपनी पहुंच बनाने की सुविधा को छोड़ देगी।

यह सर्कुलर 7 मार्च, 2019 को प्रभावी हुआ था। सिर्फ़ सरकारी संस्थायें, डाक विभाग और आरबीआई में पंजीकृत 'अनुसूचित बैंक' ही इन शुल्कों से मुक्त हैं।

यूज़र चार्ज

इस मूल्य निर्धारण योजना के बारे में पूछे जाने पर यूआईडीएआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर बताया, “यूआईडीएआई दुनिया का सबसे बड़ा पहचान डेटाबेस चलाता है। इसके रख-रखाव पर हज़ारों करोड़ का ख़र्च आता है। मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि किसी भी सरकारी सेवा के लिए यूज़र चार्ज का भुगतान क्यों न किया जाये। सेवा मुहैया कराने में पैसे तो ख़र्च होते ही हैं। सरकार ये पैसे या तो जनता पर लगाये गये करों से वसूले या फिर उस यूज़र चार्ज के रूप में वसूले, जिसका वहन सिर्फ़ इस सेवा का इस्तेमाल करने वाले करें। यूज़र चार्ज यह सुनिश्चित कर देता है कि जो कोई भी यह सेवा नहीं चाहता, उसे इसके लिए भुगतान नहीं करना होगा।”

वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए केंद्र ओर से आवंटित यूआईडीएआई का बजट 613 करोड़ रुपये का था; इसका ख़र्च बढ़कर 893 करोड़ रुपये हो गया था। 2017 और 2020 के बीच तीन वित्तीय वर्ष के दौरान विभाग का बजट क्रमश: 1,150 करोड़ रुपये, 1,345 करोड़ रुपये और 837 करोड़ रुपये था, जबकि इसका ख़र्च क्रमशः 1,149 करोड़ रुपये, 1,181 करोड़ रुपये और 856 करोड़ रुपये था।

गौरव के आरटीआई आवेदन में उन संस्थाओं के नाम भी पूछे गये थे, जिन्होंने इस्तेमाल के आधार पर सम्बन्धित चालान जारी होने के 15 दिनों के भीतर सत्यापन से जुड़े लेनदेन शुल्क जमा नहीं किया है, और ऐसे मामलों में रक़म जमा नहीं की गयी है। इसके अलावे,गौरव ने यूआईडीएआई से उन संस्थाओं के नाम बताने का अनुरोध भी किया था, जिन्हें सत्यापन और ई-केवाईसी सेवाओं के लिए आवश्यक भुगतान जमा नहीं कर पाने के चलते बंद कर दिया गया है।

यूआईडीएआई ने आरटीआई अधिनियम,2005 की धारा 8 (1) (डी) के तहत जानकारी देने से इनकार कर दिया है, जिसमें उल्लेख है: “ऐसी जानकारियां,जिनमें वाणिज्यिक भरोसे, व्यापार गोपनीयता या बौद्धिक संपदा से जुड़ी जानकारियां आती हैं और जिनके सामने आने से किसी तीसरे पक्ष की प्रतिस्पर्धी स्थिति को नुकसान होगा, जब तक कि सक्षम प्राधिकारी इस बात से संतुष्ट न हो कि व्यापक सार्वजनिक हित में ऐसी जानकारी को सामने लाना ज़रूरी है।”

पुत्तास्वामी फ़ैसला

पत्रकार, शोधकर्ता और गोपनीयता अधिकार कार्यकर्ता श्रीनिवास कोडाली ने सवाल उठाया था कि इस शुल्क का वजूद ही क्यों है। “क्या सरकार उन नागरिकों से बायोमेट्रिक्स सहित उनके निजी विवरण मुफ़्त में इकट्ठा कर सकती है, जबकि उनके निजी डेटा का इस्तेमाल सरकारी राजस्व अर्जित करने के लिए किया जा रहा है, वे डेटा एंट्री ऑपरेटरों की तरफ़ से की गई ग़लतियों को सुधारने और कुछ मामलों में तो वास्तविक बदलाव करने के लिए भी बार-बार भुगतान करते रहें ? यह तौर-तरीक़ा आख़िर नैतिक कैसे हो सकता है ?”

कर्नाटक उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.एस. पुत्तास्वामी ने 2012 में पूर्व यूपीए सरकार की तरफ़ से शुरू की गयी आधार योजना की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की थी। इस मामले को 2017 में नौ-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया गया था,सबके सब न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से इस बात से सहमति जतायी थी कि  प्रत्येक व्यक्ति की निजता का अधिकार संविधान की तरफ़ से मिले उसका मौलिक अधिकार है।

नतीजतन, यह फैसला सुनाया गया कि स्कूल, बैंक, मोबाइल सेवा प्रदाता, वित्त से जुड़े तकनीक ऐप (पेटीएम, फ़ोनपे) और बड़ी तकनीक (गूगल, अमेज़ॅन) आदि जैसे निजी सेवा प्रदाताओं को किसी तरह आधार विवरण के अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता नहीं होगी।

