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यूपी: चुनावी एजेंडे से क्यों गायब हैं मिर्ज़ापुर के पारंपरिक बांस उत्पाद निर्माता

बेनवंशी धाकर समुदाय सभी विकास सूचकांकों में सबसे नीचे आते हैं, यहाँ तक कि अनुसूचित जातियों के बीच में भी वे सबसे पिछड़े और उपेक्षित हैं।
 Mirzapur

बांस के हस्तशिल्प में वे कुशल हैं। उनकी आबादी अल्प है, और कलाकृति ही उनकी आजीविका का प्राथमिक स्रोत है। इस तथ्य के विपरीत कि उनके उत्पाद भारत ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी लोकप्रिय हैं, वे पूरी तरह से हाशिये पर खड़े हैं और बेहद गरीबी में अपना जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं। चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के द्वारा किये जाने वाले बड़े—बड़े दावों और बुलंद वादों का उनके लिए कोई अर्थ नहीं है क्योंकि उन्हें लंबे अर्से से भुला दिया गया है।

कई दिनों के कठिन परिश्रम एवं अग्रणी कला के बाद वे जो कुछ कमा पाने में सक्षम हो पाते हैं, वह कुछ ऐसा है जिसे जोरदार और स्पष्ट शब्दों में बताये जाने की जरूरत हैऔर वह है अधिक से अधिक 200 रूपये और वह भी हर दिन नहीं।

वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले में बेनवंशी धाकर समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। यह अनुसूचित जाति (एससी) समूह समाज में इस हद तक बहिष्कृत है कि इन लोगों को खेतिहर श्रमिक के बतौर काम करने तक की अनुमति नहीं है क्योंकि यदि इन्होंने उपज को छू भी लिया तो वह अपवित्रहो जाएगी। 

उनके द्वारा टोकड़ी, भौका, झउआ (बांस से बनने वाली विभिन्न आकार की टोकरियाँ), सूपा (रसोईघरों में अनाज से भूसी और कंकड़ पत्थर को अलग करने में इस्तेमाल किया जाता है) और हाथ वाले पंखे जैसे कई उत्पाद तैयार किये जाते हैं। ये उत्पाद भारतीय संस्कृति के लिए कोई नए नहीं हैं, क्योंकि बांस यहाँ पर लंबे समय से लोकप्रिय रहा है। लेकिन सरकार की उदासीनता की वजह से हाल के दिनों में ये उत्पाद अपना बाजार खोते जा रहे हैं।  

सरकारी उदासीनता इस पेशे को विलुप्त होने की ओर धकेल रही है  

40 वर्षीया सीमा टोकरियाँ और सूपा बनाती हैं और उनके पति (45 वर्षीय समरू) और तीन किशोर बच्चे इसमें उनकी मदद करते हैं। तीन दिनों की कड़ी मेहनत के बाद वे एक बड़े आकार की टोकरी बना पाते हैं- जिसे उनका महज 15 साल का बेटा स्थानीय बाजार में 200 रूपये में बेचने के लिए जाता है।

पटेहरा ब्लॉक के नेवधिया गाँव की निवासी ने फूट-फूट कर रोते हुए न्यूज़क्लिक को इस बारे में बताया, “लोग इतनी छोटी सी रकम को चुकाने के लिए भी अपनी जेब ढीली नहीं करना चाहते हैं, जो कि इस भयंकर महंगाई के जमाने में कुछ भी नहीं है। खाली हाथ लौटने के डर से कभी-कभी हमें इसे अपनी लागत पर भी बेचना पड़ जाता है, जो कि करीब 150 रूपये पड़ती है। जख्मी दिल के साथ हमें यह सब करना पड़ता है क्योंकि हाथ में बगैर कोई दमड़ी के वापस लौटने का मतलब है कि घर पर सबको भूखे-प्यासे रहना होगा।”  

अपने चेहरे से लुढ़कते हुए आंसुओं को पोंछते हुए वे बड़ी मुश्किल से अपने और अपने गाँव के साथी ग्रामीणों के अकल्पनीय कष्टों का वर्णन करने की कोशिश करती हैं जिनसे उन्हें हर समय रूबरू होना पड़ता है, लेकिन इस दौरान वे एक बार फिर से रो पड़ती हैं।

