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यूपी चुनाव: कांस्य युग में फंसा एक द्वीपनुमा गांव

उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार चल रहा है, लेकिन ग्रामीणों को अभी तक उनके क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के बारे में पता तक नहीं चल पाया है। इसके पीछे की वजह है-बुनियादी सुविधाओं का अभाव। 21वीं सदी में भी ये ग्रामीण ख़ुद को कांस्य युग में ही फंसा हुआ पाते हैं और इनकी इस बदहाली का श्रेय सरकारी उदासीनता को जाता है।
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परसावल (बाराबंकी) : गायत्री निषाद को 30 जनवरी की रात को प्रसव पीड़ा के लक्षण महसूस होने लगे, लेकिन उन्हें इस डर से पूरी रात घर पर ही गुज़ारनी पड़ी कि कहीं वह अपने बच्चे को घर पर ही जन्म न दे दें। उन्हें सुबह जाकर ही एंबुलेंस नहीं, बल्कि मोटरसाइकिल से अस्पताल ले जाया गया।

तक़रीबन 20 साल की यह गृहिणी उस परसावल गांव में रहती है, जो लखनऊ से लगभग 84 किमी दूर है और ज़ोरदार घाघरा नदी के दो पाटों के बीच बसा यह एक द्वीपनुमा गांव है। इस गांव में लगभग 60 परिवार रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर निषाद समुदाय के हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र इस परसावल गांव से क़रीब 7 किमी दूर है, लेकिन वहां पहुंचने के लिए ग्रामीणों को घाघरा नदी के दो पाटों को ज़्यादा पानी होने पर या तो नाव के सहारे या पानी कम होने पर पैदल चलकर पार करना होता है।

गायत्री को बताया गया कि प्रसव होने में अभी समय है और उन्हें मल्टीविटामिन, फ़ॉलिक एसिड और दूसरी दवायें लेने के लिए कहा गया। वह अपने पति और एक चचिया ससुर के साथ उसी मोटरसाइकिल पर घर वापस लौट आयीं।

एक साल की बेटी की मां गायत्री कहती हैं, "पूरी रात मैं यही सोचती रही कि मेरे बच्चे की डिलीवरी घर के भीतर ही होगी। मैं पूरी रात बहुत डरी हुई थी और भगवान से प्रार्थना करती रही कि किसी तरह दर्द बंद हो जाये और अस्पताल ले जाने के लिए सुबह तक का इंतज़ार करती रही। लेकिन,पूरी रात दर्द कम नहीं हुआ, और मैंने वह रात करवट बदल-बदलकर रोते और चिल्लाते हुए बितायी।"

वह आगे बताती हैं कि वह इतनी डरी हुई थीं कि उनके मन में मौत के ख़्याल तक आने लगे थे और एक समय तो दर्द इतना बढ़ गया था कि वह बेहोश होकर गिर गयी थीं और फिर क़रीब आधे घंटे तक अचेत सोई रहीं। जो दवायें उन्हें पहले लेने के लिए कहा गया था,वे परिवार के पास घर पर ही थीं, लेकिन उन दवाओं से भी दर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा था।

प्रसव का इंतज़ार कर रही उस गर्भवती महिला ने कहा, "मुझे याद है कि अस्पताल ले जाने के लिए मैं अपने पति पर दो बार से ज़्यादा चिल्लायी थी, लेकिन रात में घने कोहरे के चलते वह कुछ नहीं कर सके।"

यूरो स्त्री रोग विशेषज्ञ और सुरक्षित प्रसव को लेकर अभियान चलाने वाली डॉ अपर्णा हेगड़े का कहना है कि प्रसव से पहले की देखभाल अहम होती है, और सरकारी दिशानिर्देशों के मुताबिक़ गर्भवती महिला को गर्भावस्था के नौवें महीने में तीन बार अल्ट्रासाउंड करवाना चाहिए। गायत्री ने महज़ एक अल्ट्रासाउंड करवाया था, और डॉक्टरों का कहना है कि वह एक या दो हफ़्ते में कभी भी अपने बच्चे को जन्म दे सकती है।

परसवाल गांव मांजा परसवाल और प्रताप पुर गांवों का हिस्सा है। परसावल नदी से घिरा हुआ है और इसमें विकास का कोई निशान तक नहीं दिखता है। गांव में सड़क, बिजली, शौचालय, पक्के मकान, स्वास्थ्य सेवा, स्कूल और दूसरी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। अभी तक किसी भी दल के प्रत्याशी ने गांव का दौरा नहीं किया है और गांव की कई महिलाओं को अपने राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के बारे में पता तक नहीं है।

