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जनहित याचिका पर जुर्माना: अब अदालत भी पूछने लगी है कि ‘तू क्या है?’

याचिकाकर्ता कौन हैं, इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जनहित याचिका में वे जनहित का मसला उठा रहे हैं या नहीं।
टनल में फंसे लोगों को बचाने के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन
फोटो साभार : ITBP

“हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है”

ग़ालिब ने जब यह शेर कहा होगा तो ज़ाहिरा तौर पर उनके दिमाग में कोई अदालत नहीं रही होगी। लेकिन उत्तराखंड में वाक़या ऐसा हो गया कि अदालत से भी ऐसा ही प्रश्न पूछना पड़ रहा है कि “ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है” !

14 जुलाई 2021 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय, नैनीताल के मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ में पहली सुनवाई पर ही याचिकाकर्ताओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए, जनहित याचिका खारिज कर दी। मुख्य न्याधीश न्यायमूर्ति राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने अपने चार पृष्ठों के फैसले में लिखा कि “ याचिकाकर्ताओं ने स्वयं के सामाजिक कार्यकर्ता होने का दावा किया है पर याचिका में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं।”

न्याय के आलय में पहले आदमी की हैसियत का माप-तोल हो, उससे पूछा जाये कि “'तू क्या है” और तब उसे न्याय देने या ना देने का निर्णय हो तो ऐसा न्याय कैसा न्याय होगा भला !

अब यह समझ लेते हैं कि जिन याचिककर्ताओं की याचिका, उनके सामाजिक कार्यकर्ता होने पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने पहली पेशी पर खारिज कर दी, वे किस न्याय की आस में उच्च न्यायालय गए थे।

क्या है पूरा मामला

सात फरवरी 2021 को उत्तराखंड के जोशीमठ क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने से भारी जल प्रलय आई। चिपको आंदोलन और उसकी नेता गौरा देवी के गाँव रैणी के मुहाने पर ऋषिगंगा नदी पर बनी 13 मेगावाट की ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना पूरी तरह ज़मींदोज़ हो गयी। पाँच किलोमीटर नीचे की तरफ, तपोवन में एनटीपीसी 520 मेगावाट की परियोजना बना रही है। इस परियोजना का बैराज और सुरंग पूरी तरह से मलबे से पट गए। आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से दोनों परियोजनाओं में काम करने वाले 204 लोग लापता हुए, जिनमें से किसी को भी जीवित नहीं खोजा जा सका। यहां तक कि तपोवन की जिस सुरंग पर सारा बचाव और खोज अभियान केंद्रित रहा, फौज, आईटीबीपी, एनडीआरएफ़, एसडीआरएफ़ के बचाव के काम में लगे होने के बावजूद, उस सुरंग से भी किसी को जीवित नहीं निकाला जा सका।

सात फरवरी के जलप्रलय ने उच्च हिमलायी क्षेत्रों में भारी-भरकम जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के संभावित खतरों के प्रति फिर चेताया। परियोजना बनाने वाली कंपनियों का ऐसे खतरों के प्रति लापरवाही पूर्ण रवैया भी उजागर हुआ। सुरक्षा इंतज़ामों की हालत यह थी कि एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना में खतरे की पूर्व चेतावनी देने के लिए एक अदद साइरन तक नहीं था।

जोशीमठ क्षेत्र में परियोजनाओं और उनके निर्माण में लापरवाही से आसन्न खतरे, विस्थापन-पुनर्वास जैसे सवालों को लेकर ही याचिकाकर्ता, उच्च न्यायालय नैनीताल गए थे। उच्च न्यायालय, नैनीताल के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने अपने फैसले के पहले पृष्ठ पर ही उन बिंदुओं का उल्लेख किया है, जिनके लिए उक्त जनहित याचिका दाखिल की गयी थी। खारिज की गयी जनहित याचिका में उठाए गए मुख्य बिंदुओं पर भी दृष्टिपात कर लिया जाये। उक्त जनहित याचिका में मांग की गयी कि:

* भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय एवं उत्तराखंड सरकार द्वारा फरवरी 2021 से पहले ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना और तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना को दी गयी वन एवं पर्यावरण स्वीकृति रद्द की जायें क्यूंकि फरवरी की बाढ़ के बाद ये स्वीकृतियां अर्थहीन हैं।

इस क्षेत्र के लिए संभावित खतरों के मद्देनजर उक्त दोनों परियोजनाओं को रद्द किया जाये।

* सात फरवरी की घटना में परियोजना निर्माता कंपनियों द्वारासुरक्षा में बरती जा रही आपराधिक लापरवाही उजागर हुए है, इसके लिए इन कंपनियों पर ज़िम्मेदारी आयद की जाये।

* रैणी गाँव का समुचित पुनर्वास किया जाये और विस्थापन व पुनर्वास पर खर्च होने वाली धनराशि परियोजना निर्माताओं से वसूली जाये।

इस तरह के मसलों पर उक्त जनहित याचिका में उच्च न्यायालय से निर्णय की गुहार लगाई गयी थी। उच्च न्यायालय ने उक्त सभी बिंदुओं को अपने फैसले में उद्धृत भी किया। परंतु फिर याचिकाकर्ताओं की पहचान पर सवाल खड़ा करते हुए याचिका को न केवल खारिज कर दिया बल्कि प्रत्येक याचिकाकर्ता पर दस-दस हजार रुपये का जुर्माना भी लगा दिया।

हालांकि याचिकाकर्ता कौन हैं,इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जनहित याचिका में वे जनहित का मसला उठा रहे हैं या नहीं। परंतु चूंकि उच्च न्यायालय नैनीताल के मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ ने याचिककर्ताओं की पहचान पर सवाल उठाया है, इसलिए यह भी जान लिया जाये कि याचिकाकर्ता कौन हैं-

याचिकाकर्ताओं में से तीन लोग उस रैणी गांव के मूल निवासी हैं,जिस गाँव पर आपदा की इतनी मार पड़ी है कि चिपको आंदोलन के लिए प्रसिद्ध, यह गाँव विस्थापित किए जाने वाले गांवों की सूची में आ गया है। ग्रामसभा की बैठक के प्रस्ताव व सर्वसम्मति से लिये गए निर्णय के आधार पर ही उक्त तीन याचिकाकर्ता न्यायालय गए। तीन में से  एक भवान सिंह राणा, वर्तमान में ग्रामसभा के प्रधान हैं। संग्राम सिंह पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य हैं और 2019 में ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ नैनिताल उच्च न्यायालय जा चुके हैं। लेकिन उस समय न्यायालय ने उनकी पहचान पर सवाल खड़ा नहीं किया था।

तीसरे सोहन सिंह हैं जो चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी के पोते हैं। इनके अलावा कमल रतूड़ी कांग्रेस के नेता और आन्दोलनकारी हैं। प्रशिक्षित बेरोजगारों के आंदोलन के नेता रहे हैं. जोशीमठ में परियोजनाओं के खिलाफ चले आंदोलन में सदा से सक्रिय रहे हैं।

अतुल सती, भाकपा (माले) की राज्य कमेटी के सदस्य हैं। छात्र जीवन से आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं. जोशीमठ क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं समेत तमाम सवालों पर आंदोलनों के प्रमुख नेता रहे हैं। जोशीमठ में विभिन्न जन आंदोलनों का नेतृत्व करने वाली जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक का दायित्व निभाते रहे हैं। नब्बे के दशक में श्रीनगर( गढ़वाल) से निकलने वाली पत्रिका “शायद संभावना” के संपादक और प्रकाशक रहे हैं। हाल-हाल में ही जोशीमठ में परियोजनाओं से हुई तबाही,विस्थापन, पुनर्वास पर उनके लेख नवभारत टाइम्स से लेकर मूंगबे जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और पोर्टल्स में छपते रहे हैं। जोशीमठ संबंधी मामलों में देश-दुनिया के पत्रकारों के लिए वे संदर्भ व्यक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं और इस रूप में दुनिया भर की पत्र-पत्रिकाओं में उनका पक्ष प्रकाशित होता रहा है।

