Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

लखनऊ: सिर्फ़ भाषण से ठंड नहीं भागती सरकार!, इस ठंड में भी झोपड़ी में रहने को मजबूर ग़रीब, कब मिलेंगे पक्के घर

मंसूरा कहती हैं, "हर गरीब को पक्की छत मिलेगी, योगी सरकार तो यही कहती है पर मिले तब जानें। इस साल भी कच्चे घर में ही ठंड बीत रही है और न जाने कितनी ठंडी, गर्मी और बरसात इसी मड़ईया में बीते।"
lucknow

और दिसंबर भी बीत गया.... 2023 की जनवरी हाड़-माँस गलाने को आतुर है। कड़ाके की ठंड, रातों को गिरती शीत, सर्द हवाएं और कोहरे की चादर का प्रकोप जारी है। इस ठंड का कहर आख़िर कैसे झेलेगी गरीब की झोपड़ी? हकीकत से रूबरू कराते ये कुछ सवाल गरीब की परेशानी का सबब बन रहे हैं। इंसान तो छोड़ो, जानवर तक इस ज़ुल्मी जनवरी के चपेट में आकर दम तोड़ रहे हैं। ऐसी मौसमी मार से बचाने के लिए ही प्रदेश सरकार ने हर गरीब परिवार को एक पक्की छत देने का वादा किया था। वादा तो यह भी था कि 2022 की सर्दियों से पहले गरीब की झोपड़ी पक्के घर में बदल जायेगी। ये वादा किस हद तक पूरा हो पाया इसकी पड़ताल करने जब रिपोर्टर लखनऊ से चंद किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्र के कुछ गाँवों में पहुँची तो तस्वीर कुछ और ही नज़र आई और उस आँखों देखी तस्वीर से यह बात समझ में आई कि महज़ वादों पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं किया जा सकता। ज़मीनी स्तर पर योजनाएँ किस हद तक पूरी हो रही हैं इस सच्चाई से रूबरू होने के लिए गरीब बस्तियों की ओर रुख करना ज़रूरी है।

सबसे पहले हम पहुंचे अस्ती गाँव, जो बक्शी का तालाब (बीकेटी) में स्थित है। इस गाँव में मुख्यतः पासी, बहेलिया (चिड़ी मार), गौतम आदि दलित समुदाय के लोग रहते हैं। कुछ मुस्लिम परिवार भी हैं। गाँव के अंदर घुसते ही हमें अपनी झोपड़ी के पास बैठी एक बेहद बुज़ुर्ग महिला नज़र आईं। उनका कच्चा और बदहाल घर देखकर, उनसे बात करने के लिए अभी हमारे कदम उनकी तरफ बढ़े ही थे कि हमें आते देख वह रोने लगीं। वह इतना रो रही थीं कि कुछ कहने और बताने की स्थिति में नहीं थीं। किसी तरह उन्हें चुप कराया गया और रोने का कारण पूछा। वे 80 साल की मधुरई थी। सचमुच उनके बताये कारण ने हमें बेहद भावुक कर दिया। पुआल से बनी अपनी जर्जर झोपड़ी की ओर देखते हुए वे कहती हैं, "इसी छोटी सी कच्ची झोपड़ी में सर्दी, गर्मी, बरसात बीत रही है। बारिश में छत टपकती है तो ठंड में ओस गिरती है पर क्या करें, कहां जाएं?" इतना बताते ही मधुरई फिर रोने लगीं। रोते-रोते ही वे कहती हैं कि सुन रहे थे कि सरकार हर गरीब को पक्का घर दे रही है फिर उन्हें क्यों नहीं मिल रहा वे भी तो बेहद गरीब हैं।

