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कश्मीर को समझना क्या रॉकेट साइंस है ?  

हर कश्मीरी कोशिश करता है कि कश्मीर आने वाला अपने साथ कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों की तस्वीर ही नहीं बल्कि बेहतरीन मेहमान नवाज़ी के तजुर्बे और क़िस्से लेकर लौटे।
kashmir

...'सियासतगर्दी', दहश्तगर्दी ने भले ही कश्मीर का दामन चाक कर दिया हो लेकिन मोहब्बत का धागा थामे यहां के लोग हर ज़ख्म को रफ़ू करने की कोशिश में लगे रहते हैं। सियासत से दूर वादी के लोग आगे बढ़ना चाहते हैं। किसी ना किसी तरह टूरिज़्म से जुड़े यहां के लोगों को कश्मीर आने वाला हर सैलानी बहुत अज़ीज़ होता है। हर कश्मीरी कोशिश करता है कि कश्मीर आने वाला अपने साथ कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों की तस्वीर ही नहीं बल्कि बेहतरीन मेहमान नवाज़ी के तजुर्बे और क़िस्से लेकर लौटे। लेकिन कश्मीर ट्रिप के दौरान कई ऐसे वाक्ये टकराए जो मेहमान नवाज़ी से ज़्यादा ऐसी ज़िम्मेदारी का हिस्सा लग रहे थे जो यहां से लौटने पर ये एहसास कराएं कि कश्मीर सैलानियों के लिए उतना ही महफूज़ है जितनी कोई और टूरिस्ट डेस्टिनेशन।

वादियों की सैर से लौटे हम पहलगाम मार्केट घूमने लगे लेकिन कब ख़ामोशी से शाम चली गई और रात उतर आई हमें एहसास ही नहीं हुआ हम पैदल ही होटल वापस लौटना चाहते थे लेकिन अचानक ही पूरे शहर की लाइट चली गई और रास्ते अंधेरे में डूब गए, चूंकि सड़क पर अंधेरा था तो किसी तरह के हादसे का डर था। ऐसे में मैं और मेरी छोटी बहन कुछ घबरा गए कि रात बढ़ रही है और सर्द मौसम में होटल कैसे पहुंचेगे लेकिन हम दोनों क़रीब ही ड्राई फ्रूट की दुकान वाले हामिद भाई के पास चले गए और कहा कि ''हमें होटल जाना है लेकिन कोई गाड़ी नहीं मिल रही'' तो उन्होंने बहुत ही इत्मिनान से कहा  कि ''तो क्या हुआ अभी इंतज़ाम कर देते हैं'' वो अपनी दुकान छोड़कर सड़क पर आए और राह चलती एक गाड़ी को हाथ दिया गाड़ी रुक गई गाड़ी में 24-25 साल का एक लड़का बैठा था जिससे हामिद भाई ने अपनी ज़बान में बात की और हमें कहा कि ''आप इसमें बैठ जाएं ये होटल पहुंचा देगा''  गाड़ी चलने से पहले हामिद भाई ने उस लड़के का फ़ोन नंबर लिया और उसके हाथ में सौ रुपये पकड़ा दिए मैंने मना किया लेकिन उन्होंने कहा कि ''आप हमारे मेहमान हैं''।   कुछ ही दूरी पर हमारा होटल था लेकिन जैसे ही होटल क़रीब आया होटल के मालिक और मेरे दोस्त मुश्ताक़ पहलगामी भी हमें लेने के लिए निकल पड़े थे उन्हें देखते ही हमने गाड़ी रोकी और उन्हें भी गाड़ी में बैठा लिया गाड़ी वाले ने हमें होटल के गेट पर छोड़ा और कहने लगा ''मैडम आपको मेरी गाड़ी में बैठने में डर क्यों लग रहा था देश में आप कहीं भी डर सकती हैं लेकिन हमारे कश्मीर में, हम कश्मीरियों से डरने की कोई बात नहीं''। हामिद भाई ने दुकान छोड़कर हमें गाड़ी में बिठाया, गाड़ी वाले ने हमारी मजबूरी समझी और होटल के मालिक मुश्ताक़ भाई ने हमारी चिंता की शायद यही कश्मीर है जो मैं किसी किताब से या फिर  किसी और की नज़र से नहीं देख पाती इस कश्मीर और यहां की कश्मीरियत को समझने के लिए आपको ख़ुद आना होगा। 

राह चलते लोग सैलानियों को देखकर वेलकम करने के अंदाज़ में हर कश्मीरी के चेहर पर मुस्कुराहट खिली रही है। नफ़रती माहौल में मुस्कुराना भूल चुके लोगों को कश्मीर में हर तरफ़ नज़रों से खिलखिलाती इनोसेंट स्माइल मिलेगी। मोहब्बत कैसे किसी को अपना बना लेती है ये कश्मीर में हर पग पर देखने को मिलेगा। सफ़र का सिलसिला आगे बढ़ा और हम श्रीनगर के लिए निकल गए रास्ते में आठवीं शताब्दी के शासक ललितादित्य का बनवाया मार्तंड सूर्य मंदिर पड़ा।  ये मटन ( मार्तण्ड ) इलाके में है मंदिर की कारीगरी में कश्मीरी वास्तुशैली साफ़ झलकती है। कुछ चढ़ाई के बाद इस प्राचीन मंदिर में पहुंचा जाता है लेकिन नीचे भी एक मंदिर है और इस मंदिर के साथ ही एक गुरुद्वारा भी है। इस मंदिर में एक ख़ूबसूरत सरोवर भी है जो मचलती मछलियों से भरा हुआ है। मैं इन मछलियों को निहार ही रही थी कि तभी एक महिला खिलखिलाती हुई मंदिर में घुसी और उसने मंदिर के पुजारी को पहले सलाम किया और फिर नमस्ते जवाब में पुजारी ने भी सलाम किया और फिर नमस्ते कहा। क्या ये था कश्मीर?  एक तहज़ीब दूसरी में इतनी घुली-मिली थी कि सलाम-नमस्ते मिलकर जिस अल्हदा एहतराम को समझा रहे थे वो बहुत पाक था। ऐसा नहीं है कि दुआ-सलाम का ये रिवाज कश्मीर में ही है, देश के कई हिस्सों में भी ये रचा-बसा है।  लेकिन पिछले कुछ-एक सालों से ये मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा था लेकिन कश्मीर में ये आज भी चलन में है ये देखकर सुकून मिला। हर क़दम मैं कश्मीर को समझने की जुगत में थी कि तभी मार्तण्ड मंदिर के प्रांगण से गुज़रती नहर में बर्तन और कपड़े धो रही कुछ ख़ूबसूरत औरतों से मुलाक़ात हुई। हमें मछलियों को निहारते देख वो समझ गई थीं कि हम टूरिस्ट हैं, उन्होंने बहुत ही बेसब्री से बात करने के लिए हमें पास बुलाया और हाल-चाल लिया। हमारी पढ़ाई-लिखाई की बारीक जानकारी तो पूछी ही साथ ही दिल्ली का हाल भी पूछा बहुत कम वक़्त लगा उनसे घुलने-मिलने में लगा की पहचान बहुत पुरानी है।  लेकिन हमें आगे बढ़ना था । 8वीं शताब्दी के इस मंदिर में जब हम घुसे थे तो ख़ाली हाथ थे लेकिन जब बाहर निकले तो दिल मोहब्बत और एहतराम से लबरेज़ था। 

घूमने का हासिल अगर ऐसी मोहब्बत हो तो सफर यादगार हो जाता है। जैसे-जैसे दिन गुज़र रहे थे कश्मीर समझ आ रहा था, लोग पहचाने लग रहे थे और जैसे-जैसे पहचान पुरानी हो रही थी रिश्ते में तब्दील हो रही थी और इसी कड़ी में कब हमारा ड्राइवर हमसे भाई की तरह पेश आने लगा हमें इसका एहसास ही नहीं हुआ। गाड़ी से बाहर निकलने पर एक्स्ट्रा केयर के साथ कभी वो हमारे खाने का इंतज़ाम करता दिखा तो कभी ठंड से बचाने के लिए बार-बार कहवा पिलाने की पेशकश करता रहा। और तो और जब मैंने उनसे कश्मीर की विंटर स्पेशल डिश हरिसा चखाने की दरख़्वास्त की तो वो मुराद भी उन्होंने बहुत ही दिल से पूरी की। 