हम (पति-पत्नी दोनों जन) बिना खाए-पिये ही सो सकते हैं, और अक्सर हमें यह सब करना पड़ता है। लेकिन एक माँ होने के नाते, मैं कैसे अपने बच्चों को बिना कुछ भोजन किये ही पर सोते हुए देख सकती हूँ? कोई भी ऐसा नहीं कर सकता है। भले ही बढ़िया और स्वस्थ भोजन न सही, लेकिन कम से कम एक दिन में वे दो बार तो नून-रोटी के हकदार हैं,” इतना कहते हुए एक बार फिर से रोने लगती हैं और इससे आगे कुछ भी कहने से इंकार कर देती हैं।

अपने छप्पर और टूटे-फूटे घर के सामने मिट्टी के बने फर्श पर बैठी मह्देई गाँव की एक अन्य महिला के साथ बातचीत में व्यस्त थीं। जैसे ही इस संवावदाता ने उनसे बातचीत करने की कोशिश की, वे उठीं, अपने एक-कमरे वाले कच्चे घर के भीतर गईं और अपने साथ एक चारपाई (खाट) ले आईं। उन्होंने झिझकते हुए मुझसे खाट पर बैठ जाने के लिए कहा।   

मेरे बार-बार एक ही खाट को साझा करने के लिए कहने के बावजूद वे फिर से फर्श पर बैठ जाती हैं। उनका कहना था, “हम एक निचली जाति से आते हैं; मैं आपके बराबर बैठने की सोच भी कैसे सकती हूँ, भले ही आप मेरे बेटे की उम्र के हैं। यह पहली दफा है कि जब किसी ने भी हमारे अस्तित्व को स्वीकार किया है और हम किन समस्याओं से जूझ रहे हैं उन समस्याओं के बारे में जानने के लिए आया है।

करीब 110 घरों वाले इस गाँव में ऐसा जान पड़ता है कि कोई भी सरकारी योजना और कार्यक्रम नहीं पहुँच सका है। वे भूमिहीन हैं। कई दफा आवेदन करने के बाद भी उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के तहत पक्का ठिकाना नहीं मिल पाया है, जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब लोगों को मकान बनाने के लिए 1.3 लाख रूपये दिए जाने का प्रावधान है।

उन्होंने बताया, “महीने में दो बार मुफ्त राशन के अलावा हमें सरकार से कुछ नहीं मिलता है। जब कभी हमारे उत्पाद नहीं बिक पाते हैं, तो हम कुछ गेंहूँ और चावल जो हमें (सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस के तहत) मिलता है उसमें से बेच देते हैं ताकि अपनी अन्य जरुरतों को पूरा करने के लिए कुछ पैसे कमा सकें।

उस 55 वर्षीया महिला ने बताया कि वे अपने चार बेटों के साथ टोकरियाँ और सूपा बनाती हैं। लेकिन दिन भर में वे मुश्किल से 100 रूपये ही कमा पाती हैं। ज्यादातर समय, लोग अनाज (वस्तु विनिमय वाली व्यवस्था) के बदले में उत्पाद लेते हैं। जिंदगी बड़ी कठिन हैचेहरे पर स्पष्ट दिख रही निराशा लिए हुए वे कहती हैं। 

बाबू नंदन, जो सड़क के दूसरी ओर बैठे हुए थे और टोकरी बुन रहे थे, आते हैं और बातचीत में हस्तक्षेप करते हैं। वे आरोप लगाते हुए कहते हैं, “प्रधान (ग्राम प्रधान) से बार-बार एक घर के लिए अनुरोध करने के बाद हारकर हमने संबंधित अधिकारियों से भी इस बारे में संपर्क साधा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उन्होंने कागजात ले लिए लेकिन अभी तक इस बारे में कुछ नहीं किया है। ऐसा शायद इसलिए हो रहा है क्योंकि हम लोग संख्यात्मक लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं हैं। सभी राजनीतिक दलों के नेता हमें हल्के में लेते हैं। उन्हें लगता है कि वे दारु के बदले हमारा वोट हथिया सकते हैं।” 