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले को पुत्तास्वामी फ़ैसले के रूप में जाना जाता है।

हालांकि, व्यवहार में हालात बहुत अलग हैं। आधार का विवरण दर्ज किये बिना, ख़ासकर अगर इसमें भुगतान किये गये लेनदेन शामिल हैं,तो ज़्यादातर  सेवाओं की आधी सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। यहां तक कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी विश्वविद्यालय भी प्राथमिक बायोमेट्रिक डेटा के रूप में आधार विवरण मांगते हैं। मसलन, एमिटी यूनिवर्सिटी की इंट्रानेट सेवाओं का इस्तेमाल करने के लिए किसी छात्र को एक अनिवार्य ईकेवाईसी पूरा करना होगा।

कोडाली ने यह भी बताया कि यही नियम सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की दुकानों पर भी लागू होता है। उनका कहना है, " ग़रीबी रेखा के नीचे के लोगों को भी हर बार पीडीएस की दुकान से राशन लेने पर इन शुल्कों का भुगतान करना होगा। हर एक ख़रीद से पहले ख़रीदार को बायोमेट्रिक-आधारित आधार सत्यापन से गुज़रना पड़ता है। ऐसा इसलिए है,क्योंकि ये दुकानें, जो पीडीएस के हिस्सा हैं, अभी भी ऐसी निजी संस्थायें हैं, जिनके लिए आधार सत्यापन का इस्तेमाल अनिवार्य है।

विभिन्न संगठनों की ओर से कई सालों से आधार आधारित कल्याण वितरण प्रणाली का अध्ययन किया जा रहा है। यूआईडीएआई के सीईओ ने ख़ुद पाया था कि 2018 में सरकारी सेवाओं के लिए सत्यापन विफलता की दर 12% की हद तक ज़्यादा थी।

आधार: कमाई या मुनाफ़ाखोरी ?

नरेगा से जुड़े कार्य, एलपीजी सब्सिडी, मिड डे मिल और जनकल्याण से जुड़े अन्य योजनाओं में आधार-आधारित सत्यापन पर इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल विक्ली में प्रकाशित दिसंबर 2017 के एक शोध पत्र में निष्कर्ष निकाला गया था कि कल्याणकारी योजनाओं में आधार के जोड़े जाने से "कोई अहम फ़ायदा " तो मिलता नहीं है, बल्कि ऊपर से "(कथित तौर पर) नाम दर्ज किये जाने और आधार डालने की एकमुश्त लागत के साथ लोगों को अब मासिक आधार ( मसलन पेंशन और पीडीएस) पर उच्च लेनदेन लागत का सामना भी करना पड़ रहा है, और कुछ मामलों में तो इन योजनाओं से बाहर कर दिये जाने और खारिज कर दिये जाने का भी सामना करना पड़ता है।” एक अन्य अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि आधार-आधारित सत्यापन" से या तो बाहर हो जाने या छूट जाने से जुड़ी त्रुटियां कम नहीं हुईं या शामिल नहीं किये जाने वाले लोगों की बढ़ती संख्या जैसी त्रुटि की क़ीमत पर ऐसा किया गया।"

आधार अधिनियम में 2019 के संशोधन के साथ आधार से पैसे बनाने के कार्य को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा रही है।

इस मामले से अच्छी तरह परिचित क़ानूनी विशेषज्ञों ने आधार से कमाई से जुड़े इन फ़ैसलों के साथ दो बड़े मुद्दों को उठाया है। पहली बात तो यह कि किसी निजी संस्था की ओर से किसी भी तरह की केवाईसी योजना 2017 के उस पुत्तास्वामी फ़ैसले के गारंटीकृत गोपनीयता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है,जो निजी संस्थाओं को आधार के दर्ज किये जाने की अनिवार्यता को प्रतिबंधित करता है। दूसरी बात कि अधिसूचना के साथ ही सरकार बैंकों को ज़्यादा से ज़्यादा आधार धारकों को नामांकित करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। तीसरी बात कि यूआईडीएआई आधार डेटा में किसी भी तरह की त्रुटि को दुरुस्त करने की ज़िम्मेदारी खुद धारकों पर डाल देता है।

यह हमें हालिया यूआईडीएआई की मुद्रीकरण नीति पर वापस ले आता है। 12 अप्रैल को जारी एक नये सर्कुलर के मुताबिक़, यूआईडीएआई लोगों को उनके आधार रिकॉर्ड में किसी भी तरह के सुधार किये जाने से भी कमाई करता है।

जब भी कोई जनसांख्यिकीय अपडेट के साथ या उसके बिना अपने बायोमेट्रिक्स को अपडेट करना चाहता है, तो उसे 100 रुपये ख़र्च करने होंगे। अगर किसी को सिर्फ़ पता अपडेट करना हो, वर्तनी में सुधार करना हो, अनुक्रम में बदलाव करना हो, शादी के बाद नाम में बदलाव करना हो और इसी तरह के जनसांख्यिकीय अपडेट करने की ज़रूरत हो, तो एक-एक बदलाव के लिए 50 रुपये का शुल्क देना होता है। यूआईडीएआई का कहना है कि एक से ज़्यादा फ़ील्ड के किसी भी एक बदलाव को एक अपडेट माना जाता है।

