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उत्तर प्रदेश चुनाव: बिना अपवाद मोदी ने फिर चुनावी अभियान धार्मिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित किया

31 जनवरी को अपनी "आभासी रैली" में प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश में पिछले समाजवादी पार्टी के "शासनकाल के डर का जिक्र" छेड़ा, जिसके ज़रिए कुछ जातियों और उपजातियों को मुस्लिमों के साथ मिलने से रोकने का प्रयास किया गया है।
Modi
Image Courtesy: The Indian Express

नफ़रत किसी भी व्यक्ति की बुद्धि और अंतरात्मा के लिए नुकसानदेह होती है; दुश्मनी की मानसिकता किसी राष्ट्र की आत्मा को जहरीला बना सकती है और जीवन-मरण का क्रूर संघर्ष शुरू करवा सकती है, किसी समाज की सहिष्णुता और इंसानियत को खत्म कर सकती है और एक राष्ट्र की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की प्रगति को बाधित कर सकती है। 

- लिऊ ज़ियोबो

31 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपनी पहली आभासी रैली में दिए गए भाषण के शुरुआती मिनट ही यह साबित करने के लिए काफ़ी थे कि पुरानी आदतें मुश्किल से जाती हैं। यह कार्यक्रम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को लक्षित कर आयोजित किया गया था। यह वह इलाका है जहां 2014, 2017 और 2019 में भारतीय जनता पार्टी को मिले लाभ के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की चुनावी बिसात तैयार हुई थी। अनुमानों के मुताबिक़, इस बार इस क्षेत्र से बीजेपी के प्रति विरोध की लहरें राज्य के दूसरे हिस्सों की तरफ बह रही हैं। मोदी का भाषण इसे रोकने की कवायद था, ताकि सत्ता की बागडोर उनकी पार्टी के हाथ में रहे। 

निर्वतमान होने के बावजूद मोदी ने मतों को अपनी तरफ खींचने के केंद्र और राज्यों की अपनी सरकार के कामों का जिक्र नहीं किया। मोदी ने यह बताना सही नहीं समझा कि लोगों की बेहतरी के लिए उनकी सरकारों ने क्या किया,  उनकी आजीविका की चिंताओं पर क्या काम किया गया, महामारी के दौरान स्वास्थ्य और आर्थिक स्तर पर मतदाताओं के लिए क्या किया गया!

इसके बजाए मोदी ने 2017 के पहले के राज्य की तस्वीर स्याह बताने की कोशिश की और कहा कि अगर लोगों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया, तो प्रदेश को वापस उन काले दिनों में लौटना पड़ेगा, जब कानून के शासन को ताकतवर सामाजिक समूह दंगाइयों के साथ मिलकर दबा देते थे। 

मोदी ने दावा किया कि 2017 के पहले "व्यापारियों को लूटा जाता था, बेटियों को घर से बाहर निकलने में डर लगता था और माफिया डॉन अपने गुर्गों के साथ मिलकर लोगों को आतंकित करते थे।"

उन्होंने कहा, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग उन दिनों को कभी नहीं भूल सकते, जब यह इलाका दंगों में जल रहा था और सरकार दूसरे उत्सवों को मनाने में लगी थी। पांच साल पहले समाजवाद के नाम पर गरीब़, दलित, वंचित तबकों और पिछड़ों के घरों और दुकानों पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लिया जाता था।"

इन दावों के साथ मोदी को संतोष नहीं था, जो उन्होंने शब्दों और मुहावरों के ज़रिए लोगों में जुनून को बढ़ाने और इस इलाके में अच्छी खासी तादाद में रहने वाले मुस्लिमों के खिलाफ़ पूर्वाग्रहों को मजबूत करने की कोशिश की। पलायन, अपहरण, फिरौती, वसूली ऐसे कुछ शब्द थे, जिनके ज़रिए बीजेपी के उस पुराने अभियान को दोबारा खड़े करने की कोशिश की गई, जिसमें पार्टी आरोप लगाते हुए कहती थी कि समाजवादी पार्टी में यादवों और मुस्लिम वर्ग का गिरोह है, जो सरकारी प्रोत्साहन के बीच कानून-व्यवस्था को भंग करते रहे हैं। 