समूचे जिले में बेनवंशी धाकर समुदाय के करीब 10,000 लोग होंगे। वे मिर्ज़ापुर के पटेहरा, संत नगर, रामपुर, कन्हैपुर, रामपुर, रैकल, मलुआ और अमोई गाँवों में मलिन बस्तियों में बेहद कम संख्या में पाए जाते हैं।

उस 45 वर्षीय व्यक्ति ने हाथ जोड़कर आग्रह किया कि कुछ राहत पाने के लिए सरकार के साथ उन लोगों के मामले को आगे बढायें। उन्होंने आगे कहा, “सबसे बड़ी कमी हमारे लिए एक उचित मंच का न होना है जहाँ हम अपने हुनर का प्रदर्शन कर सकते हैं। बिना किसी सरकारी मदद के, हम इस कला को जिंदा बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

28 वर्षीय विनोद ने बताया कि उनके समुदाय ने पिछले चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में इस उम्मीद के साथ वोट किया था, कि पार्टी उनके कल्याण के लिए कुछ करेगी।

यह पूछे जाने पर कि इस बार के चुनावों में वे किसे चुनने जा रहे हैं, पर उसका कहना था कि उनके लोगों ने अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं लिया है।

उसका आरोप था, “चूँकि इस क्षेत्र के लोगों ने भाजपा को वोट किया था, इसलिए हमने भी उसी का अनुसरण किया था। कोई उम्मीदवार हमारे पास वोट मांगने के लिए नहीं आता। हमसे कहा जाता है कि यदि हमने भाजपा के लिए वोट नहीं भी किया तो भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि पार्टी हमारे वोटों के बिना भी जीत जाएगी।

पटेहरा ब्लॉक में रामपुर गाँव के निवासी 70 वर्षीय छांगुर, और उनके तीन बेटे इसी पेशे से जुड़े हैं। जैसा कि उन्होंने बताया, उनकी मासिक आय करीब 1,000 रूपये के आसपास हो जाती है। 

जब उनसे उनके व्यवसाय के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, “हमके ई काम करे से जुटत हा ता खात हैं, नाही त नाहीं खात हैं (यदि हमारे उत्पाद बिक जाते हैं, तो हम कुछ खाने के लिए जुटा लेते हैं वरना हम भूखे रहते हैं।)”

वे अपने पुरवे में ऐसे एकमात्र व्यक्ति हैं जिनके पास एक-कमरे का पक्का घर है। उन्होंने बताया, “मैंने 1.2 लाख रूपये से इस घर को बानाया था जो मुझे छह साल पहले सरकार से आवास योजना के तहत प्राप्त हुए थे।” 

उन्होंने बताया कि त्यौहार के सीजन में उनके व्यवसाय को बढ़ावा मिल जाता है, लेकिन बाजार में प्लास्टिक उत्पादों की आमद ने उनके सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है। उन्होंने न्यूज़क्लिक से कहा, “इसने हाथ से बने बांस के उत्पादों की मांग को बड़े पैमाने पर कम कर दिया है।

30 वर्षीय सूरज प्रसाद ने कहा, “हमारा सदियों पुराना व्यवसाय आज लुप्त होने के कगार पर है क्योंकि सरकार हमारे हितों की रक्षा कर पाने में विफल है, जो बांस के उत्पादों को बनाकर अपना जीविकोपार्जन करते हैं। हम अपने हुनर को इस्तेमाल में इससे विभिन्न उत्पादों को तैयार कर बांस में नई जान फूंकने का काम करते हैं।” 

बांस के उत्पादों के निर्माण में कई चरणों से गुजरना पड़ता है। सबसे पहले, बांस को इसकी लंबाई के साथ टुकड़ों में काटा जाता है। फिर प्रत्येक टुकड़े को पतले-पतले फांक में लंबाई के साथ काटा जाता है। इसके बाद इसे कई दोनों तक सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। लंबी और पतली फांकों को को आमतौर पर हरे या लाल रंगों से रंगा जाता है। और आखिर में, इन फांकों को उत्पादों के हिसाब से एक विशेष पैटर्न में बुना जाता है।

उन्होंने अपनी बात में आगे जोड़ते हुए कहा, “यह समूची प्रक्रिया जटिल है और इसमें कड़ी मेहनत की जरूरत पड़ती है, लेकिन इसके बदले में बहुत कम मिलता है। यही वजह है कि कई लोग इस पेशे से मुहं मोड़ चुके हैं। हममें से कई लोग अब निर्माण मजदूर के तौर पर काम करना शुरू कर दिए हैं, जिन्हें यदि काम मिल जाता है तो कम से कम हमसे तो ज्यादा ही कमा लेता है।