यहां तक कि ई-आधार डाउनलोड करने और उसका A4 साइज़ का कलर प्रिंट लेने के लिए भी यूआईडीएआई लोगों से 30 रुपये चार्ज करता है। आधार का एक पीवीसी संस्करण कार्ड भी है, जिसे 'स्मार्ट कार्ड' के रूप में बेचा जा रहा है। यह किसी बैंकिंग कार्ड की तरह ही दिखता है और इसे किसी भी मशीन में स्वाइप किया जा सकता है। हालांकि, कौन कहां रहता है,इसके आधार पर लोगों के लिए इस कार्ड की क़ीमत 50 रुपये से 200 रुपये के बीच हो सकती है।

यह बताया जाना चाहिए कि प्रारंभिक आधार नामांकन, अनिवार्य पहला बायोमेट्रिक अपडेट और जनसांख्यिकीय विवरण की प्रविष्टि सभी नि: शुल्क किये जाते हैं।

कोडाली इसके बारे में संक्षेप में कुछ इस तरह बताते हैं, "नाम दर्ज किये जाने के दौरान कई आधार संख्यायें सामूहिक रूप से और जल्दबाजी में जारी की जाती थीं। ऐसे में जनसांख्यिकीय विवरण त्रुटियों से भरे-पड़े होते थे। सिस्टम ने इसे दुरुस्त करवाने की ज़िम्मेदारी लोगों पर ही डाल दी, और यूआईडीएआई को लाभ पहुंचाते हुए इसका वित्तीय बोझ भी लोगों पर ही डाल दिया गया। मौजूदा प्रशासन ने लंबे समय से उस 'निगमीकृत' नौकरशाही को आगे बढ़ाया है, जहां सेवा मुहैया कराये जाने को ग्राहक सेवा में बदल दिया गया है।

मुनाफ़ाखोरी उन प्राथमिक मुद्दों में से एक थी,जिसे डिजिटल गोपनीयता की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ताओं ने 2011 की शुरुआत में उठाया था। आईआईएम अहमदाबाद के कंप्यूटर और सूचना प्रणाली समूह के प्रोफ़ेसर रजनीश दास ने एक शोधपत्र प्रकाशित करवाया था, जिसमें दावा किया गया था कि नाम दर्ज किये जाने की प्रक्रिया स्वैच्छिक होने के बावजूद अप्रत्यक्ष तरक़ीबों से आधार को अनिवार्य किया जा रहा था। उन्होंने यह चिंता भी जतायी थी कि सरकार लंबे समय में इस पैमाने पर चलाये जा रहे इस अभियान को वित्तपोषित नहीं कर पायेगी और इसे लाभ कमाने वाली संस्था में बदलना होगा।

पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता उषा रामनाथन और आईआईटी दिल्ली की विकास अर्थशास्त्री रीतिका खेरा ने भी दास की इस बात से सहमति जतायी थी। ईपीडब्ल्यू और द वायर में लिखे अपने लेख में उन्होंने तर्क दिया था कि यूआईडीएआई के लिए अनुमानित बड़े लाभ अवास्तविक और पुराने पड़ चुके डेटा पर आधारित थे। उनके लेख में बताया गया था कि कैसे आधार को लंबी अवधि में या तो लाभ में बदलना होगा या फिर इस परियोजना को ही ख़त्म करने का जोखिम उठाना होगा।

इस बीच आधार एक अरब से ज़्यादा भारतीयों की औपचारिक पहचान बन चुका है। इसी तरह नीति आयोग भी आधार-आधारित अन्य आईडी कार्यक्रम लेकर आयी है,जिसमें किसानों के लिए 'एग्रिस्टैक' के साथ-साथ सार्वभौमिक 'नेशनल हेल्थ स्टैक' भी शामिल है।

जहां 'एग्रिस्टैक' किसान की विशिष्ट पहचान बनाने के लिए मिट्टी की सेहत भूमि रिकॉर्ड और आधार को एक साथ मिलाते हुए दिखता है, वहीं 'नेशनल हेल्थ स्टैक' हर एक भारतीय के लिए आधार आधारित एक ऐसी 'स्वास्थ्य आईडी' है, जो एक ऑनलाइन 'कवरेज और दावों' वाली प्रणाली और एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य विश्लेषण मंच तक पहुंच प्रदान करेगी। इसका नतीजा यह होगा कि निजी चिकित्सा रिकॉर्ड, "चिकित्सा अनुसंधान,मानव स्वास्थ्य की हमारी समझ के लिए अहम चीज़ों" के लिए सुलभ होंगे।

फ़ाइल - ReplyDocument - 2021-04-29T204359.647 (2).pdf

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UIDAI Made Rs 240 Crore Via eKYC Authentication over 21 Months: RTI

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest