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यूपी शहरी निकाय चुनाव: छोटे शहरों में डगमगाई बीजेपी

नगर पालिका परिषद के 59% सदस्य और नगर पंचायत के 67% सदस्य निर्दलीय हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

उत्तर प्रदेश (यूपी) में हाल में शहरी स्थानीय निकाय चुनाव 4 और 11 मई, 2023 को हुए थे, और परिणाम 13 मई को घोषित किए गए। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलकों ने मेयर के सभी 17 पदों पर जीत हासिल करने के लिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की प्रशंसा की। हालांकि, विस्तृत परिणाम का विश्लेषण जो अब राज्य चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध है वह एक अलग तस्वीर पेश करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि महापौर के चुनावों में भाजपा का दबदबा है, लेकिन जैसे-जैसे आप पदानुक्रम में नीचे जाते हैं, यह स्पष्ट रूप से अन्य दलों और विशेष रूप से निर्दलीय उम्मीदवारों के प्रति झुकता हुआ जाता है।

यूपी की लगभग 20% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है और लगभग 1.92 करोड़ मतदाता इस दौर के चुनावों में मतदान करने के पात्र थे, जिनमें से लगभग 53% ने मतदान किया। शहरी क्षेत्र शहरी स्थानीय निकायों की त्रिस्तरीय संरचना द्वारा शासित होते हैं। कुल मिलाकर, 17 नगर निगमों, 199 नगर पालिका परिषदों और 544 नगर पंचायतों से बने 740 शहरी स्थानीय निकाय हैं। निगमों का नेतृत्व सीधे निर्वाचित महापौर द्वारा किया जाता है, जबकि अन्य दो प्रकार के निकायों का नेतृत्व सीधे निर्वाचित अध्यक्षों द्वारा किया जाता है। हर पांच साल में चुनाव होते हैं।

परिणाम बताते हैं कि राज्य के शहरी क्षेत्रों में भाजपा का बहुप्रतीक्षित प्रभुत्व कमजोर नींव पर बना है। यह बड़े प्रत्यक्ष चुनाव (जैसे महापौर और अध्यक्ष) जीतने में सक्षम है, लेकिन वार्ड स्तर पर, यह स्थिति तेजी से घट जाती है। आइए विस्तृत परिणामों को देखें।

नगर निगम

हालांकि इसने सभी 17 महापौर प्रतियोगिताओं में जीत हासिल की, इन 17 निगमों को बनाने वाले 1,420 वार्डों में भाजपा का प्रदर्शन स्पष्ट रूप से कम प्रभावशाली था, जिसमें लखनऊ, कानपुर, प्रयागराज/इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, सहारनपुर, गाजियाबाद जैसे प्रमुख शहर शामिल हैं। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, बीजेपी ने चुने गए 1,420 नगर पार्षदों में से 57% जीत हासिल की, जबकि 28% विपक्षी दलों, जैसे कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस, आदि ने जीते। निर्दलियों ने 15% पार्षदों की सीटें जीतीं।

निगम पार्षदों की कुल 1,420 सीटों में से, भाजपा ने 813, विपक्षी दलों ने 401 और निर्दलीय ने 206 जीतीं। महापौर के पद पर रहने से प्रमुख कार्यकारी शक्ति मिलती है, लेकिन वार्ड-वार परिणाम बताते हैं कि राजनीतिक प्रभाव जमीनी स्तर पर इतना हावी नहीं है।

नगर पालिका परिषद : भाजपा के केवल 26% सदस्‍य जीते

शहरी स्थानीय निकाय पदानुक्रम के इस दूसरे स्तर में, नगर निगमों में जमीनी स्तर पर डगमगाते समर्थन का संकेत और भी स्पष्ट हो जाता है। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, भाजपा ने 45% अध्यक्ष पद जीते लेकिन वह 5,327 पार्षदों में से केवल 26% ही जीत सकी। विपक्षी दलों ने 35% अध्यक्षों के पद जीते लेकिन पार्षदों के केवल 16%। हालांकि, 59% निर्दलीय पार्षद जीते और केवल 21% अध्यक्ष पद पर विजय प्राप्‍त कर सके।

सभी 5,327 सदस्यों में से (199 एनपी परिषदों में) बीजेपी ने 1,360, विपक्षी दलों ने 837 और निर्दलीय ने 3,130 सीटों पर जीत हासिल की।

मध्यम स्तर के शहरी क्षेत्रों/कस्बों के लिए ये परिणाम यह दिखाते हैं कि अधिकांश राजनीतिक दलों को कम या अधिक मात्रा से अस्वीकार कर दिया गया है। निर्दलीय जिनका आम लोगों से बेहतर जुड़ाव है उनको प्राथमिकता दी जा रही है। इसकी पुष्टि तब और हो जाती है जब हम सबसे निचले स्तर की नगर पंचायतों के परिणामों को देखते हैं।

नगर पंचायत : भाजपा के सिर्फ 20 % सदस्‍य जीते

यूपी में 544 नगर पंचायतें हैं, जिनमें से प्रत्येक में सीधे निर्वाचित अध्यक्ष के अलावा 7,177 निर्वाचित सदस्य हैं। चुनाव परिणामों से संकेत मिलता है कि बीजेपी ने 35% अध्यक्ष पदों पर जीत हासिल की, जबकि विपक्षी दलों ने मिलकर इन पदों में से 29% प्राप्‍त करने में कामयाबी हासिल की। लेकिन शेष 36% अध्यक्ष पदों पर निर्दलीयों ने जीत हासिल की। नगर पंचायत सदस्यों में, भाजपा केवल 20% सीटें जीत सकी, जबकि विपक्षी दलों ने 13% सीटें जीतीं, लेकिन निर्दलीयों ने 67% सीटों पर कब्जा कर लिया। ( देखें नीचे दिया गया चार्ट)

544 नगर पंचायतों से 7,177 सदस्य चुने गए, जिनमें से बीजेपी ने केवल 1,403, विपक्षी दलों ने 949 और निर्दलीय ने 4,825 जीते।

जाहिर है, नगर पंचायत स्तर पर बीजेपी का दबदबा काफी कम होता जा रहा है। जिन वार्डों से ये नगर पंचायत सदस्य चुने जाते हैं, उनमें कुछ हजार मतदाता छोटे इलाकों में रहते हैं। मतदाता भाजपा उम्मीदवारों से खुश नहीं हैं। यह या तो उन उम्मीदवारों के बहुत प्रभावी या सुलभ नहीं होने के कारण हो सकता है, या यह स्वयं पार्टी के प्रति अधिक सामान्य असंतोष हो सकता है। यानी वस्‍तु स्‍‍थिति किसी भी तरह की हो, इसे भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच खतरे की घंटी की तरह लिया जाना चाहिए।

ये निर्दलीय कौन हैंॽ

कुछ का मानना है कि इनमें से अधिकांश निर्दलीय विजेता उम्मीदवारों का झुकाव भाजपा की ओर है और व्यावहारिक रूप से उन्हें भाजपा के रूप में गिना जाना चाहिए। हालांकि यह संभव है कि उनमें से एक वर्ग भाजपा समर्थक हो, जिन्हें पार्टी से टिकट नहीं मिला और निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन यह ध्यान देने की जरूरत है कि लोगों ने भाजपा के आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ उन्हें वोट दिया है। इसलिए, राजनीतिक जनादेश भाजपा विरोधी था। बेशक, मैदान में कई अन्य राजनीतिक दलों के खिलाफ भी जनादेश था। यह भाजपा के अधिकारियों के लिए चिंता का कारण होना चाहिए क्योंकि शहरी आबादी का बड़ा हिस्सा अपने आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ मतदान करना निश्चित रूप से सत्तारूढ़ पार्टी के साथ असंतोष का संकेत है, वह भी एक 'डबल इंजन' सरकार, जैसा कि सभी ने बार-बार कहा है और इस तरह पीएम मोदी का ग्राफ नीचे की ओर जा रहा है।

जहां तक इन निर्दलीय उम्मीदवारों की भविष्य की गतिविधियों और गठबंधनों का संबंध है, यह आश्चर्य की बात नहीं होगी यदि उनमें से कई या उनमें से अधिकांश प्रत्येक स्तर पर संबंधित स्थानीय निकायों के दैनिक कामकाज में भाजपा का समर्थन करने की ओर मुड़ें। फंड और संरक्षण इन निकायों के कामकाज में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं और हजारों प्रकार के लाभ मिल सकते हैं। हालांकि, यदि शासन अच्छा नहीं है और वादे पूरे नहीं किए जाते हैं, तो यह एक अदूरदर्शी दृष्टिकोण होगा और वर्तमान विजेता इस अवधि से आगे की अवधि के लिए नहीं रह सकते हैं।

भाजपा से नाराज़गी क्‍यों?

जो भी हो, इस व्यापक पैमाने पर भाजपा के आधिकारिक उम्मीदवारों की हार एक बड़े राज्य की अस्वस्थता का संकेत देती है। इसके दो घटक हैं: स्थानीय और वृहत स्तरीय। स्थानीय स्तर पर, 1994 के 74वें संविधान संशोधन में परिकल्पित शहरी स्थानीय निकायों को शक्तियां हस्तांतरित करने और उन्हें मौजूदा कमजोर स्थिति में बनाए रखने में लगातार सरकारों की विफलता, इन स्थानीय निकायों के कामकाज के प्रति असंतोष का मूल कारण है। 2017 में लखनऊ में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी के शासन में यह प्रवृत्ति कमोबेश जारी है।

इस निराशाजनक स्थिति में "डबल इंजन" - योगी और मोदी सरकारों की कई विफलताएं शामिल हैं। ये मूल्य वृद्धि और बेरोजगारी से लेकर किसान समुदाय के बीच असंतोष, बुनियादी शहरी सुविधाओं की कमी और यहां तक कि सामाजिक संघर्ष या कानून और व्यवस्था जैसे मुद्दों तक हैं। हालांकि ये स्थानीय निकायों के दायरे में नहीं हैं, लेकिन ये शहरी मतदाताओं के मन बनाने में मदद करते हैं।

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ, यूपी के शहरी मतदाताओं में असंतोष भाजपा के लिए कुछ चिंता का कारण बन रहा होगा। इससे यह भी संकेत मिलता है कि यदि विपक्ष भाजपा को एक व्यवहार्य चुनौती देना चाहता है तो उसे एकजुट होकर काम करने की जरूरत है।

मूल रुप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

UP Urban Bodies’ Elections: BJP Faltering in Small Towns

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