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मोदी-संघ की "विकास और विरासत" की फासीवादी मुहिम का जवाब रैडिकल लोकतान्त्रिक विमर्श है, हिन्दू बनाम हिंदुत्व नहीं

जनता के जीवन के वास्तविक सवालों को महत्वहीन बना देने और इससे काटकर पूरे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को हिन्दू पहचान, संस्कृति और विरासत के भावनात्मक, विभाजनकारी नैरेटिव पर केंद्रित कर देने की कोशिश हो रही है, ताकि उसकी आड़ में कारपोरेट लूट का खेल बखूबी चलता रहे और उनकी मदद से सुप्रीम लीडर का despotic rule बदस्तूर कायम रहे।
rahul modi

मोदी जी की भीड़ जुटाने और वोट दिलाने की क्षमता जैसे जैसे घटती जा रही है, उसी अनुपात में ' उपयोगी ' मार्का खोखली तुकबंदी और विभाजनकारी जुमलेबाजी बढ़ती जा रही है। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास में अब एक नया 'व ' जुड़ गया है विरासत। अब नया जुमला है, 'विकास और विरासत '।

काशी विश्वनाथ कॉरिडॉर के लोकार्पण से de facto हिन्दूराष्ट्र-नायक की जो आत्मछवि उन्होंने गढ़ी है, उसके बाद से यह ' विरासत ' का जुमला अब उनके एजेंडा में सबसे ऊपर है। बेशक, हमारे देश व समाज की एक विविधतापूर्ण समृद्ध विरासत है, लेकिन मोदी जी के लिए विरासत invoke करने का केवल एक मतलब है, इतिहास के ऐसे मनगढ़ंत प्रसंग उभारना जिनसे ध्रुवीकरण हो सके।

जहाँ तक विकास की बात है, UP में तो उसका मतलब न औद्योगीकरण है न कृषि विकास व रोजगार-सृजन, बल्कि उसका मॉडल है, एक ओर एक्सप्रेसवे और एयरपोर्ट, दूसरी ओर अपनी फोटो लगी पैकेट में 80 करोड़ दरिद्र बना दिये गए मेहनतकशों के लिए मुफ्त 5 किलो अनाज, और अब चुनाव तक 1 किलो दाल, तेल और नमक की राजसी कृपा।

दरअसल, अमीर-परस्त विनाशकारी नीतियों द्वारा आम आदमी के जीवन को तबाह कर देने के बाद अब एक नया ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' वाला नैरेटिव गढ़ा जा रहा है। संघ के बुद्धिजीवी पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने इलाहाबाद में, जो लगातार नौकरियों और रोजगार के लिए छात्र-युवा आदोलन का केंद्र बना हुआ है, हाल ही में बयान दिया कि, " फ़र्ज़ी लोग बेरोजगारी को मुद्दा बनाते हैं। देश में 135 करोड़ लोगों में मात्र 4 करोड़ को सरकारी नौकरी मिलनी है, वह सबको तो मिल नहीं सकती। फिर उसको मुद्दा बनाने का क्या मतलब ? बेरोजगारी, महंगाई, पेट्रोल, डीजल की कीमत को मुद्दा बनाने की जगह राष्ट्र की खोई पहचान, उसकी संस्कृति, सभ्यता की रक्षा करने वालों को चुनें ! "

मामला बिल्कुल साफ है, यह काशी अयोध्या मथुरा, यह विरासत का नारा, यह सब इस बात का आह्वान है कि जीवन के बुनियादी सवाल-रोजी-रोटी, महंगाई, शिक्षा-स्वास्थ्य सब भूल जाओ, असली सवाल है-राष्ट्र की खोई पहचान की पुनर्वापसी, संस्कृति अस्मिता- इन्हें मुद्दा बनाओ। ( क्योंकि, जीवन के मूलभूत सवाल तो हल होने से रहे ! )

जनता के जीवन के वास्तविक सवालों को महत्वहीन बना देने ( trivialize कर देने ) और इससे काटकर पूरे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को हिन्दू पहचान, संस्कृति और विरासत के भावनात्मक, विभाजनकारी नैरेटिव पर केंद्रित कर देने की कोशिश हो रही है, ताकि उसकी आड़ में कारपोरेट लूट का खेल बखूबी चलता रहे और उनकी मदद से सुप्रीम लीडर का despotic rule बदस्तूर कायम रहे।

जनमानस में यह धारणा बनाने की कोशिश है कि हिन्दू-राष्ट्र के जिस मिशन की ओर बढ़ने की शुरुआत 90 के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस द्वारा हुई थी, वह अब अयोध्या में भव्य राम मन्दिर निर्माण और दिव्य काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के माध्यम से पूर्णता की ओर पहुंचने वाला है, यह हिन्दू राष्ट्र के उदय का उषाकाल है।

उत्तरप्रदेश के चुनाव में इस नैरेटिव की परीक्षा होनी है। एक ओर आम जनता के असह्य होते जीवन के बुनियादी प्रश्नों का अंबार है, उनकी अधिकारविहीनता और उत्पीड़न है, जनता का बढ़ता दरिद्रीकरण है, दूसरी ओर कारपोरेट लूट का विकास-मॉडल और विभाजनकारी "विरासत" के मिथ्याभिमान का मायाजाल।

इनमें से कौन सा एजेंडा चुनाव-नतीजों को तय करेगा ?

जिस तरह चुनाव आयुक्तों समेत मुख्य चुनाव आयुक्त को PMO द्वारा तलब किया गया, उससे ऐसा लगता है मोदी जी खुद अपने नैरेटिव की सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं हैं । इसीलिए सरकार संवैधानिक लोकतन्त्र की बची खुची मर्यादाओं को भी ताक पर रख देने में हिचक नहीं रही है। ऐन चुनाव के वक्त विरोधियों के खिलाफ सरकारी एजेंसियां सक्रिय हो गयी हैं। Electoral Bond, कारपोरेट मीडिया पर नियंत्रण और सरकारी मशीनरी के चौतरफा दुरुपयोग के माध्यम से level-playing फील्ड तो पहले ही खत्म कर दी गयी थी । संसद को पहले ही farce में बदल दिया गया है,अब चुनावों को भी पूरी तरह manipulate करने की कोशिश हो रही है।

जाहिर है, मोदी-शाह जोड़ी के नेतृत्व में संघ-भाजपा पहले UP और फिर 24 में दिल्ली जीतने के लिए किसी भी हद से गुजर जाएंगे। आने वाले दिन हमारे लोकतंत्र के लिए बेहद आशंका और चिंता भरे रहने वाले हैं।

देश एक नाजुक मोड़ पर है। इस दौर का द्वंद्व हमारे राष्ट्रराज्य की भावी दिशा तय करेगा, इतिहास के इस cross-road से भारत एक लोककल्याणकारी गणतंत्र के रूप में पुनरुज्जीवित और ऊर्जस्वित होकर आगे बढ़ेगा अथवा दुनिया के अनेक अन्य देशों की तरह एक चुनावी तानाशाही ( electoral despotism ) के अन्धकार युग में पूरी तरह डूब जाएगा।

हिन्दू और हिन्दुत्व की बहस से मोदी-संघ की फासीवादी आक्रामकता की काट नहीं हो सकती

यह एक failed strategy है। यह रणनीति इस देश में पहले ही विफ़ल हो चुकी है। इतिहास इसकी निरर्थकता और counter-productive संभावनाओं को बार-बार साबित कर चुका है। सन्दर्भ और historical setting अलग हैं, लेकिन आज़ादी की लड़ाई के दौर में गांधी जी का रामराज्य और वैष्णव-जन का पूरा डिस्कोर्स उनके सर्वोच्च बलिदान के बावजूद साम्प्रदायिक राजनीति के उभार को नहीं रोक सका और अंततः इसी हत्यारी राजनीति के हाथों वे शहीद हो गए।

लोहिया जी के कट्टर हिंदू बनाम सनातन हिन्दू की राजनीति का हश्र सर्वविदित है, जिसका अंत गैरकांग्रेसवाद के रास्ते संघ-भाजपा को वैधता प्रदान करने, अनेक स्वनामधन्य समाजवादियों के फासीवादी उभार के प्रत्यक्ष मददगार बन जाने और पिछड़े समुदाय के अच्छे-खासे हिस्से के खतरनाक हिन्दुत्वकरण में हुआ।

80 के दशक में रुद्राक्ष की माला पहनकर हिन्दू एकात्मता सम्मेलन में इंदिरा गांधी का शामिल होना या राजीव गांधी का राम-मंदिर शिलान्यास संघ-भाजपा के उभार को रोक पाने की बजाय उसमें अनचाहे ही मददगार बन गया था।

संघ की पूरी राजनीतिक परियोजना का, जिसे उसके सिद्धांतकारों ने शातिर ढंग से 'हिंदुत्व ' नाम दिया है, उसका exposure करना और उसके खिलाफ लड़ना बेशक आज का सबसे जरूरी कार्यभार है, उसमें हमारी परम्परा के उदारवादी मूल्यों और प्रतीकों का उपयोग करना एक बात है, पर नरेंद्र मोदी एंड कम्पनी के खिलाफ, फासीवादी विरोधी लड़ाई में इसे मुख्य नैरेटिव बनाना, हिन्दू बनाम हिंदुत्व या अच्छे हिन्दू बनाम बुरे हिन्दू की पिच पर जाकर लड़ना उनके जाल में फंसना है।

इनसे लड़ने का एक ही रास्ता है, जिसकी झलक किसान-आंदोलन ने दिखाई है। किसान-आंदोलन ने अपनी लड़ाई के साथ जो रैडिकल लोकतान्त्रिक वैचारिक विमर्श खड़ा किया वही फासीवादी विमर्श का सबसे सटीक जवाब है, जिसने अंततः मोदी को घुटने टेकने को मजबूर किया।

वह विमर्श था- गणतंत्र में प्रत्येक नागरिक के जीवन और गरिमामय आजीविका का अधिकार सर्वोपरि है, हक के लिए लड़ने और विरोध का अधिकार non-negotiable है, वह लोकतन्त्र की आत्मा है, उसे कोई सत्ता किसी भी नाम पर छीन नहीं सकती, जनता ही राष्ट्र है-उसके हित सर्वोच्च हैं, किसी अमूर्त राष्ट्रवाद का हवाला देकर, कारपोरेट हित को राष्ट्रीय हित बताकर जनता के हित छीनने की इजाजत नहीं दी जा सकती। सभी संकीर्ण सामुदायिक विभाजनों के पार लड़ाकू जनता की विराट एकता, आपसी भाईचारा और सौहार्द उनकी साझी लड़ाई का आधार और जीत की शर्त है तथा यही सच्ची राष्ट्रीय एकता की भी बुनियाद है।

किसानों ने हमारे राष्ट्र और समाज की सभी परम्पराओं के जीवंत उदार, प्रगतिशील मूल्यों, विशेषकर हमारी आज़ादी की लड़ाई के आदर्शों और प्रतीकों से प्रेरणा ली, संविधान के मूल्य उनका सबसे बड़ा सम्बल और मार्गदर्शक बने।

इस तरह किसान-आंदोलन ने मोदी की कारपोरेट-फासीवादी सत्ता के छद्म राष्ट्रवाद, को expose कर दिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विभाजनकारी राजनीतिक विमर्श को ध्वस्त कर देशभक्त, लोकतान्त्रिक, जनविमर्श खड़ा कर दिया। मोदी के 'विकास और विरासत ' के मॉडल से लड़ने का रास्ता यही है।

जाहिर है मोदी मॉडल को शिकस्त देने के लिए उनके एयरपोर्ट-एक्सप्रेसवे के विकास मॉडल से प्रतिस्पर्धा करने की बजाय मुकम्मल आर्थिक पुनर्जीवन, राज व समाज के जनतांत्रिकरण, आम जनता को रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य की दृष्टि से सशक्त बनाने, नागरिक-अधिकारों व गरिमामय जीवन की गारंटी, पुलिस-राज और काले कानूनों के खात्मे, लोकतान्त्रिक संस्थाओं व मूल्यों के सुदृढ़ीकरण को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ले आना होगा, चुनाव के पूर्व भी और चुनाव के बाद भी।

क्या विपक्ष के अंदर इस रास्ते पर चलने की नीयत, नीति और इच्छाशक्ति है ?

लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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