उज्ज्वला योजना, जिसमें गरीब परिवारों को रसोई गैस कनेक्शन प्रदान किया जाता है, का इस समुदाय की महिलाओं के लिए कोई मायने नहीं है जो आज भी मिट्टी के चूल्हों का इस्तेमाल कर रही हैं और हमेशा सांस संबंधी रोगों के खतरे की चपेट में आने से घिरी रहती हैं।

स्वच्छ भारत कार्यक्रम ने ग्रामीणों के लिए स्वच्छता और सुरक्षा में कोई सुधार नहीं किया है जिन्हें शौचालयों के अभाव में खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।  

यह समुदाय सभी सूचकांकों में सबसे निचले स्तर पर बना हुआ है, यहाँ तक कि अनुसूचित जातियों के बीच में भी सबसे पिछड़ा और उपेक्षित है। इसी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले, पेशे से पत्रकार योगेश कुमार बेनबंशी ने उनके पिछड़ेपन के कारणों के बारे में विस्तार से बताया।

न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में उन्होंने कहा, “हम संख्यात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं हैं। राज्य भर में हमारी संख्या 1 लाख के आसपास होगी। परिस्थतियों की वजह से संभवतः हम उतने मुखर नहीं हैं। ऐसे में हम सरकार, राजनेताओं और मीडिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाने में विफल रहे हैं।

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प्रयागराज में उंचडीह के निवासी अपनी दूसरी पीढ़ी के शिक्षित व्यक्ति में से हैं। वे पत्रकारिता और कानून की पढ़ाई इसलिए कर सके क्योंकि उनके पिता मुंबई की एक निजी कंपनी में अकाउंटेंट होने के नाते अच्छी कमाई कर पाने में सक्षम थे। वे अपने समुदाय के उन तीन पुरुषों में से एक हैं जो स्कूली पढ़ाई के बाद उच्च शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी तक पहुँच पाने में सक्षम रहे। 

उनके विचार में उनके समुदाय को समाज की मुख्यधारा में सिर्फ तभी लाया जा सकता है यदि सरकार अनुसूचित वर्ग एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के समान ही उनके समाज के लिए एक अलग से आयोग का गठन करे और कारीगरों के व्यवसाय को बढ़ावा देने और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष इंतजाम करने के लिए एक विशेष आर्थिक पैकेज का प्रबंध करे।

139.6 लाख हेक्टेयर में फैली हुई, 136 प्रजातियों और 23 पीढ़ियों के साथ, चीन के बाद भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा बांस की खेती करने वाला देश है। भारत सरकार के कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय के मुताबिक, यहाँ पर बांस का वार्षिक उत्पादन 32.3 लाख टन होने का अनुमान है।

हालांकि, इतने उच्च उत्पादन के बावजूद देश की वैश्विक बांस व्यापार एवं वाणिज्य में हिस्सेदारी मात्र 4% है।

राज्य सरकार के एक जिला-एक उत्पाद कार्यक्रम के तहत, जिसमें इस प्रकार के पारंपरिक एवं विशिष्ट उत्पादों एवं शिल्प को प्रोत्साहित किया जाता है, का लगता है जमीन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है क्योंकि कारीगरों को अपनी दो जून की कमाई के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ रहा है। हालाँकि, बांस से बने उत्पादों को ओडीओपी सूची में शामिल किया गया है और इसे हुनर हाटमें प्रदर्शनी के लिए रखा गया है।

यदि चुनावी प्रक्रिया में शामिल विभिन्न दलों एवं अन्य लोग इस बात को महसूस कर लेते हैं कि इस आबादी के मुद्दे उनके चुनावी ब्लूप्रिंट्स के लिए एक अनिवार्य पहलू के तौर पर अहम हैं तो इन लोगों के लिए यह बेहद ख़ुशी की बात होगी।

बता दें कि सात चरणों वाले यूपी विधानसभा चुनावों के अंतिम चरण में मिर्जापुर में 7 मार्च को मतदान होने जा रहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें   

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