दरअसल हरिसा ( Harissa)  वो डिश है जिसे कश्मीर में सर्दियों में बनाया जाता है। हरिसा कश्मीर के 40 दिन वाले भयंकर जाड़े चिल्लाई कलां ( chillai kalan ) की स्पेशल डिश है। इस डिश को क़रीब 17-18 घंटे तक पकाया जाता है। गोश्त को चावल, कश्मीरी प्याज़ प्रान ( Pran) और चंद खड़े मसालों के साथ खूब घोट कर बनाया जाता है। और जब ये बनकर तैयार होता है तो इसे परोसते वक़्त कबाब और मेथी का अचारनुमा मसाला ऊपर रखा जाता है और फिर लगाया जाता है देसी घी या फिर तेल का तड़का। इसे सुबह के वक़्त कश्मीरी रोटी के साथ ख़ूब पसंद किया जाता है। इसकी तासीर बेहद गर्म होती है और सबसे ख़ास बात कि ये सिर्फ़ सुबह नाश्ते के वक़्त ही मिलता है दिन चढ़ने का साथ ही ये बहुत जल्द ख़त्म हो जाता है। चूंकि ये सुबह के वक़्त ही मिलता है तो ड्राइवर भइया ने ना सिर्फ़ हमें सुबह जल्दी जगा दिया बल्कि बार-बार ताक़ीद करते रहे कि जल्द तैयार हो जाइए वर्ना हरीसा ख़त्म हो जाएगा। हम जल्द ही तैयार होकर निकले और श्रीनगर के मैसूमा ( Maisuma) इलाक़े में पहुंच गए, लकड़ी पर बारीक़ नक़्क़ाशीदार झरोखों से एक गुमनाम माज़ी झांक रहा था। वीरान खिड़कियों पर खड़ी ख़ामोशी सड़क से गुज़रते वक़्त को निहार रही थी। इसी बालकनी के बग़ल से एक घूमती सी गली अंदर को जा रही थी इसी गली से होते हुए हम 'दिलशाद रेस्टोरेंट' पहुंच गए जिसपर लिखा था कि रेस्टोरेंट 1957 से चल रहा है। इस रेस्टोरेंट के दो दरवाज़ों में से एक सड़क के मुंह पर खुल रहा था जबकि दूसरा गली से अंदर जाने पर मिलता है। ड्राइवर भइया ने पहले ख़ुद जाकर देखा कि नीचे जगह है या नहीं और  जगह न होने पर वो हमें पिछले दरवाज़े से रेस्टोरेंट की ऊपरी मंज़िल पर ले गए। थोड़े से इंतज़ार के बाद मांगी गई वो छोटी सी मुराद पूरी हो गई जिसे कश्मीर आने से पहले ही मांग लिया था, जैसा सोचा था उससे कहीं लज़ीज़ था हरीसा। हमने उंगली चाट कर खाया और फिर नीचे उतर आए। वापसी मेन दरवाज़े से की और इस दौरान रेस्टोरेंट में कैश काउंटर पर बैठे उस नौजवान लड़के से तारुफ़ हुआ जो दुकान चला रहा था। मैं दुकान से जुड़ी तमाम बातें कर और तस्वीर खींच कर बाहर निकलने लगी तो पीछे से आवाज़ आई ''मैडम अगर इंस्टाग्राम पर तस्वीर पोस्ट करें तो हमें टैक ज़रूर करें'' मैंने पलट कर पूछा क्या आपके रेस्टोरेंट का अकाउंट इंस्टाग्राम पर है तो बहुत ही चहक के जवाब मिला जी है। और जब मैंने क्रॉस चेक किया तो ना सिर्फ़ रेस्टोरेंट मिला बल्कि अच्छे ख़ासे फॉलोअर्स की भीड़ भी दिखी। रेस्टोरेंट से बाहर निकल कर मैंने एक सरसरी नज़र सड़क पर दौड़ाई और गाड़ी में बैठ गई। हमारी गाड़ी अभी उस रेटोरेंट से कुछ दूर ही आगे बढ़ी थी कि ड्राइवर भइया ने बताया कि ''यासीन मलिक इसी इलाके से आता है। एक वक़्त था जब यहां बेहद टेंशन रहती थी और कब पत्थरबाज़ी शुरू हो जाए पता ही नहीं चलता था''। हालांकि ये बात ख़त्म करते-करते वो अपने आप से ही कुछ कहने के अंदाज़ में बुदबुदाए कि ''वो बहुत पहले की बात है''। उनकी ये बात सुनकर मैं भी सोचने लगी कि जिस इलाक़े की पहचान कभी पत्थरबाज़ी से जुड़ी थी आज उसी के एक लज़ीज़ ज़ायके की तलाश में दिल्ली की एक लड़की यहां तक पहुंच गई और सोशल मीडिया पर भी उसकी लज़्ज़त के दीवाने हैं।

क्या यही है आज का कश्मीर? 