याचिकाकर्ताओं के उक्त परिचय से स्पष्ट है कि वे सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोग हैं. इसमें मुख्य याचिकाकर्ता संग्राम सिंह को अदालत द्वारा ना पहचानना आश्चर्यजनक है. संग्राम सिंह ने उच्च न्यायालय, नैनीताल में ही लाता-तपोवन जलविद्युत परियोजना पर सवाल खड़ा करते हुए, जनहित याचिका दाखिल की हुई है. रोचक यह है कि नौ जुलाई को संग्राम सिंह की उक्त याचिका पर मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने सुनवाई करते हुए, इस मामले के उच्चतम न्यायालय में चलने के कारण, मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला आने तक स्थगित कर दिया। जिन संग्राम सिंह की याचिका पर नौ जुलाई को स्थगन फैसला लिखा गया, उन्हीं संग्राम सिंह की पहचान पर 14 जुलाई का मुख्य न्यायाधीश और उनके साथी न्यायाधीश ने प्रश्न खड़ा कर दिया, यह विचित्र है!

न्याय का तक़ाज़ा तो यह है कि जनहित याचिका में जनहित की कसौटी पर कसते हुए फैसला दिया जाये। लेकिन हैरतअंगेज बात यह है कि उच्च न्यायालय, नैनीताल के मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ ने याचिककर्ताओं की पहचान को मुख्य आधार बना दिया। यह अगर नजीर बन जाये तो पूरे देश में सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए जनहित के मसलों पर न्यायालय जाने का रास्ता ही बंद हो जाएगा क्यूंकि सामाजिक कार्यकर्ता की न तो कोई डिग्री होती है, ना ही सरकारी नियुक्ति पत्र! ग्राम सभा के चुने हुए प्रधान और पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य को यदि “सामाजिक” नहीं समझा गया तो इस तर्क से किसी के भी अस्तित्व को नकारा जा सकता है।

अपने फैसले में नैनीताल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा ने यह भी लिखा कि “याचिकाकर्ताओं के पीछे कोई अदृश्य हाथ है, जिसकी आड़ लेते हुए याचिका दाखिल की गयी है... याचिकाकर्ता एक अज्ञात कठपुतली नचाने वाले के हाथों की कठपुतली हैं।”  यह कहते हुए अदालत ने प्रत्येक याचिकाकर्ता पर दस-दस हजार रुपया जुर्माना लगा दिया। पर दोनों न्यायमूर्ति इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे कि याचिकाकर्ताओं के पीछे कोई अदृश्य हाथ है, इसका फैसले में कोई उल्लेख नहीं है। अगर वास्तव में कोई अदृश्य हाथ है तो दोनों न्यायाधीशों ने उसकी खोज-खबर करने का इंतजाम क्यूँ नहीं किया, सिर्फ उन पर जुर्माना क्यूँ लगाया, जिनको वे मुखौटा कह रहे हैं?

जैसी टिप्पणी दो न्यायाधीशों ने याचिकाकर्ताओं के बारे में की है, वैसी टिप्पणी न्यायाधीशों के बारे में किसी ने की होती तो यह अदालत की अवमानना मानी जाती। सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय व्यक्तियों की कुल संपदा तो उनकी साख ही होती है, जिसे दो न्यायाधीशों की टिप्पणी ने धक्का पहुंचाया है। क्या आम जन के मान की हानि कभी भी की जा सकती है मीलॉर्ड क्यूंकि उनके पास अवमानना का हथियार नहीं? जनहित याचिका में जन हित पर ध्यान देना चाहिए मीलॉर्ड,  जन को हिट करने पर नहीं!

(लेखक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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