अगर इन दावों में कुछ सच है, तो यह भी सच है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश एक पुलिस राज्य में तब्दील हो गया है। प्रभार ग्रहण करने के बाद योगी ने एंटी-रोमियो दस्ते का गठन किया था, जबकि अभी उत्तर प्रदेश पुलिस की "ठोक दो" नीति जारी है, जिनके तहत सुरक्षाबलों ने अल्पसंख्यक विरोधी रवैये का प्रदर्शन किया और बीजेपी द्वारा फैलाई गई इस धारणा कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था के बिगड़ने के लिए मूलत: मुस्लिम ज़िम्मेदार हैं, उसे हवा दी। लेकिन आधिकारिक दावों के फौरी परीक्षण से भी कानून-व्यवस्था में सुधार के बीजेपी के दावे की हवा निकल जाती है। 

इस तरह का डर दिखाकर बीजेपी जाटों-पिछड़ों और मुस्लिमों को एक साथ आने से रोकना चाहती है, क्योंकि इस सामाजिक प्रक्रिया से बीजेपी बहुत चिंता में है।

यह पहली बार नहीं है जब मोदी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले चुनावी कार्यक्रम को हवा दी है। 2017 में उनके द्वारा कब्रिस्तान-शमशान की कुख्यात टिप्पणी की गई थी, जो अब भी कानों में गूंजती है और जिससे दूसरे पार्टी नेताओं को भी ऐसा करने की सीख मिली। बल्कि इस तरीके की शुरुआत गुजरात में 2002 में हुई थी और अब भी मोदी का यह मुख्य हथियार बना हुआ है। जबसे बीजेपी नेताओं ने अपना चुनावी अभियान शुरू किया है, तबसे गृहमंत्री अमित शाह और आदित्यनाथ मुस्लिमों के खिलाफ़ कट्टर टिप्पणियां करते जा रहे हैं। जहां अमित शाह ने शुक्रवार की नमाज़ का मजाक बनाया और कहा कि इससे लोगों की जिंदगी और काम-धंधा बाधित होता है, जबकि योगी आदित्यनाथ ने जिन्ना, 80-20 की लड़ाई जैसे मुहावरों और शब्दों का खूब इस्तेमाल किया। योगी ने तो यहां तक कहा कि वे गर्व के साथ राजपूत हैं। पाठकों को पता होगा कि यह नेता अपने प्राथमिक मुद्दों पर केंद्रित रहे हैं, बीच-बीच में यह अपनी "उपलब्धियों" और वायदों का भी जिक्र करते रहते हैं, क्योंकि उनके भाषण कई मीडिया मंचों से प्रसारित होते हैं।

सभी बीजेपी नेता, सर्वोच्च तीन प्रचारकों से लेकर मैदानी कार्यकर्ता तक पार्टी की मुस्लिम विरोधी धारणा का प्रदर्शन करते हैं और चुनाव में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी को अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने वाली पार्टी बताते हैं। उनका दावा है कि बीजेपी को दिया गया वोट यह तय करेगा कि मुस्लिम फिर से मजबूत ना हो पाएं। साथ ही पार्टी के मुख्य प्रचारक सरकार द्वारा हिंदू सम्मान को फिर से स्थापित करने का भी जिक्र करते हैं। इसके लिए अयोध्या से वाराणासी और मथुरा तक के राजनीतिक मुद्दों पर "प्रगति" और तीन तलाक विधेयक, नागरिकता कानून संशोधन, अनुच्छेद 370, लव जिहाद और ऐसी ही चीजों का हवाला दिया जाता है। 

जबसे आज़ादी के आंदोलन में अपनी भूमिका के चलते कांग्रेस को प्रशासन के लिए स्वाभाविक पार्टी माना जाता रहा है, तबसे अलग-अलग चुनावी फ़ैसले, पहले राज्यों में फिर केंद्र में, अलग-अलग वायदों या वैकल्पिक राजनीति, या फिर प्रदर्शन पर सरकारों को नकारे जाने या चीजों को "सही" करने के प्रतिस्पर्धी के दावों पर यकीन करने का नतीज़ा रहे हैं। 

