यूपी चुनाव : गांवों के प्रवासी मज़दूरों की आत्महत्या की कहानी
बांदा (उत्तर प्रदेश): रज्जू के लिए उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के बिसंडा ब्लॉक में अपने पैतृक गांव तेंदुरा से 1,100 किमी से अधिक दूर रहने की तुलना में घर वापस जाना अधिक कठिन और दुखदाई था। बटुए में एक पैसा भी नहीं होने की वजह से, वह अपने पांच सदस्यों के परिवार को खिलाने, आपात स्थिति में अपने बुजुर्ग माता-पिता की चिकित्सा का खर्च वहन करने और अपनी पत्नी के साथ कुछ अच्छा समय बिताने में असमर्थ था। रज्जु ने एक साल से कुछ समय पहले ही शादी की थी।
हालात से हारकर 26 वर्षीय रज्जु ने अपने कीमती जीवन की जगह मौत को अधिक प्राथमिकता दी। अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय में 14-दिन के क्वारंटाइन से बाहर निकलने के कुछ ही दिनों बाद, उसने 18 जून, 2021 को छत से लटककर आत्महत्या कर ली थी।
युवक गुजरात के सूरत में ड्राइवर का काम करता था। जब देश भर में कोविड-19 के सबसे घातक प्रसार के मद्देनजर अप्रैल 2021 में दूसरा लॉकडाउन घोषित किया गया तो रज्जू ने भी करोड़ों अनौपचारिक श्रमिकों की तरह अपनी नौकरी खो दी थी, जो मज़दूर मुख्य रूप से दैनिक दिहाड़ी पर अपना जीवन गुजर-बसर करते थे।
इस बात का इंतजार करते हुए कि लॉकडाउन जल्द ही हटा लिया जाएगा, वे अपने मालिक द्वारा उपलब्ध कराए गए के मकान में लगभग एक महीने तक रहे। लेकिन जब लॉकडाउन नहीं खुला तो मालिक ने जगह खाली कर घर वापस जाने को कह दिया था।
एक महीने में कोई आय नहीं होने की वजह से उनकी छोटी सी बचत पहले ही समाप्त हो चुकी थी। इस कारण वह अपने गांव के घर चला गया था। अपने जीवन की सबसे कठिन यात्रा के दौरान, वह पैदल चला, कुछ दूर वाहनों में लिफ्ट ली और फिर बिना पैसे, भोजन और पानी के फिर से पैदल चल दिया और चलता गया। रज्जु को अपनी मंजिल तक पहुंचने में 13 दिन लगे।
श्रम और रोजगार मंत्रालय के अनुसार, कोविड-19 महामारी के बाद हुए लॉकडाउन के दौरान पैदल चलकर घर जाने वालों सहित 1.06 करोड़ से अधिक प्रवासी श्रमिक अपने गृह राज्यों में लौट गए थे।
क्वारंटाइन समाप्त होने के बाद, वह अपने घर में चला गया, जहाँ उसने अपने परिवार को बेहद दयनीय स्थिति में पाया। घर में खाने के लिए कुछ नहीं था क्योंकि परिवार के पास उत्तर प्रदेश सरकार की मुफ्त राशन योजना के तहत परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए पांच किलो गेहूं, चावल और एक किलो रिफाइंड तेल और नमक पाने के लिए राशन कार्ड भी नहीं था।
उनका दो कमरे का घर मिट्टी की मोटी ढकी परत और कच्ची ईंटों से बना था। एक कमरे में पुआल या नरकट से बनी छत है, जबकि दूसरे में एक नवनिर्मित कंक्रीट की छत है। आवासीय परिसर में दो निर्माणाधीन कमरे भी हैं, जिन्हें परिवार ने गरीबों और दलितों के लिए बनी आवास योजना के तहत सरकार से 1.2 लाख रुपये लेकर बनवाया था।
रज्जू के माता-पिता बीमार थे और उन्हें इलाज़ की जरूरत थी। घर की दयनीय आर्थिक स्थिति ने उन्हें बेहद परेशान कर दिया था। उसने अपने करीबी लोगों से कुछ पैसे उधार लेने की कोशिश की। लेकिन सभी ने मदद के लिए हाथ बढ़ाने से इनकार कर दिया क्योंकि सख्त लॉकडाउन के दौरान व्यावसायिक गतिविधियोंयां पूर्ण रूप से बंद हो गई थी और इस कारण सभी के पास पैसे की कमी थी।