मैं लगातार कश्मीर से जुड़ी तस्वीरों को अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर शेयर कर रही थी। दिलकश तस्वीरों को दिल में उतर जाने वाले कोट्स ने कुछ ख़ास बना दिया लेकिन तभी इन ख़ूबसूरत तस्वीरों को देखकर एक कश्मीरी लड़के ने शिकायती लहज़े में कमेंट किया ''Stop Romanticizing Kashmir'' मैं पूछा क्या हुआ, क्या मैंने किसी तस्वीर को ग़लत तरह से पोस्ट किया है तो उसका जवाब था कि कश्मीर की ख़ूबसूरती की तो सब बात करते हैं लेकिन असल मुद्दों पर कोई बात नहीं करना चाहता। ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती थी कि वो किन मुद्दों की बात कर रहा था पर शायद मैं भी उन मुद्दों पर बात नहीं करना चाहती या बचना चाहती हूं जिसपर हर कश्मीरी बात करना चाहता है। वो चाहते हैं कि 370 हटाने के बाद कोई उनकी बात सुने, कोई जानने की ख़्वाहिश करे कि आख़िर कश्मीर और वहां के लोगों की क्या मर्ज़ी है।

370 को लेकर मैंने कुछ एक लोगों से बात भी की लेकिन कोई घूमने आए लोगों से इस तरह की बातचीत में नहीं उलझना चाहता। लेकिन ये सवाल बेहद अहम है कि क्या कश्मीर की आवाम की आवाज़ हमतक पहुंच रही है? आख़िर वो कौन से ज़रिया है जिससे हम दूर-दराज़ के कश्मीर को जान समझ रहे हैं? 370 से पहले और बाद में जिस तरह से पत्रकारों, फोटो जर्नलिस्ट और तमाम वेबसाइट से जुड़े लोगों पर ख़ूब कार्रवाई हुई है। तो आख़िर हम कैसे समझें, कैसे जाने की कश्मीर में क्या चल रहा है वहां के लोगों की क्या राय है? कश्मीर वो मुद्दा है जिसपर बात तो सब करना चाहते हैं लेकिन उसे समझना कोई नहीं चाहता। वैसे मैं भी ये दावा नहीं कर सकती की मैंने अपनी पहली ही यात्रा में कश्मीर को समझ लिया है। लेकिन हां, एक कैफ़ियत से ज़रूर मैं गुज़र और वो थी चप्पे-चप्पे पर तैनात सुरक्षा बल के जवानों और आम कश्मीरी के बीच की तनातनी ।  आज की तारीख़ में कश्मीर, कश्मीरी लोग यहां तक की कश्मीरियत पर भी बात करना इतना आसान नहीं। वादी में टूरिस्टों की चहल-पहल से इतर एक ख़ामोशी है जिसे ख़ामोशी से ही महसूस किया जा सकता है। ख़ामोश एहसासों में डूबे अल्फ़ाज़ों की तलाश में मैं श्रीनगर आ गई थी। यहां मैं डल झील के एक हाउस बोट में रुकी थी। बेहद सर्द मौसम में हाउस बोट के कमरे जमा देने को तैयार थे लेकिन वहां काम करने वालों ने हमारे लिए हाउस बोट की लॉबी नुमा कमरे में बुखारी ( आग जलाने के लिए इस्तेमाल होने वाली बड़ी सी अंगेठी) जला दी और झट-पट कहवा ले आए हम वहीं बुखारी के आस-पास जम गए बातों का सिलसिला चल निकला हाउस बोट पर काम करने वाले इस शख़्स के पास कश्मीर के इतिहास से लेकर उसके भूगोल और आज की राजनीति से जुड़ी सैकड़ों कहानियां थीं। बातों-बातों में दहशतगर्दी की बात चल निकली जिसे लेकर उन्होंने ना सिर्फ़ चिंता ज़ाहिर की बल्कि हर कश्मीरी की तरह सवाल किया कि आख़री क्यों आज का पढ़ा-लिखा कश्मीरी जो देश-विदेश में ऊंचे ओहदों पर जा सकता है उसका नाम दहशतगर्द के तौर पर आता है? मेरे पास उनके इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। ख़ैर और भी बातें हुई उन्होंने विदेशी सैलानियों से जुड़े कई क़िस्से सुनाए, उस दौर की भी कहानी सुनाई जब डल झील में ख़ूब शूटिंग होती थी। 

डल झील पानी पर तैरती एक अलग दुनिया है जिसकी ख़ूबसूरती पर जितने क़सीदे पढ़े जाएं कम हैं। । पानी पर तैरते हाउसबोट के अलावा फ्लोटिंग गार्डन, दुकानें, शॉल के कारखाने के साथ ही झील से निकालते नदरु( कमल ककड़ी) में गुम लोगों ने एक ऐसा इकोसिस्टम बना रखा है जो बहुत ख़ास है। एक पत्रकार के तौर पर मुझे हर तरफ़ स्टोरी नज़र आ रही थी। हाउस बोट पर बने ATM ने मुझे ख़ूब हैरान किया जबकि फ्लोटिंग गार्डन देखना अपने आप में एक अलग अनुभव था। सर्द मौसम में शिकारे पर घूमते वक़्त क़रीब से गुज़रते कहवा में घुले केसर और दालचीनी की महक ने जो अरोमा हवा में घोला वो कश्मीर की ख़ुशबू के तौर पर आज भी मेरे ज़ेहन में ज़ज्ब है। तैरते शिकारे पर बन रहे Barbecue (बार्बिक्यू) ने भी ख़ूब ध्यान खींचा। हाउस बोट के इलाक़े से कुछ दूर निकला जाएं तो निशांत और शालीमार बाग़ दिखते हैं। इन बाग़ों से डल झील को देखना बहुत सुकून देने वाला लगता है। डल झील में बना चार चिनार बाग़ सच में कश्मीर की रूमानियत को बढ़ा देता है। अगर आपने यहां से इस शहर को देखा तो नामुमकिन है कि आप इस शहर की मोहब्बत में ना डूब जाएं। हर मौसम के साथ रंग बदलते चिनार और ख़ामोश झील में चार चिनार बाग़ जाकर एक आम इंसान भी मुग़लिया शान-शौक़त का लुत्फ़ उठाने का एहसास कर सकता है। जहांगीर, शाहजहां ने कश्मीर को बहुत ही मोहब्बत से संवारा। पूरे देश में शाहजहां के उस रूट को देखना चाहिए जो उनकी वास्तुकला से जुड़ा है, ये बेहतरीन है और दिलकश है। निशात बाग़ भले ही चार बाग़ टेक्नीक पर नहीं बना लेकिन बहते झरने के आस-पास चिरानों के पेड़ इसके फिरदौसी बहिश्त ( जन्नत की नहर ) के तसव्वुर का एहसास करवाते हैं। कश्मीर की पहचान चिनार की अपनी ही लंबी कहानी है, इतिहास है भूगोल और साहित्य है। चिनार ना सिर्फ़ कश्मीर में फैले सूफ़ी सिलसिले का हिस्सा रहे हैं बल्कि यहां के हिन्दुओं के लिए भी ये पड़े बेहद पवित्र है। लोगों से बातचीत की तो पता चला कि इंदिरा गांधी गिरते चिरान के पत्तों के मौसम में ख़ासतौर पर कश्मीर आती थीं। वहीं शेर-ए-कश्मीर कहे जाने वाले शेख़ अब्दुल्ला की आत्मकथा का नाम भी चिनार से जुड़ा है 'आतिश-ए-चिनार'। चिनार की एक ख़ासियत है कि उसके पत्ते हर मौसम में बेहद ख़ूबसूरत लगते हैं फिर वो हरे हों या लाल या फिर पड़े से बिछड़ते वक़्त पीले या कत्थई।

शायद ये पेड़ यूं ही कश्मीर की पहचान का हिस्सा नहीं है जैसे इस पेड़ के पत्ते हर मौसम में अपनी ख़ूबसूरती बनाए रखते हैं वैसे ही कश्मीर भी हर मौसम में दिल अज़ीज़ लगता है। लेकिन कभी-कभी लगता है कश्मीर कैसा है ये देखने वाली की निगाह के असर का मामला भी हो सकता है। अगर आप इसे मोहब्बत से देखेंगे तो हर तरफ़ प्यार, मोहब्बत दिखाई देगी लेकिन अगर आपने इसे पराया समझ कर हक ज़माने की कोशिश की तो कभी भी इसे  समझ नहीं पाएंगे। भले ही लोगों को कश्मीर का मसला रॉकेट साइंस लगता हो लेकिन मेरे लिए  ये बिल्कुल मोहब्बत के उस फलसफे की तरह था कि किसी को अपना बनाने से बेहतर है कि आप उसके हो जाइए। 

भाग 1- वादी-ए-शहज़ादी कश्मीर किसकी है : कश्मीर से एक ख़ास मुलाक़ात

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