चुनावी नतीज़े प्रमुख तौर पर गुस्से/अविश्वास/घृणा या किसी नेता/वायदे/राजनीतिक विचार के लिए जुनून पर आधारित रहे हैं। अगर 1971 का चुनाव इंदिरा गांधी की गरीबी हटाओ योजना के बारे में था, तो 1977 आपातकाल में हुए अत्याचारों को जनता द्वारा नकारे जाने के बारे में रहा। 

इसी तरह 1980 का चुनाव जनता पार्टी को खारिज करने और इंदिरा गांधी द्वारा यह दावा करने- "ऐसी सरकार चुनें, जो काम करती है, के नारे के बारे में रहा। हालिया दौरा में 2014 का चुनावी नतीज़ा, यूपीए को खारिज करने और मोदी के वायदों के बारे में रहा। 2019 में मोदी सरकार सामाजिक कल्याण योजनाओं के साथ-साथ अति-राष्ट्रवादी चुनावी भाव पर वापस आई। सभी जानते हैं कि बीजेपी के घरेलू बहुसंख्यकवादी एजेंडे के साथ-साथ बहुत बड़ी मात्रा में तोड़ी-मरोड़ी गई देशभक्ति की भावना फैलाने वाली ज़मीन तैयार की गई थी।

1970 के बाद से चुनाव और राजनीतिक घटनाक्रम अकसर जनता के गुस्से की गवाही बनते रहे हैं। चाहे जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की बात हो या "इंडिया अगेंस्ट करप्शन" आंदोलन की। 2014 के बाद से बीजेपी जनता के गुस्से को काल्पनिक "दूसरे लोगों" की तरफ मोड़ने की कोशिश करती रही है, जो सभी तरह की खराब़ स्थितियों के लिए "जिम्मेदार" हैं। इसके ज़रिए बीजेपी की कोशिश रही है कि किसी तरह सरकार की असफलता लोगों की नाराज़गी का कारण ना बनने पाए। 

इस बार के विधानसभा चुनाव आर्थिक हालात खस्ता होने के बाद पहले चुनाव हैं। भारत के आर्थिक हालात महामारी के चलते और भी ज़्यादा बदतर हो गए और लोगों की आर्थिक मुश्किलें अभूतपूर्व तरीके से बढ़ गई हैं। ऊपर से कोरोना महामारी को प्रबंधित करने में सरकार की नाकामी ऐसा तत्व हो सकती है, जिसे लोग अपना चुनावी विकल्प चुनने में ध्यान में रख सकते हैं।

उत्तर प्रदेश के अलावा दूसरे राज्यों में एंटी-इंकम्बेंसी भावनाओं से परिचित होने के चलते बीजेपी अपने "मूल मुद्दों" पर वापस लौट चुकी है, ताकि युवाओं और दूसरे लोगों की नाराज़गी को प्रबंधित किया जा सके। शताब्दियों से उपयोग की जाती रही फूट डालो और शासन करो की नीति में बीजेपी ने अल्पसंख्यकों से नफ़रत और उन पर संदेह को राज्य नीति बना लिया है। इसी बुनियाद पर पार्टी उत्तर प्रदेश और दूसरी जगह अपना चुनाव अभियान केंद्रित कर रही है।

कुछ लोग खुद को मूर्ख बनाने हुए मानते हैं कि मोदी और बीजेपी सिर्फ़ ठेठ हिंदुत्ववादी नहीं हैं, उन्हें साथ लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी कभी कभी ध्यान भटकाने वाले दूसरे मुद्दे उठाते रहते हैं, जैसे इस साल के बजट की व्याख्या करने वाला भाषण। खैर इस भाषण पर कभी और चर्चा होगी।

लेखक एनसीआर में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं। उनकी हालिया किताब "द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकन्फिगर इंडिया" है। उनकी अन्य किताबों में "आरएसएस: द आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट" और "नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स" हैं। उनका ट्विटर हैंडिल @NilanjanUdwin है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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