पैसे का इंतजाम न कर पाने की स्थिति में उसने अपना जीवन समाप्त करने का फैसला किया। इस कदम को उठाने से कुछ घंटे पहले, उन्होंने एक गाँव के अपने साथी से कहा था कि यदि मैं अपने माता-पिता के चिकित्सा खर्च को वहन नहीं कर सकता और उनके लिए भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकता तो मेरा "जीवन व्यर्थ है।"
शाम के करीब छह बज रहे थे; घर में कोई नहीं था। लाठी के सहारे चलने वाली उसकी मां शौचालय के लिए बाहर गई हुई थी। उसकी पत्नी अपने माता-पिता के घर पर थी और उसके पिता और छोटा भाई भी किसी काम से बाहर गए हुए थे। उसने कंक्रीट की छत से बने कमरे में कदम रखा और कपड़े के फंदे से खुद को फांसी लगा ली थी।
रज्जू अपने चार भाइयों में तीसरे नंबर पर था। उनके दो बड़े भाई हरियाणा में एक ईंट भट्ठे में काम करते हैं, जहां वे अपने परिवार के साथ रहते हैं। छोटा भी एक दिहाड़ी मजदूर है जिसे महीने में मुश्किल से दस दिन का काम मिलता है और अधिकतम 300 रुपये प्रतिदिन की कमाई होती है।
उनके परिवार में किसी के पास भी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 (मनरेगा) के तहत जारी जॉब कार्ड भी नहीं है। यहां तक कि अगर उनके पास कार्ड भी होता, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सैकड़ों और हजारों कार्डधारकों के पास राज्य के भीतरी इलाकों में काम की पहुंच नहीं है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत दिए जाने वाले मुफ्त राशन की आपूर्ति के लिए परिवार के पास अभी भी राशन कार्ड नहीं है।
इस घटना के सुर्खियों में आने के बाद, उसके माता-पिता को एक राशन कार्ड जारी किया गया था, लेकिन परिवार के बाकी लोग अभी भी इस योजना से बाहर हैं क्योंकि वे प्रवासी मजदूर हैं और गाँव में नहीं रहते हैं।
रज्जू के पिता महेश्वर वर्मा ने आरोप लगाया कि त्रासद मौत के बाद भी परिवार को सरकार से कोई मदद नहीं मिली है। 55 वर्षीय कमजोर व्यक्ति ने निराशा से भरे चेहरे के साथ न्यूज़क्लिक को बताया कि “किसी भी मुआवजे या वित्तीय मदद के बारे में भूल जाओ, मेरे बेटे को 1,000 रुपये भी नहीं मिले – जिसे राज्य सरकार ने हर उस प्रवासी मजदूर को देने की घोषणा की थी जो लॉकडाउन के कारण फंस गए थे और अपने गाँव लौटने में कामयाब रहे।”
उसके ऊपर 50,000 रुपये का कर्ज़ था, जिसे उसने अपने लिए और अपनी पत्नी के इलाज़ के लिए आसपास के लोगों से उधार लिया था। घर बनवाने के लिए सरकार से 1.2 लाख रुपये मिलने के बाद, उसने कर्ज़ वापस कर दिया था और बाकी को घर के निर्माण पर खर्च कर दिया था, जिसे पूरा करने के लिए अभी भी अच्छी-ख़ासी रकम की जरूरत है।
"सरकारी अधिकारी अब मेरे ऊपर घर पूरा करने का दबाव बना रहे हैं, ऐसा नहीं करने पर धमकी दी जा रही है कि वे मुझसे भारी जुर्माना वसूल कर लेंगे। जब हम दवा तक नहीं खरीद सकते हैं तो हम सरकार को पैसे कैसे वापस करेंगे? मेरा सबसे छोटा बेटा भी दिहाड़ी मजदूर है। वह रोज बांदा काम खोजने शहर जाता है, लेकिन कोई फायदा नहीं होता है। उसे पिछले 17 दिनों से कोई काम नहीं मिला है।"
जिस दिन न्यूज़क्लिक ने परिवार से मुलाकात की, उसकी पिछली रात घर में चूल्हा नहीं जला था। और यह पहला मौका नहीं है जब ऐसा हुआ था। गरीब और उपेक्षित अनुसूचित जाति के लोग महीनों से परेशान हैं। वे शायद ही कभी दिन में तीन बार भोजन कर पाते हैं।
सरिता जोकि 21 साल की है उसका एक इकलौता बच्चा है जो 2 साल का है। सवाल उठता कि क्या वह एक बेहतर भविष्य को संजोते हुए एक शिक्षित व्यक्ति की तरह से विकसित हो पाएगा? उसे कोई आइडिया नहीं है उसका एकमात्र साथ देने वाला और बच्चे का पिता और जोकि परिवार की आय का एकमात्र स्रोत था अब इस दुनिया में नहीं रहा है।
स्थानीय रूप से कोई काम न मिल पाने की वजह से 26 वर्षीय अजय वर्मा, एक प्रवासी मजदूर, ने 17 अगस्त, 2021 को आत्महत्या कर ली थी।
अजय, पिछले छह वर्षों से गुजरात के वडोदरा के एक कारखाने में सुपरवाईजर के रूप में कार्य कर रहा था। दूसरे लॉकडाउन ने उनकी नौकरी छीन ली क्योंकि प्रतिबंधों के कारण कारखाने ने काम करना बंद कर दिया था। वह भी बिना किसी काम के वहीं रुक गया, इस उम्मीद में कि प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी और काम फिर से शुरू हो जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ।
एक बेरोज़गार प्रवासी मजदूर के रूप में एक महीने के प्रवास के दौरान उनके पास जो भी बचत थी वह भोजन और अन्य जरूरतों पर खर्च हो गया था। कोई विकल्प न होने पर वह लौट गाँव आया। अंतत में अपने गाँव पहुँचने के लिए भी उसे कई दिनों तक पैदल चलना पड़ा था।
वह अगले तीन माह तक बांदा जिले के कमासीन प्रखंड के बाबूपुरवा गांव में घर पर रहा। वह जो पैसा अपने साथ लाया था, उसे एक महीने में परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए खर्च कर दिया था। उन्होंने स्थानीय स्तर पर नौकरी की तलाश शुरू की, लेकिन खोजने में असफल रहे क्योंकि राज्य में तालाबंदी के कारण सब ठप हो गया था। वह बहुत परेशान और निराश था।
लगातार 19 दिनों तक बिना रोजगार के लौटने के बाद उसने खुद को पुआल से बनी घर की छत से लटका लिया था।
"रात के 8 बज रहे थे। पापा (उनके ससुर) खेत में गए हुए थे, और मेरी सास बाहर एक बिस्तर पर आराम कर रही थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें आराम चाहिए और मुझे अपने बेटे को दूसरे कमरे में के जाने के लिए कहा, जो उस समय रो रहा था। मैं मजबूर होकर दूसरे कमरे में चली गई। जब मेरा बच्चा सो गया, तो मैं उसे सांत्वना देने के लिए उसके कमरे में गई और उससे यह कह पाती कि वह बहुत ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है लेकिन मैंने उसे छत से लटका पाया। उसके इस अप्रत्याशित कदम उठाने से मैं अचंभित हूं। मैं चिल्लाई और फिर चुप हो गई। मेरे पास रोने की हिम्मत भी नहीं थी। वह अब नहीं रहा। मेरा एकमात्र सहारा खो गया था। वह बहुत परेशान था, और मैं आने वाले खतरे की भविष्यवाणी नहीं कर सकती थी," उसने न्यूज़क्लिक को बताया, उसकी आवाज़ घुट गई थी और आँसू उसके चेहरे पर अनियंत्रित रूप से लुढ़क रहे थे।
उसे सरकारी अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया था।
उन पर ढाई लाख रुपये का कर्ज था, जिसे उन्होंने दशकों पहले सरकार द्वारा अपने दादा को आवंटित दो एकड़ जमीन पर खेती के लिए उधार लिया था। चूंकि भूमि का भूखंड बंजर है, इसलिए इसमें बहुत अधिक निवेश होता है। उनके पिता जो कुछ भी उगाने में कामयाब रहे, वह मौसम और आवारा मवेशियों ने नष्ट कर दिया था।
इस परिवार के पास भी स्थानीय पीडीएस दुकान से मुफ्त में अनाज लेने के लिए कोई राशन कार्ड नहीं है.
अजय तीन भाइयों में सबसे बड़ा था। बाकी दो भी प्रवासी मजदूर हैं। "हमारा बेटा बहुत छोटा है। उसका पूरा भविष्य आगे पड़ा है। मैं उसे एक अच्छी शिक्षा कैसे दे पाऊंगी? मैं नहीं चाहती हूं कि वह अशिक्षित रहे और मजदूर के रूप में काम करे। मैं उसे एक बेहतर भविष्य देना चाहता हूं। मैंने इंटरमीडिया (विज्ञान) में पास किया है, मैं सरकार से मेरी शिक्षा के अनुसार मुझे कुछ रोजगार नौकरी देने का अनुरोध करती हूं ताकि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकूं।"
परिवार घोर गरीबी में जी रहा है। उसने कहा कि, राज्य सरकार की आवास योजना के तहत पक्के मकान के लिए आवेदन करने के बावजूद मृतक पिता जगन्नाथ वर्मा को अब तक कर्ज़ नहीं मिला है। "ब्लॉक और तहसील के अधिकारी मेरे आवेदन को मंजूरी देने के लिए रिश्वत मांगते हैं। मैं उन्हें पैसे कहां से दूंगी?"
यूपी के विशाल अंदुरुनी इलाकों की एक झलक
बांदा स्थित मानवाधिकार वकालत समूह विद्या धाम समिति द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, 4 जून, 2020 से 27 नवंबर, 2020 तक 48 प्रवासी मजदूरों की मृत्यु हुई है। एनजीओ का दावा है कि उसने सभी 48 परिवारों का दौरा करने के बाद ही सूची तैयार की है।
सर्वेक्षण से पता चलता है कि उनमें से ज्यादातर कर्जदार थे और उनके पास राशन और मनरेगा के जॉब कार्ड नहीं थे।
भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां लॉकडाउन के कारण अधिक लोगों की मौत हुई है - आत्महत्या, पुलिस की बर्बरता, भूख, थकावट से होने वाली मौतों की संख्या कोविड-19 के कारण होने वाली मौतों की संख्या से अधिक है।
मार्च 2020 में देश में पहली महामारी आने पर उत्तर प्रदेश काफी हद तक अप्रभावित था, लेकिन दूसरी लहर, भारत के सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य में और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से दूसरे सबसे गरीब राज्य में विशेष रूप से घातक रही थी।
विशेष तौर पर सुलभ प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की अनुपस्थिति के कारण, बीमारी और मृत्यु ने को निश्चित तौर बढ़ा दिया था, जो कि महामारी के दौरान विशेष रूप से स्पष्ट हुआ है। 15.50 करोड़ ग्रामीण आबादी के दशकों के सामाजिक और प्रणालीगत पिछड़ेपन ने इसे कई बीमारियों की चपेट में ले लिया था।
5 फरवरी, 2022 तक, भारत में 5,01,114 लोगों की मौत हुई थी, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि यह संख्या कम है - वास्तविक मृत्यु शायद 10 लाख के करीब है।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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