मधुरई कहती हैं, "न पक्की छत मिली न शौचालय मिला और ना ही कभी उन्हें ठंड में मिलने वाला कंबल मिला, हाँ उज्जवला के तहत गैस चूल्हा तो ज़रूर मिल गया लेकिन इस महँगाई में गरीब आख़िर सिलेंडर कैसे भरवाए!" ये सब बात करते-करते वे लगातार रोये जा रही थीं। सचमुच उनके ये आँसू हमारे लिए बेहद पीड़ादायक हो गए थे। अब उनसे कुछ पूछने की हिम्मत भी हमारा जवाब दे रही थी। इसी बीच गाँव की कुछ अन्य महिलाएं भी पहुँच गईं जिन्होंने बताया कि कई कोशिशों के बावजूद उन्हें भी अभी तक पक्की छत नहीं मिल पाई है। ये महिलाएं भी दलित समुदाय से ही थीं। इन्ही में से एक थीं सरला।

सरला कहती हैं, "जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, पक्की छत की उम्मीद भी मरती जा रही है।" सरला का परिवार भी बेहद गरीबी में दिन काट रहा है। पति सोहनलाल ताँगा चलाते हैं और बेटे गरीबी के कारण पढ़ाई छोड़ मज़दूरी करने लगे हैं। दो बेटियों की शादी हो चुकी है जबकि एक बेटी दिमागी रूप से कमज़ोर होने के कारण घर पर ही रहती है। वह कहती हैं कि वर्षों से उनके पति ताँगा चलाने का काम करते हैं इसलिए दूसरा काम करने में सक्षम भी नहीं हैं लेकिन अब ताँगे में कमाई कहाँ उससे ज़्यादा तो घोड़े की देखरेख में लग जाता है। सरला गुस्से भरे स्वर में कहती है, "हम गरीबों के नाम से आने वाली सरकारी योजनाएँ आखिर हम तक कैसे पहुँचेंगी जब बिचौलिया तंत्र उसे हड़प जा रहा है और इस पर कोई देखने-सुनने वाला नहीं।"

सरला से बात हो ही रही थी कि उनके पति सोहनलाल भी ताँगा लेकर घर आ गए। आधे दिन की मेहनत-मशक्कत के बाद भी कामभर कमाई न होने का दर्द उनके चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था। सोहनलाल अपनी पीड़ा दर्शाते हुए कहते हैं कि इतनी कमाई नहीं कि पक्का घर बना सकूँ। तांगे में अब कौन बैठना चाहता है इसलिए सवारी के बदले अब माल ढोने का काम कर रहे हैं लेकिन फिर भी कमाई नही हो पाती। वे कहते हैं, "जब से प्रदेश में योगी जी की सरकार बनी है तब से वे कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों को पक्की छत देने का काम कर रही है और उनके प्रदेश में अब किसी भी गरीब के सर पर कच्ची छत नहीं रहेगी लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा। सोहनलाल कहते हैं, "उनके गाँव और उसके आस-पास आज भी न जाने कितने ऐसे गरीब परिवार हैं जो सर्दी-गर्मी और बरसात को झेलते हुए कच्चे घर में रहने को मजबूर हैं।

सरला के घर के बगल में ही मधु का भी घर था। वे अपने दो छोटे बच्चों के साथ हमसे मिलने पहुँची और हमसे उनका भी घर देखने की बात कहने लगी। घर क्या था किसी तरह से गुजर-बसर हो रही थी बस। उस छोटे से तंगहाल कमरे में मधु अपने पति और दो छोटे बच्चों के साथ रहती हैं। मधु का पति मज़दूरी करता है जबकि जीविका चलाने के लिए वह भी कपड़ों में चिकनकारी का काम करती हैं। मधु कहती हैं, "इस महंगाई में केवल पति की कमाई से क्या होगा इसलिए थोड़ा बहुत कढ़ाई का काम कर लेती हूँ। ज़्यादा तो नहीं हाँ महीने में 400-500 की कमाई हो जाती है बस।" घर का हाल दिखाते हुए वह कहती है, "कम से कम यही अगर पक्का बन जाता तो गरीबी के कुछ दिन तो चैन से कट जाते लेकिन कई कोशिशों के बाद भी अभी तक पक्की छत नसीब नहीं हुई।" रुआँसी होकर वह कहती हैं, "हम गरीब आख़िर किस अधिकारी के पास जाएं, अपने गाँव के प्रधान से कहते हैं तो जवाब मिलता है 'समय आने दो सब हो जायेगा', अब आख़िर समय कब आयेगा जब इस कच्चे घर में शीत लहरें हमारी जान ले लेंगी!"