पचास साल के धनलाल निषाद इसी गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने ग्राम प्रधान के पद के लिए पिछला पंचायत चुनाव लड़ा था, और उनके गांव का विकास ही उनका चुनावी मुद्दा था। चुनाव हार जाने के बावजूद उन्हें प्यार से 'नेता जी' के नाम से जाना जाता है। धनलाल तंज करते हुए कहते हैं कि इस गांव में तो कोई समस्या ही नहीं है। यह इसलिए शांतिप्रिय गांव है, क्योंकि इस गांव के किसी भी घर में टेलीविज़न या मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं है, क्योंकि बिजली नहीं है। वह कहते हैं, "मैं सात बच्चों, यानी तीन बेटों और चार बेटियों का पिता हूं। मेरे बच्चे खेती और घर के कामों में मदद करते हैं।"

सात बच्चों के पिता धनलाल आगे कहते हैं कि परसावल गांव में रह रहे लोगों का मुख्य पेशा या आजीविका का स्रोत खेतीबाड़ी है और कोई दूसरा पेशा इसलिए नहीं है, क्योंकि शिक्षा की कोई सुविधा ही नहीं है। धनलाल आगे बताते हैं,"निकटतम स्कूल यहां से तक़रीबन 5 किमी दूर है, और कोई कनेक्टिविटी नहीं है। स्थानीय प्रशासन गर्मियों के दौरान नदी पर पोंटून पुल (पिपा पुल) बनवा देता है। लेकिन, नदी में बाढ़ जब आती है, तो यह पुल ख़राब हो जाता है, और तब हमारे पास आने-जाने के साधन के रूप में नाव का इस्तेमाल करने का विकल्प ही बचता है। मैं अपने बच्चों को ऐसी स्थिति में दूसरे गांवों में शिक्षा के लिए नहीं भेजूंगा। हर पांच साल में चुनाव आते हैं और अगर नेता हमें सुविधायें देने के बारे में थोड़ा भी चिंतित होते, तो हमारे पास कम से कम पुल तो होता। हम अपने मोबाइल फ़ोन चार्ज करने और शाम को एक बल्ब जलाने के लिए सरकार की तरफ़ से उपलब्ध कराये गये सोलर पैनलों पर निर्भर होते हैं, लेकिन बाढ़ और भारी बारिश के दौरान यह भी काम करना बंद कर देता है।"

न्यूज़क्लिक ने ज़िला प्रशासन से संपर्क किया,लेकिन वह टिप्पणियों के लिए उपलब्ध नहीं था।

'जो नसीब में होगा, उसे कौन बदल सकता है'

गायत्री के 24 साल के पति अर्जुन इसी गांव में तक़रीबन 8-10 बीघा ज़मीन का स्वामित्व वाले एक छोटे किसान है। अर्जुन ने बताया कि रात में अपनी पत्नी को अस्पताल नहीं ले जाने की इकलौती वजह घना कोहरा थी और यह भी कि टोल-फ़्री एम्बुलेंस सेवा ने उन्हें नदी पार करने के बाद गांव के अलग छोर पर आने के लिए कहा था, लेकिन अंधेरे और घने कोहरे के चलते रात में मोटरसाइकिल से ऐसा कर पाना मुमकिन ही नहीं था।

अर्जुन कहते हैं, "मेरी पहली बेटी बहराइच ज़िले में स्थित मेरे ससुराल में थी, और उस रात जब मेरी पत्नी को दर्द हुआ था, तो मुझे किसी ऐसी जगह पर नहीं होने का अफ़सोस हुआ,जहां ये बुनियादी सुविधायें होतीं, लेकिन क्या करूं यहीं मेरा घर है, और यहीं मेरे खेत हैं, यहीं मां , पिता, और सब लोग हैं। मैं यहीं पैदा हुआ। मुझे तो यहीं मरना है, चाहे हमें कभी भी सरकार से कोई सुविधा मिले या नहीं मिले।”

उन्होंने आगे कहा, "गर्भावस्था के आख़िरी महीने में अपनी पत्नी को यहां रखना जोखिम भरा है, लेकिन हमारे पास कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है, और मैं बुरी से बुरी स्थिति के लिए तैयार रहता हूं। जो मेरे नसीब में होगा, उसको कौन बदल सकता है।"

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Elections: A Riverine Village Stuck in the Bronze Age

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