सच ही कहा मधु ने कि आखिर समय कब आएगा जब ये भीषण ठंड जान ले लेगी। खैर अब हम पहुंचे बाना गाँव जहां हमारी मुलाकात मंसूरा देवी से हुई। मंसूरा का कोई नहीं, सालों पहले पति की मृत्यु हो गई थी। बच्चे भी नहीं हैं। वे सरकारी राशन और थोड़ी-बहुत मज़दूरी कर अपना गुजर-बसर कर लेती हैं। रहने के लिए पुआल और तिरपाल की एक     छोटी-सी झोपड़ी डाली हुई है। मंसूरा कहती है, "ज़िंदगी बस इसी मड़ईया (झोपड़ी) में बीत रही है। कच्चा घर है, अकेली रहती हूँ तो हमेशा एक डर भी बना रहता है, पक्के घर में सुरक्षा भी रहती है लेकिन मिले तब तो।" हमसे बात करते-करते मंसूरा चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियाँ चुनने लगी। वह कहती है, "हर गरीब को पक्की छत मिलेगी, योगी सरकार तो यही कहती है पर मिले तब जाने। इस साल भी कच्चे घर में ही ठंड बीत रही है और न जाने कितनी ठंडी, गर्मी, बरसात इसी मड़ईया में बीते।" इसके बाद ठंडी सांस भरते हुए मंसूरा खाना बनाने के लिए चूल्हा जलाने की तैयारी में जुट गई।

मंसूरा के गाँव से निकलकर हम बाराखेमपुर गाँव पहुंचे। इस गाँव में सावित्री से मिलना हुआ। सावित्री को जब पता चला कि हम पक्के घर से वंचित गरीबों पर स्टोरी करने आए हैं तो उन्होंने अपने घर के हालात को बताते हुए उसे देख लेने की गुज़ारिश की। उनके घर की भी वही कहानी थी जो दूसरी जगहों पर देखने को मिला। टीन की छत, पुआल की झोपड़ी, बाहर खुले में एक छोटी सी रसोई। उस छोटे से कच्चे घर में सावित्री और उसके 6 लोगों का परिवार रहता है यानी कुल सात लोग।

सावित्री कहती हैं कि लंबे समय से वे भी मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत पक्के घर का इतज़ार कर रही हैं लेकिन कब योजना आती है चली जाती है पता ही चलता, फॉर्म भी भरे पर कोई लाभ नहीं मिला। सावित्री के पति की 6 साल पहले मौत हो गई। बेटे हैं जो मज़दूरी करते हैं। अन्य लोगों की तरह सावित्री भी कहती हैं कि अब लगता है पक्के घर की चाहत केवल एक सपना भर ही रह जाएगी।

सच ही तो है, पक्की छत की चाहत केवल सपना बनकर रह जाएगी क्योंकि जो गरीब आज भी पक्के घर से वंचित है, ऐसा नहीं कि उन्होंनें उसे पाने के लिए संघर्ष नहीं किया लेकिन ना तो उनको कोई सुनने वाला है और ना ही उनकी बेबसी को कोई समझने वाला। और यहाँ ठंड के हालात ये हैं कि राजधानी लखनऊ में सर्दी ने पिछले 12 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। वर्ष 2011 में 6 डिग्री सेल्सियस न्यूनतम तापमान देखा गया था और वर्ष 2023 में भी न्यूनतम तापमान 6 डिग्री सेल्सियस के नीचे जा रहा है। लखनऊ मौसम विभाग ने लखनऊ के लिए, आने वाले 48 घंटे बेहद अहम बताए हैं क्योंकि इन घंटों के दौरान शीतलहर और घना कोहरा छाया रहेगा, अब ऐसे में गरीब की झोपड़ी इस खौफ़नाक और बेदर्द ठंड का मुकाबला भला कैसे कर सकेगी।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest